By स्वदेश कुमार | Jul 29, 2023
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए बंजर मरुस्थल बन गया है। अब यहां ना कांग्रेस की सीटें आती हैं, ना वोट मिलता है। स्थिति यह है कि कांग्रेस यूपी में सोनिया गांधी की एक मात्र रायबरेली संसदीय पर सिमट गई है। कहने को तो गांधी परिवार से ताल्लुक रखने वाली मेनका गांधी और वरूण गांधी भी यूपी से सांसद हैं, लेकिन वह कांग्रेस की जगह भारतीय जनता पार्टी से चुने गए हैं। कांग्रेस से यूपी दूर हुआ तो दिल्ली भी दूर होते देरी नहीं लगी। कभी कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक समझा जाने वाले दलित-अगड़े-पिछड़े और मुसलमान वोटर भाजपा और क्षेत्रीय दलों सपा-बसपा के बीच बंट गए हैं। इसी के साथ गांधी परिवार के लिए यूपी गले की फांस बन गया है ना वह इसे निगल पा रही है ना ही उगलते बन रहा है। वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं यूपी में जिस कांग्रेस को राहुल गांधी ने डुबोया है, उसे प्रियंका गांधी फिर से जीवनदान देंगी। सवाल कैसे तो, कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी से गले मिलकर। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस एक ही गठबंधन का हिस्सा हो गए हैं और अगले वर्ष होने वाला लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे, इससे कांग्रेस को अच्छा खासा फायदा हो सकता है। कांग्रेस जो रायबरेली तक सिमट गई है, वह एक बार फिर अमेठी को जीतना चाहती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी यहां से बीजेपी प्रत्याशी स्मृति ईरानी से चुनाव हार गए थे।
कांग्रेस करीब तीन दशकों से यूपी में उभार की उम्मीद लगाए बैठी है, लेकिन उसके हालात सुधरने की बजाए बिगड़ते जा रहे हैं। आज की तारीख में तो न उसके पास संगठन बचा है और न नेता एवं वोटर। इसके लिए कौन जिम्मेदार है की बात चलती है तो गांधी परिवार ही कुसूरवार लगता है, लेकिन यह बात कहने की हिम्मत पार्टी का कोई छोटा या बड़ा नेता कभी जुटा नहीं पाया। यही वजह है कि कांग्रेस यूपी में गर्दिश में चली गई है। अब कहा जा रहा है कि कांग्रेस के गर्दिश के दिनों को कांग्रेस की महासचिव प्रियंका वाड्रा गांधी दूर करेंगी। कांग्रेसी कह रहे हैं कि भले ही 2022 के विधान सभा चुनाव में यूपी की प्रभारी रहते हुए प्रियंका वाड्रा कुछ खास नहीं कर पाई हों, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। प्रियंका ने जिस तरह से कांग्रेस को कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में सत्ता दिलाई है, वैसे ही यूपी से दिल्ली के लिए भी वह रास्ता बनायेंगी।
उत्तर प्रदेश की सियासी नब्ज पर नजर रखने वाले कहते हैं कि प्रियंका के प्रति जनता में आकर्षण है। वह हिमाचल, कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश में सक्रिय हैं। जहां भी प्रियंका की जनसभा होती है, लोग उनकी बात को गौर से सुनते हैं। ऐसे में प्रियंका के जरिए पार्टी उत्तर प्रदेश में फिर से खुद को खड़ा कर सकती है। पिछले दिनों प्रियंका ने कहा भी था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का आदेश होगा तो वह अमेठी या कहीं से भी चुनाव लड़ेंगी। प्रियंका अभी चुनावी राज्यों में निरंतर सक्रिय हैं। उम्मीद है कि देर सबेर वह उत्तर प्रदेश में सक्रियता बढ़ाएंगी। लोग प्रियंका गांधी के अंदर उनकी दादी की छवि देखते हैं। उनकी सिर्फ शक्ल ही अपनी दादी से नहीं मिलती बल्कि उनके काम करने का अंदाज भी कुछ वैसा ही है, कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश से लोकसभा के सियासी संग्राम में उतर सकती हैं। जबकि कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के रायबरेली से चुनाव लड़ने की संभावना अभी खत्म नहीं हुई है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी रायबरेली व अमेठी में पूरी शिद्दत से जुट गई हैं। गांधी परिवार के लिए अन्य संभावित सीटों पर भी गुणा-गणित शुरू हो गया है।
