पंजाब के नये कृषि कानूनों से दलालों की हो गयी बल्ले-बल्ले

By राकेश सैन | Oct 23, 2020

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि कानूनों के विरोध में पास किए अधिनियमों को देख पंचतंत्र की उस कहानी का स्मरण हो उठता है जिसमें मूर्ख सेवक राजा की नाक से जिद्दी मक्खी को उड़ाने के लिए तलवार से वार करता है, मक्खी उड़ जाती है और बेचारा राजा सूर्पनखा की श्रेणी में आ जाता है। राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के साथ-साथ विपक्षी दल जिनमें आम आदमी पार्टी व शिरोमणि अकाली दल बादल ने किसानों के हितों की रक्षा के नाम पर उनको बर्बादी के मार्ग पर धकेल दिया है। कहने को तो कांग्रेस सरकार ने यह कानून किसानों के हित में बनाए हैं परंतु इनसे बल्ले-बल्ले दलालों व बिचौलियों की होती दिख रही है। इन कानूनों के अनुसार, फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य न देने पर आरोपी को सजा तो मिल सकेगी परंतु राज्य सरकार और निजी कंपनी फसलें खरीदने को बाध्य नहीं होंगी। इसके बाद शुरू होगा किसानों के शोषण का सिलसिला। कानून के अनुसार, गेहूं व धान की फसलों की तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक्री सुनिश्चित की है परंतु राज्य में पैदा होने वाली 23 अन्य फसलों को इस सुविधा से बाहर रखा गया है। राज्य सरकार द्वारा बिना सोच विचार के पारित किए गए इन कानूनों ने पंजाब की कृषि व किसानों को पतन के मार्ग पर डाल दिया है। 20 अक्तूबर को पंजाब विधानसभा के विशेष सत्र में तीन नए कृषि विधेयकों को पारित किया गया। ये कृषि विधेयक हाल ही में केंद्र सरकार की ओर से लाए गए तीन नए कृषि कानूनों को निष्प्रभावी करने के लिए लाए गए हैं। केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए जिन तीन नए कृषि कानूनों को खारिज किया गया है वे हैं- कृषि उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020 हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में इन कानूनों को लेकर एक महीने से किसानों का विरोध-प्रदर्शन चल रहा है।

इसे भी पढ़ें: कृषि-किसान बिल के लाभ को समझिए, तमाम आशंकाएं हैं निर्मूल?

अब पंजाब विधानसभा में पारित प्रस्तावों का मुख्य प्रावधान है- न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद को गैरकानूनी घोषित करना। बड़े पैमाने पर किसान संगठनों की भी यही मांग थी पर इन कानूनों में यह आश्वासन नहीं है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करेगी। अगर पंजाब द्वारा पारित कानून अपने वर्तमान रूप में राष्ट्रपति की अनुमति के बाद लागू हो भी जाते हैं तो इससे यह सुनिश्चित नहीं होगा कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले। बल्कि कानून का कड़ाई से पालन होता है तो काफी सारे किसानों की फसल बिकेगी ही नहीं। व्यापारी इस बात के लिए तो बाध्य होगा कि वह किसान की उपज खरीदे तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न खरीदे, पर वह खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगा और न ही सरकार खरीदने को बाध्य है।


वर्तमान में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर ही सही किसान की फसल बिक तो जाती है। वैसे भी केंद्र सरकार का आंकड़ा है कि देश में केवल 6 प्रतिशत फसल ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिकती है और इस 6 प्रतिशत में भी 86 प्रतिशत हिस्सा केवल पंजाब और हरियाणा का है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केवल सरकार ही खरीद करती है, व्यापारी तो अपना-नफा नुक्सान देख कर रेट लगाता है। अगर उसे सरकारी रेट पर मजबूर किया गया तो या तो वह फसल खरीदने से इनकार कर देगा या फिर खरीद का काम दो नंबर में होगा। इससे किसानों की गर्दन पूरी तरह निजी व्यापारियों के हाथों में आ जाएगी। कुल मिलाकर इसका वही हश्र होने वाला है जो मान्यताप्राप्त निजी स्कूलों और कालेजों में होता है। कर्मचारी हस्ताक्षर तो कानूनी रूप से देय वेतन पर करता है, पर वास्तव में उससे वेतन मिलता बहुत कम है। अब किसान के साथ भी ऐसा होने का मार्ग खुल चुका है।


