खुद को मजबूत करने के लिए नहीं भारत को मजबूत करने के लिए लड़ें पार्टियां

By ललित गर्ग | Mar 12, 2019

निर्वाचन आयोग की ओर से वर्ष 2019 के आम चुनाव की तिथियां तय कर देने के साथ ही चुनाव की सरगर्मियां उग्र हो गयी हैं, समूचा देश लोकतंत्र का उत्सव मनाने की दिशा में अग्रसर हो गया है। इन चुनावों के कार्यक्रम की घोषणा होते ही सभी राजनैतिक दलों ने इसमें विजय प्राप्त करने के लिए अपनी कमर कसने की शुरूआत भी कर दी है परन्तु इन चुनावों को लेकर एक बड़ा प्रश्न है कि भारत को निर्मित करने का संकल्प एवं तैयारी किसी दल ने दृढ़ता से प्रदर्शित नहीं किया है। देखने में आ रहा है कि एक बार फिर राष्ट्रहित के मसलों से अधिक महत्व संकीर्ण स्वार्थ को दे दिया जाता हुआ दिखाई दे रहा है। हर राजनीतिक दल येन-केन-प्रकारेण सत्ता पाना चाहता है। चूंकि आम चुनाव देश के भविष्य के साथ राजनीति की भी दशा-दिशा तय करते हैं इसलिए आम मतदाता का इस भाव से जागरूक होना जरूरी है कि वह वोट के जरिये राष्ट्र को मजबूत बनाने की दिशा में अग्रसर होने के साथ-साथ राजनीतिक विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने कर दिशा में सार्थक पहल करें।

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चुनाव लोकतंत्र का कुंभ है, इसलिये चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। वह ही केवल मतदाताओं को अपने हक का बिना किसी भय, या लालच के मत देने का वातावरण बना सकता है परन्तु राजनैतिक दल इस वातावरण में अपने स्वार्थ का जहर इस तरह घोल देते हैं कि मतदाता उसके प्रभाव में आकर राष्ट्रीय समस्याओं से निगाह हटा लेते हैं किन्तु दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि ये मतदाता ही हर चुनाव में भूले-भटके राजनीतिज्ञों को सही राह दिखाते रहे हैं। इसलिये मतदाता की जिम्मेदारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उसे जागरूक होना होगा, अपना मतदान सोच-समझ से विवेकपूर्ण ढंग से करना होगा। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह चुनावी अवसरों पर समाज में जाति या धर्म के नाम पर नफरत और घृणा फैलाने के प्रयास राजनीतिज्ञों द्वारा किये जाते रहे हैं उन पर भी इस बार चुनाव आयोग ने कड़ी निगाह रखने की घोषणा की है। यह निगाह ऐसी नजर बननी चाहिए जिससे सत्ता या विपक्ष का कोई भी नेता अपने दल की विचारधारा से न भटक सके।

 

आम चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा आतंकवाद एवं जम्मू-कश्मीर है। जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अटूट अंग होने की एक अनिवार्य शर्त यह भी है कि यहां के लोगों को भी अपनी मनपसन्द की राज्य सरकार को पाने का हक हमारे संवैधानिक छाते के नीचे उसी प्रकार दिया गया है जिस प्रकार भारत के किसी अन्य राज्य को। यहां राजनैतिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर ही हम पाकिस्तान समर्थकों की कमर तोड़ सकते हैं और ऐसे तत्वों को आम कश्मीरियों की निगाह में उनका दुश्मन साबित कर सकते हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य में आयोग लोकसभा चुनाव तो करा रहा है मगर भंग विधानसभा के चुनाव कराने से उसने सुरक्षा का हवाला देकर हाथ खड़े कर दिये हैं। जिस राज्य में लोकसभा चुनाव चालू परिस्थितियों में हो सकते हैं तो उनमें विधानसभा चुनाव क्यों नहीं हो सकते ? यह एक बड़ा प्रश्न है।

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भारत की इज्जत और प्रतिष्ठा है कश्मीर। नाक है। कितनी कीमत चुका दी। चुका रहे हैं। वहां राजनीतिज्ञों की माँग है- स्वायत्तता। जनता ही माँग है- शांति। दोनों को इन्तजार है वहां पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल करना। कश्मीर घाटी दोषी और निर्दोषी लोगों के खून की हल्दीघाटी बनी हुई है। वहाँ लोगों को बन्दूक से सन्दूक तक लाना बेशक कठिन और पेचीदा काम है लेकिन इस वक्त राष्ट्रीय एकता और निर्माण संबंधी कौन-सा कार्य पेचीदा और कठिन नहीं है ? यह चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, रक्षा आदि राष्ट्रीय नीतियों तथा राष्ट्र की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा।

 

मतदाता जहां ज्यादा जागरूक हुआ है, वहां राजनीतिज्ञ भी ज्यादा समझदार हुए हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरे रखे हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ है। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा देश की एक अरब तीस करोड़ जनता को एक उन्नत एवं प्रगतिशील राष्ट्र को निर्मित करने की दिशा में। सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है।

