क्यों देरी से बनते हैं टीके और इसके विकास की प्रक्रिया क्या है?

By मिथिलेश कुमार सिंह | May 07, 2020

कोरोना संकट में विश्व का हर व्यक्ति यह दुआ कर रहा है कि इसके लिए जल्द से जल्द वैक्सीन बन जाए। कई लोग संभवतः यह पहली बार जान-समझ रहे होंगे कि किसी भी बीमारी के टीके के विकास में सालों लग जाते हैं। इससे पहले उन तमाम लोगों को लगता होगा कि अधिक से अधिक कुछ महीनों में वैक्सीन बन जाती है।


कई विकसित और विकासशील देशों के लोग तो इस बात की भी उम्मीद लगाए बैठे रहे होंगे कि अमेरिका, जापान, यूरोप के कई विकसित देश, चीन इत्यादि जल्द ही वैक्सीन का विकास कर लेंगे और कोरोना वायरस पर नियंत्रण पाया जा सकेगा, पर अब 4 महीने से अधिक का समय हो चुका है और वैक्सीन बनने की कहीं से कोई खोज खबर नहीं आई है। 

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प्रश्न उठता है कि आज के विकसित- आधुनिक समय में भी टीके बनने की प्रक्रिया में आखिर इतना समय क्यों लगता है? साथ ही टीके बनने की समूची प्रक्रिया क्या होती है, किन चरणों में इसकी टेस्टिंग होती है? 


आइए आज इस पर नजर डालते हैं


कोरोना वायरस के संदर्भ में बहुप्रतीक्षित एक प्रभावी एंटीवायरल ड्रग के फेल होने की जब खबर आई, तब लोगों की उम्मीद कोरोना के लिए वैक्सीन के विकास को लेकर और धूमिल हो गई। चीन में रेमडेसिवयर नाम एंटी वायरल ड्रग अपने पहले ही रैंडम क्लीनिकल ट्रायल को पास नहीं कर पाया। बताया जाता है कि यह ड्रग लेने वाले तकरीबन 13.9 परसेंट पेशेंट मारे गए। इसलिए जाहिर था कि इस दवा का साइड इफेक्ट हो रहा था और इसलिए इसे रोक दिया गया। 


जरा सोचिए, एक से बढ़कर एक रिसर्च और विश्व के तमाम मेडिकल साइंटिस्ट दवा विकसित करने की प्रक्रिया में लगे होंगे, लेकिन इसे फेल घोषित कर दिया गया। आप ऐसा ना समझें कि एक बार फेल होने के बाद यह प्रक्रिया रुक जाती है। संभवतः आप यह निष्कर्ष जरूर निकाल सकते हैं कि वैक्सीन विकास करने की प्रक्रिया में एक नहीं दर्जनों फेल्योर आते हैं और इसीलिए एक परफेक्ट वैक्सीन के विकास में बड़ा लम्बा समय लगता है।


टीके के बारे में अगर हम विस्तृत रूप से जानें, तो आप यह समझ लीजिए कि अगर कोई वैक्सीन आपके शरीर में मौजूद है तो इसका मतलब यह है कि भविष्य में वह संभावित बीमारियों से आपके शरीर की रक्षा कर सकती है। पोलियो की दो बूँद, जो आपको पिलाई गई और भारत सहित विश्व के तमाम बच्चों को पिलाई गई, उससे यह सुनिश्चित हुआ कि पोलियो नाम का वायरस भविष्य में आप पर जब भी अटैक करेगा तो वह दो बूंद आपके शरीर में एंटीबॉडी तैयार कर देगी। 

 

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ठीक यही प्रक्रिया किसी भी टीके के पीछे की होती है।


टीकों की बात करें तो इसकी उचित डोज लेने के बाद, जब कोई वायरस आपके शरीर पर अटैक करता है तो एंटीबॉडीज प्रभावी तरीके से उनसे लड़ता है और आपके शरीर में एक तरह से गार्ड की भूमिका निभाता है। 


टीकों के विकास की प्रक्रिया इसी से जुड़ी हुई है। वस्तुतः कई रोगाणुओं के खिलाफ कुछ टीके खुद एक जीवाणु ही होते हैं, लेकिन यह इस तरीके से आपके शरीर में इंजेक्ट किए जाते हैं कि आपके शरीर को नुकसान होने की बजाय धीरे-धीरे आपका शरीर उस तंत्र को विकसित कर ले जो किसी रोग को रोकने में सहायक हो। ऐसे में यह एक धीमी प्रक्रिया है और अगर आपके शरीर में एक झटके से कोई भी जीवाणु जाता है तो वह एक तरह से ज़हर का कार्य करता है और इसलिए टीकों का विकास एक धीमी प्रक्रिया मानी जाती है।


