कई दिन पहले एक लेख पढ़ा जिसमें स्पष्ट लिखा था, भाषण से कम नहीं होगा प्रदूषण। लेकिन मुझे लगता है कि भाषण से काफी कम हो जाता है प्रदूषण। यह जाना बूझा स्थापित सत्य है कि भाषण से और भी काफी कुछ कम होता रहा है और होता रहेगा। यह सौभाग्य है कि वातावरण और पर्यावरण के प्रदूषण में बिना कोशिशों के कमी आ रही है। फर्क सिर्फ सोच का है कि इसे कैसे समझें। दुनिया भर में नई, आरामदायक, शानदार जगहों पर सम्मलेन आयोजित किए जा रहे हैं। प्रदूषण कम करने और पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिंता जताई जा रही है। इन नेक कारनामों से प्रदूषण कम होता ही है।
पिछले कई दशकों से यही हो रहा है कि भाषण देने से प्रदूषण कम हो रहा है। दूषित पर्यावरण के कारण आई आपदाओं पर आधारित बनी फिल्मों का मज़ा विकसित देशों में खूब लिया जाता है। उसे फिल्म की तरह देखा जाता है। उसमें दिए संजीदा संदेश को, पॉप कॉर्न की तरह खाकर, ऊपर से संतुष्टि का कोल्ड ड्रिंक पीकर, कचरा और बढ़ा दिया जाता है। सब जानते हैं ज़िंदगी एक बार मिली है और प्रलय ने आना ही है। हम सब कम सुविधाओं वाली नई दुनिया का इंतज़ार कर रहे हैं जिसमें बचे खुचे बढ़िया नागरिक हों। आदरणीय, पराक्रमी ईश्वर का नैसर्गिक कर्तव्य है कि पृथ्वी पर मनुष्यों की दुष्टता और शक्तिशाली देशों के नेताओं के भाषणों और खोखले दस्तावेजों पर आधारित योजनाओं से नाराज़ होकर प्रलय लाएं।
प्रशंसनीय है कि विकसित देश स्वार्थी कोशिशों में सफल होने के साथ प्रदूषण कम कर रहे हैं। अमीरी भी एक चीज़ होती है जो सबके पास नहीं होती। एक प्रसिद्ध संस्था यूएनओ है जिसके वक्ता कहते हैं कि अरबों लोग नियमित रूप से घातक हवा में सांस ले रहे हैं। उनका जीवन व स्वास्थ्य जोखिम भरा है। यह तो अच्छा है इस बहाने उनकी सहनशक्ति बढ़ रही है। वैसे भी अगर मरे तो कम साधन वाले ही मरेंगे। साधन तो बच जाएंगे न। सुख देने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य समस्याएं झेलते हुए अरबों लोग जीते रहते हैं और मरने में बहुत साल लगाते हैं। कुछ सर्वे दिमाग खराब कर देते हैं। कभी कहते हैं एक घंटे में उतने लोग मरे, दूसरा सर्वे कहेगा एक मिनट में इतने मरे।
इतनी सुंदर, सुविधायुक्त गाड़ियों के ऋण, गलियों में आवाजें देकर बांटे जा रहे हैं। वे कहते हैं गाड़ियों की बढ़ती संख्या के कारण प्रदूषण और सांस सम्बन्धी बीमारियां पनप रही हैं। कहते हैं, यह कटु सत्य है कि वाहनों का धुंआ ज़हरीला होता है। जब नई गाड़ी में सन या मून स्क्रीन लगा हो तो किसे फुरसत होती है। धुंध या धुएं में फंसा चांद या सूरज देखकर बंदा कवि होना चाहेगा या प्रदूषण कार्यकर्ता। लेखों और भाषणों में शरीर को ऑक्सीजन नहीं, नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के इतने लंबे और समझ न आने वाले नाम बताते हैं कि बंदा बैलगाड़ी को ही यात्रा हेतु उपयुक्त मानने लगे। शानदार, जानलेवा लुक वाली गाड़ियां, क़र्ज़ लेने वालों का दिल चुरा लेती हैं और वे कहते हैं कि सार्वजनिक यातायात सुधरना चाहिए।
यह सच मान लेने में हर्ज़ नहीं कि भाषण से प्रदूषण तुरंत कम हो जाता है।
- संतोष उत्सुक