यह किसानों के साथ कितनी बड़ी राजनीतिक ठगी है कि सरकार फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात तो करती है परंतु खरीद सुनिश्चित हो इस बात को अव्यवहारिक मानती है। विधानसभा में बहस के दौरान सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का आश्वासन देने की मांग पर न केवल पंजाब सरकार ने इसको खारिज कर दिया अपितु इसको अव्यावहारिक भी बताया। जब सरकार ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी के आश्वासन को अव्यावहारिक मानती है तो फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीदी पर सजा के प्रावधान का क्या अर्थ रह जाता है?


दूसरी ओर पंजाब द्वारा पारित कानून के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदी पर सजा का प्रावधान केवल गेहूं एवं धान की खरीद पर लागू होगा, न कि सब फसलों पर। राज्य में मक्की, कपास, गन्ना, बाजरा सहित 22 तरह की अन्य फसलों की बिजाई भी होती है और इन फसलों को एमएसपी से बाहर रखा गया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि बाकी फसल बोने वाले किसानों की सरकार को कोई चिंता नहीं है। इसके अलावा यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दशकों से हरियाणा-पंजाब सहित उत्तर भारत में फसल विविधीकरण की जरूरत महसूस हो रही है तो केवल गेहूं व धान का एमएसपी सुनिश्चित कर इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकता है। सरकार के इन कानूनो में फल उत्पादकों व सब्जी उत्पादकों के बारे में भी कोई जिक्र नहीं है जबकि राज्य में उच्च स्तर पर बागवानी की जाती है।

इसे भी पढ़ें: झूठ और दुष्प्रचार के बीज बोकर गांधी परिवार की चौपट राजनीतिक फसल को उगाने का प्रयास

आश्चर्य की बात है कि राज्य सरकार ने जिन केंद्रीय कानूनों का विरोध किया है उस तरह के कानून तो राज्य में पहले से ही विद्यमान हैं। साल 2006 में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ही एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट एक्ट (एमेंडमेंट) एक्ट के जरिए राज्य में निजी कंपनियों को खरीददारी की अनुमति दी थी। कानून में निजी यार्डों को भी अनुमति मिली थी। किसानों को भी छूट दी गई कि वह कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकता है। साल 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इन्हीं प्रकार के कानून बनाने का वायदा किया था जिसके विरोध में वह अब कानून लाई है। साल 2013 में, अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार ने अनुबंध कृषि की अनुमति देते हुए कानून बनाया। अब जब केंद्र ने इन दोनों कानूनो को मिला कर नया कानून बनाया तो कांग्रेस व अकाली दल बादल इसके विरोध में आ गए। यह कहना गलत नहीं होगा कि पंजाब सरकार ने उक्त कदम किसान हित की बजाय राजनीतिक नफे नुकसान को ध्यान में रख कर अधिक उठाया है। तलवार से मक्खी उड़ाने जैसी मूर्खता कर डाली है जिसका खमियाजा किसानों को उठाना पड़ेगा।


-राकेश सैन

प्रमुख खबरें

PM Narendra Modi कुवैती नेतृत्व के साथ वार्ता की, कई क्षेत्रों में सहयोग पर चर्चा हुई

Shubhra Ranjan IAS Study पर CCPA ने लगाया 2 लाख का जुर्माना, भ्रामक विज्ञापन प्रकाशित करने है आरोप

मुंबई कॉन्सर्ट में विक्की कौशल Karan Aujla की तारीफों के पुल बांध दिए, भावुक हुए औजला

गाजा में इजरायली हमलों में 20 लोगों की मौत