 

चुनाव आयोग की प्रभावी भूमिका प्रशंसनीय है। चुनावी आचार संहिता में प्रतिदिन कोई न कोई आदेश-निर्देश जोड़कर प्रत्याशियों को चुनाव आचार संहिता-रेखा के भीतर लाने का प्रयास किया जा रहा है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता की नकेल डाली जा सकती है।

 

निर्वाचन प्रक्रिया न केवल यथासंभव छोटी होनी चाहिए, बल्कि वह राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के छल-कपट से मुक्त भी होनी चाहिए। यह सही है कि पहले की तुलना में आज की चुनाव प्रक्रिया कहीं अधिक साफ-सुथरी और भरोसेमंद है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि वह बेहद खर्चीली होने के साथ ही धनबल से भी दुष्प्रभावित होने लगी है। विडंबना यह है कि चुनाव लड़ने वाले इस आशय का शपथपत्र देकर छुट्टी पा लेते हैं कि उन्होंने तय सीमा के अंदर ही धन खर्च किया। यह विडंबना तब है जब हर राजनीतिक दल और खुद निर्वाचन आयोग भी इससे अवगत है कि आज चुनावों में किस तरह पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। अब तो हालत है कि पैसे बांटकर चुनाव जीत लेने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। समस्या यह है कि जहां जागरूक जनता चुनावी खामियों को दूर करने की जरूरत महसूस करती है वहीं राजनीतिक दल ऐसी किसी जरूरत पर ध्यान ही नहीं देते। चुनी हुई सरकारों को इस दिशा में सार्थक पहल करनी चाहिए।

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आम चुनाव को भले ही लोकतंत्र के उत्सव की संज्ञा दी जाती हो, लेकिन सच यह है कि इस उत्सव में राजनीतिक शत्रुता, राजनीतिक विसंगतियां एवं बेबुनियाद मुद्दे अपने चरम तक पहुंचते दिखते हैं। कई बार परस्पर विरोधी राजनीतिक दल-एक दूसरे के प्रति शत्रुवत व्यवहार करते हैं। वे न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अशालीन-अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि उन्हें बदनाम करने और नीचा दिखाने के लिए झूठ और कपट का सहारा भी लेते हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि आम चुनाव के मौके पर राजनीतिक विमर्श रसातल में चला जाए। दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों से यह उम्मीद कम ही है कि वे राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में मतदाताओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे अपने मताधिकार का इस्तेमाल सोच-समझकर करें। अपने देश में यह एक बीमारी-सी है कि बाकी समय तो हम सब जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद को कोसते हैं, लेकिन वोट देते समय जाति-मजहब को ही महत्व दे देते हैं। जात-पांत के आधार पर राजनीति इसीलिए होती है, क्योंकि एक तबका इसी आधार पर वोट देता है।

 

सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन हो रहा है या हुआ है, इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगने लगा है। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। प्रजातंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बड़े रूप में देखने को मिल रहा है। इन चुनावों को लेकर अब तक जो सुना गया उनके भावों को शब्द दें तो जन-संदेश यह होगा-स्थिरता किसके लिए ? नेताओं के लिए या नीतियों के लिए। परिवर्तन की बात सब करते हैं। परिवर्तन की बातें भी बहुत हुईं, पर मुद्दों में परिवर्तन नहीं। आज वीआईपी (अति महत्वपूर्ण व्यक्ति) और वीसीपी (अति भ्रष्ट व्यक्ति) में फर्क करना मुश्किल हो गया है। भारत में गॉड और गॉडमैन ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। लगता है किसी भगवान को इस स्थिति से बचाने के लिए आना होगा। प्रत्याशी अपनी टिकटों की कीमत जानते हैं, मूल्य नहीं। अपने गर्व को महत्व देते हैं, शहीदों के गौरव को नहीं। लोकतंत्र में भय कानून का होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं।

 

 

लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल सही रूप में नहीं निभा रहा है। 'सारे ही दल एक जैसे हैं' यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। जनता इन चुनावों और चुनावबाजों के चुनावी कर्मकाण्डों से हटकर एक मजबूत विकल्प तैयार करे। जनता को लोकतंत्र का असली अर्थ समझाएं। जानकारी का अभाव मिटे। लोकतंत्र के सूरज को घोटालों, भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक स्वार्थों के बादलों ने घेर रखा है। हमें किरण-किरण जोड़कर नया सूरज बनाना होगा। लोकशाही को जीवन्त करने के लिए हमें संघर्ष की फिर नई शुरूआत करनी पड़ेगी, वरना हर पाँच साल में मतपत्र पर ठप्पा लगाने का यह बासी हो चुका विकल्प हमें यूँ ही छलता रहेगा।

 

-ललित गर्ग

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