गौरतलब है कि कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी पिछले चार लोकसभा चुनाव से रायबरेली से सांसद हैं। पिछले दिनों उनके सियासत से संन्यास लेने की चर्चा शुरू हो गई, लेकिन पार्टी के नेता इस चर्चा को एक सिरे से खारिज कर रहे हैं। क्योंकि विधानसभा चुनाव में भले ही रायबरेली के वोटर दूसरे दलों की ओर कदम बढ़ा दें, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के प्रति पूरी तत्परता दिखती है। ऐसे में पार्टी रायबरेली से सोनिया गांधी को उम्मीदवार मानकर चल रही है। फिर भी अपरिहार्य स्थिति में सोनिया गांधी ने चुनाव लड़ने से इंकार किया तो यहां से प्रियंका गांधी उम्मीदवार होंगी। इसी तरह राहुल गांधी का मामला कोर्ट में होने की वजह से प्रियंका को अमेठी से भी दावेदार बनाया जा सकता है।
खैर, लाख टके का सवाल यही है कि यह सब होगा कैसे? कांग्रेस अपना वोट बैंक कैसे वापस लायेगी? अभी तक तो मुस्लिम वोटों के लिए सपा-बसपा ही ताल ठोका करते थे, अब तो बीजेपी भी मुस्लिम वोटों की राजनीति में हाथ अजमा रही है। उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव में बीजेपी ने मुस्लिम बाहुल्य सीटें होने के बावजूद जीत दर्ज कर सबको चौंका दिया। आजम खान के गढ़ रामपुर में 50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम हैं। इसके बावजूद बीजेपी ने जीत दर्ज की। वहीं आजमगढ़ जो कभी मुलायम सिंह गढ़ था, वहां मुस्लिम-यादव समीकरण 40 प्रतिशत से अधिक होने के बाद भी बीजेपी ने जीत हासिल करके यह साबित कर दिया मुस्लिम वोट एकजुट होने का भी उसे ही फायदा मिलता है।
बात कांग्रेस की कि जाए तो मुस्लिम वोटरों में कांग्रेस का ग्राफ 15वीं और 16वीं लोकसभा में स्थिर रहा। 2009 और 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का मुस्लिम वोट एक समान 38 प्रतिशत ही रहा। हालांकि इसके पहले 1998 में 32 प्रतिशत, 1999 में सर्वाधिक 40 फीसद और 2004 में गिरकर 36 प्रतिशत पर आ गया था। कांग्रेस को उन राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक का अधिक नुकसान उठाना पड़ता है जहां तथाकथित क्षेत्रीय सेक्युलर पार्टियां प्रभावशाली होती हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, असम, जम्मू-कश्मीर और तेलंगाना में मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों के कारण मुस्लिम वोट एकतरफा कांग्रेस को नहीं मिल पाता। यहां पर मुस्लिम वोट, धार्मिक, भाषा, क्षेत्रीय आधार पर बंट जाते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव मुस्लिमों के नेता हैं। बिहार में आरजेडी के नेता लालू प्रसाद यादव मुस्लिमों के मसीहा हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी की ममता बनर्जी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर सीपी के वाईएस जगन मोहन रेड्डी, तमिलनाडु में एमके स्टालिन की पार्टी डीएमके और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस दोनों ही मुस्लिम वोट कांग्रेस से बांटने का काम करती हैं।
लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस के लिए यूपी में तभी राह आसान हो सकती है जब उसका पुराना वोट बैंक वापस आता है, जो होता दिख नहीं रहा है, ऐसे में उसे समाजवादी पार्टी से गठबंधन से ही यूपी में सियासी जीवनदान मिल सकता है। समाजवादी पार्टी 10 से लेकर 15 सीटें तक कांग्रेस के लिए छोड़ सकती है।
-स्वदेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त उ0प्र0 हैं)