सत्ता प्रतिष्ठान हिंदु आतंकवादियों के प्रशिक्षण में शामिल

By कुलदीप नैय्यर | Jul 19, 2017

आतंकवादी जब सामने से आक्रमण करते हैं तो इसका यही अर्थ है कि उन्हें अंजाम का डर नहीं है। कश्मीर में अमरनाथ यात्रा से लौट रहे तीर्थयात्रियों की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। लश्कर−ए−तोयबा पुलिस या सेना का सामना करने में नहीं हिचकिचाई मानो आतंकवादियों को पता था कि यात्रा के साथ चल रहे सुरक्षा बलों को नुकसान पहुंचाने के इरादे के मुकाबले जवाबी चुनौती कमजोर रहेगी।

घटना में लश्कर का हाथ होने की संभावना ही है, खासकर जब उसने अभी तक हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है। अगर वे जिम्मेदारी नहीं ले भी लेते हैं तो यह पक्का नहीं है कि वे स्थानीय आतंकवादियों को छिपाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। यहां तक कि जम्मू और कश्मीर की पुलिस ने भी लश्कर की ओर उंगली उठाई है। यह संभव है कि अपराधी लश्कर ही हो। पश्चिम एशिया के देशों में इसकी पिटाई हो रही है लेकिन यह फिर से अपनी कीमत बढ़ाना चाहता है। अगर यह भारत को डराना चाहता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि पश्चिम एशिया के राष्ट्र इसके भय के असर में आ जाएंगे।

 

भारत उचित ही अपनी यातना का इजहार कर रहा है क्योंकि यात्री अपनी उस आस्था की यात्रा पर थे जो उन्हें प्यारी है। दुर्भाग्य से जैसे−जैसे समय गुजर रहा है, इस प्रकरण को राजनैतिक बनाया जा रहा है। इसमें भाजपा का दोष है। इसने इसकी परवाह नहीं की कि राज्य सरकार की सत्ता में वह भी भागीदार है और कुछ दोष उसके माथे भी आयगा।

 

यात्रियों पर हमले की यह घटना पहली बार नहीं हुई है। अगस्त 2000 में आतंकवादियों ने 95 से भी ज्यादा यात्रियों पर गोलियां चलाई थीं जिसमें मरने वालों की संख्या 85 हो गई थी। ऐसा समझा जाता है कि अगस्त की रात को शुरू हुआ हमलों का सिलसिला योजनाबद्ध था। दूसरे साल भी, आतंकवादियों ने स्थानीय हिजबुल मुजाहिदीन की संघर्ष विराम की घोषणा का विरोध किया और पहलगाम में यात्रियों के आधार शिविर में पर हमला किया था। पहलगाम के आधार−शिविर में कुल 32 लोगों की मौत हुई थी जिसमें 21 अमरनाथ यात्री थे।

 

इसी तरह 20 जुलाई 2002 को आतंकवादियों ने यात्रियों के एक शिविर पर दो बमगोले फेंक दिए और बाद में रात्रि में अमरनाथ मंदिर पर गोलियां चलाईं जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई। इसमें एक महिला यात्री थी और दो पुलिस अधिकारी। हमला देर रात को एक बजकर 25 मिनट पर सबसे ऊंचाई पर अमरनाथ के गुफा के रास्ते पर शेषनाग के निकट वाले शिविर पर हुआ था।

 

चौंकाने वाली बात यह है कि अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा के लिए 15 हजार सुरक्षा बलों और पुलिस की तैनाती के बावजूद 2002 में अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमला टाला नहीं जा सका और आठ लोग मारे गए। यह हमला सुबह होने से पहले अमरनाथ मंदिर के रास्ते में नूनवान शिविर पर हुआ था।

 

