यह स्वाभाविक और ज़रूरी है कि विकास के साथ साथ, समाज सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध होता जाए और उसकी प्राथमिकताएं बेहतर होती जाएं लेकिन ऐसा भी ज़रूरी नहीं कि पुरानी रूढ़ियों को विकासजी की इमारत के पिछवाड़े में दफना दिया जाए। जब चांद पर जाकर नाचने की चाहत पूरी हो चुकी हो, मंगल को अपना बनाया जा रहा हो तो वास्तव में यह जानना मुश्किल काम हो जाता है कि फलां राज्य के फलां क्षेत्र में अभी भी बहुत लोग भवन निर्माताओं की मनमानियों से परेशान हैं। उनके क्षेत्र में जीवन की आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। अब हम यह जानकर खुश होते हैं कि चांद पर बहुत बर्फ है और पानी भी होगा लेकिन अपने क्षेत्र में कम होते पानी बारे संजीदगी से सोचना ज़रूरी नहीं समझते। कोई विदेशी संस्था भूख सूचकांक में हमें नीचे रखे तो बुरा लगता है लेकिन रोजाना खाना बर्बाद होते देखते मुस्कुराते रहते हैं। हमें पर्यावरण बारे व्यवहारिक स्तर पर वाकई कुछ करना मुश्किल और पार्क में बैठकर सिर्फ चर्चा करना सुरक्षित लगता है। हम समृद्ध और सभ्य समाज का ज़रूरी हिस्सा हैं।
अब सांस्कृतिक स्तर पर समृद्ध होते देश के आभिजात्य वर्ग के लोग छोटी मोटी घटनाओं पर ध्यान नहीं देते। हमारा मनोरंजन पसंद समाज, मनपसंद व्यवहार ही करेगा। वैसे हमारी प्राथमिकताएं बदल भी रही हैं। लोकतंत्र में जहां सरकारें न्यायालय के फैसले को हज़म कर लेती हैं कितने ही मामलों में अदालत की अवमानना होती है। यहां क़ानूनों की भरमार है लेकिन किसी को अपराधी होने से रोका नहीं जा सकता। बच्चों की बढ़ती संख्या और उनके भारी होते जाते बस्ते पर नियंत्रण नहीं है। शिशुओं के बेहतर भरण पोषण और शिक्षा के लिए कोई किसी को बाध्य नहीं कर सकता।
जहां ताकत गढ़ बसा हुआ है वहां की प्राथमिकताएं दूसरी हैं। पैसा हमेशा और ज़्यादा पैसा जोड़ने की बात करता है। जीडीपी में मगरमच्छों की बढ़ोतरी प्रसन्न करती है। बलिष्ट वृक्षों को लाशें बनाकर सड़कें चौड़ी करना, छोटे शहरों और कस्बों में माल का निर्माण, चौबीस घंटे दोनों आंखों से अलग तरह के मनोरंजन की बात सुहाती है। समाज में स्मार्टफोन का बढ़ते जाना गर्व की बात है।
विकासजी की धार्मिक नज़र में बढ़ते दुष्कर्म घटती उम्र, गहराती आर्थिक असमानता, पर्यावरण प्रतिबद्धता, जातीय कुंठा और बेरोज़गारी सब बकवास है। हम दिन रात समृद्ध होते जा रहे हैं और हमारी प्राथमिकताएं निरंतर विकास की राह पर हैं।
- संतोष उत्सुक