सच्चाई तो यह है कि तमाम वैक्सीन्स को हंड्रेड परसेंट कारगर कभी भी नहीं माना जाता है। इसमें भी अलग-अलग टीकों की अलग मात्रा होती है, जैसे खसरा का टीका अगर है तो उसकी दूसरी खुराक लेने के बाद 99.7% सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होने की सलाह डॉक्टर्स देते हैं। इसी प्रकार निष्क्रिय पोलियो का टीका तीन खुराक लेने के बाद तकरीबन 99% इफेक्टिव रूप से कार्य करता है। गांवों में जिसे छोटी चेचक बोला जाता है, वह तमाम इंफेक्शन से तकरीबन 85 परसेंट से 90% आपकी रक्षा करता है। हालांकि गंभीर चेचक के मामलों में इसकी प्रतिरोधी क्षमता सौ पर्सेंट बतायी जाती है।


टीकों के विकास की बात करें, तो कोरोना वायरस के संदर्भ में यह कहा जा रहा है कि इसका प्रभावी टीका डेढ़ से 2 वर्ष के भीतर मार्केट में उपलब्ध हो सकता है, लेकिन आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि कुछ टीके विकसित होने में एक दशक से डेढ़ दशक का समय ले लेते हैं, यानी 15 वर्ष तक।


19वीं शताब्दी के लास्ट तक प्लेग, हैजा, टाइफाइड, रेबीज इत्यादि के टीके विकसित किए गए थे और इनका विकास अलग-अलग देशों में अलग-अलग मेथड पर हुआ था। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ की एक कमेटी इंटरनेशनल लेवल पर रिकमेंडेशन करती है कि टीकों में क्या प्रयोग किया जाए, कौन सा उत्पाद प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार यूरोपीय संघ में यूरोपियन मेडिसिंस एजेंसी तमाम वैक्सीन के विकास की प्रक्रिया की निगरानी करती है।


सामान्यतः वैक्सीन डेवलपमेंट की प्रक्रिया में एक स्टैंडर्ड प्रोसेस फॉलो किया जाता है। इसमें सबसे पहले अन्वेषी प्रक्रिया होती है और इसके बाद नियमन और निगरानी आती है। अन्वेषण चरण में लेबोरेटरी में इस पर रिसर्च किया जाता है जिसमें सामान्य रूप से 2 से 4 साल तक लग जाते हैं। इसमें तमाम साइंटिस्ट नेचुरल और आर्टिफिशियल एंटीजन की पहचान करते हैं जो किसी भी बीमारी की रोकथाम में मदद कर सकता है।


इसके बाद क्लीनिकल पूर्व चरण आता है। इसमें कोशिका संवर्धन प्रणाली का उपयोग किया जाता है और जंतु परीक्षण किया जाता है, जिससे वैक्सीन की सिक्योरिटी सुनिश्चित होती है। विकास के क्रम में चूहे और बंदरों इत्यादि पर टीके का प्रयोग किया जाता है।


इसके अतिरिक्त भी कई प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसकी जटिलता उतनी ही होती है, जितना इसमें समय लगता है।

 

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टीकों का विकास, परीक्षण और नियमन उन्हीं मेथड  से किया जाता है, जैसा कि अन्य दवाओं के लिए। हालाँकि, इसमें एक मूल फर्क यह होता है कि टीकों का परीक्षण, गैर-टीका मेडिसिन की तुलना में प्राय: पूर्ण रूप से किया जाता है। इसका कारण बड़ा साफ़ है क्योंकि टीके के मेडिकल टेस्ट्स में मनुष्यों की संख्या बहुत ही अधिक होती है। इसके अतिरिक्त, लाइसेंस के बाद की सुरक्षा के लिए भी वैक्सीन की गहन निगरानी की जाती है।


ज़ाहिर तौर पर इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना वायरस के लिए टीकों के विकास की प्रक्रिया तीव्र गति से आगे बढ़ेगी और मानवता की रक्षा के लिए जल्द से जल्द मेडिकल साइंटिस्ट सुदृढ़ हल प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे।


मिथिलेश कुमार सिंह


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