यात्रियों पर जम्मू में हुए हमले को लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार की तीखी आलोचना की है और घटना को गंभीर बताया है और कहा है कि यह स्वीकार योग्य नहीं है। उन्होंने इसे सुरक्षा में हुई चूक बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इसकी जिम्मेदारी लेने की मांग की है। ''यह सुरक्षा में गंभीर चूक है। प्रधानमंत्री को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए और इसे दोबारा नहीं होने देना चाहिए। कायर आतंकवादी भारत को डरा नहीं सकते,'' उन्होंने एक ट्वीट में कहा। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आरोप लगाया कि जिस बस पर आतंकवादियों ने गोलियां चलाई वह अमरनाथ मंदिर बोर्ड में रजिस्टर्ड नहीं है और अमरनाथ यात्रियों के वाहन के लिए शाम की समय सीमा के बाद बिना सुरक्षा घेरे के चल रही थी।

 

पाकिस्तान शायद इसमें शामिल हो, लेकिन अभी तक यह सिर्फ संदेह है। सरकार को देश के सामने घटना में इस्लामाबाद की भागीदारी का सबूत रखना चाहिए। लेकिन हमें अपना घर ठीक करना चाहिए। सत्ता प्रतिष्ठान हिंदु आतंकवादियों के प्रशिक्षण में शामिल है और जैसा हिलेरी क्लिंटन ने कहा है अगर आप आंगन में सांप पालेंगे तो एक दिन वह आपको अवश्य डंसेगा।'' देशी आतंकवादी अब असलियत बन चुके हैं और वे इधर उधर हमला करते रहते हैं। समझौता एक्सप्रेस पर हमला देश में पले−बढ़े आतंकवादियों का कारनामा था।

 

अमरनाथ यात्रा की सबसे बड़ी शिकार कश्मीरियत है जो सूफियों के द्वारा प्रचारित एक सकेुलर आस्था है। इस आस्था ने अपना जोर उस समय दिखाया जब महराजा हरि सिंह ने सत्ता छोड़ दी और इसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला को सौंप दिया। उस समय कोई भी सांप्रदायिक भावना नहीं थी। कट्टरपंथियों और पाकिस्तान के प्रचार ने उसे नष्ट कर दिया जो बहुत खूबसूरत था लेकिन हम क्यों हार मान लें? हम सत्तर साल से भारत की सोच, सकेुलरिज्म तथा लोकतंत्र का आस्तित्व बनाए हुए हैं।

 

हमने संविधान की प्रस्तावना में सेकुलरिज्म शब्द जोड़ा है। विडंबना यह है कि इसे श्रीमती गांधी ने किया जब वह प्रधानमंत्री थीं और उन्होंने ही आपातकाल लगाया। उन्होंने बिना सुनवाई के एक लाख लोगों को हिरासत में डाल दिया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी। और, उन्होंने खुलेआम कहा कि प्रेस ने उस पाबंदी का विरोध नहीं किया जो उन्होंने लगाई थी।

 

आपातकाल के बाद एलके आडवाणी ने प्रेस को सही डांट पिलाई थी, 'आपको झुकने के लिए कहा गया और आप रेंगने लगे।'

 

अगर कश्मीरियत अपना जोर दिखाता तो प्रेस की आजाद जैसे बुनियादी मूल्यों का आदर किया जाता। कश्मीरी मुसलमानों को खुद ही तय करना है क्योंकि उनके समिल्लित धर्म की जगह कट्टरपंथ ले रहा है। मैं हाल ही में कश्मीर में था और यह देख रहा था कि नौजवान, जिन्होंने बंदूक उठा ली है, घाटी को एक सार्वभौम इस्लामिक देश बनाना चाहते हैं।

 

यासीन मलिक और शब्बीर शाह जैसे नेता अप्रासंगिक हो गए हैं। सैयद शाह गिलानी और मीरवाइज के समर्थक हैं लेकिन यह इसलिए कि वे पाकिस्तान और इस्लाम की बात साथ−साथ करते हैं। वे पत्थर फेंकने वालों का भी समर्थन करते हैं कि इस्लाम के नाम पर पत्थर फेंका जा रहा है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति उभर रही है।

 

नई दिल्ली को गंभीरता से सोचना पड़ेगा और ऐसा समाधान लेकर सामने आना पड़ेगा जो घाटी और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को स्वीकार्य हो। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दुर्घटना रहित यात्रा की जिम्मेदारी स्वीकार की है। भाजपा को अन्य राजनीतिक पार्टियों से मशविरा करना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिए जिस पर सभी की सहमति हो।

 

- कुलदीप नैय्यर

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