पुलवामा पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए नेताओं ने सभी सीमाएं तोड़ दीं

By ललित गर्ग | Feb 23, 2019

देश घायल है, वैचारिक बिखराव एवं टूटन को झेल रहा है, पुलवामा में आतंकी हमले के बाद समूचे राष्ट्र में आक्रोश की ज्वाला धधक रही है। लहूलुहान हो चुके इस देश के लोगों के दिल और दिमाग में बार-बार करतब दिखाती हिंसा को देखकर भय और आक्रोश होना स्वाभाविक है, विनाश एवं निर्दोष लोगों की हत्या को लेकर चिन्ता होना भी जायज है। इस तरह निर्दोषों को मारना कोई मुश्किल नहीं, कोई वीरता भी नहीं। पर निर्दोष जब भी मरते हैं, पूरा देश घायल होता है, राष्ट्रीयता आहत और घायल होती है। इन हालातों में हर कोई निर्दोष लोगों की हत्या का बदला चाहता है। क्योंकि इस आतंकी हमले ने देश की जनता को गहरा आघात दिया है और उसकी प्रतिक्रिया में आक्रोश, विद्रोह एवं बदले की भावना सामने आना स्वाभाविक है, क्योंकि घटना ही इतनी दुखद, त्रासद एवं भयावह थी।

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पुलवामा की आतंकी घटना को लेकर जैसा राष्ट्रीयता का स्पष्ट एवं सार्थक वातावरण बनना चाहिए था, वैसा वातावरण न होकर विरोधाभासी वातावरण का निर्मित होना अधिक चिन्तनीय है। वैसे तो हर एक का जीवन अनेकों विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरा रहता है। हमारा हर दिन भी कई विरोधाभासों के बीच बीतता है। लेकिन वीर जवानों की शहादत जैसे संवेदनशील मुद्दे पर हमारे देश की सोच में, हमारे तथाकथित राजनेताओं के व्यवहार में, उनके कथन में विरोधाभास परिलक्षित होना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा लग रहा है कि हमारा व्यवहार दोगला हो गया है। दोहरे मापदण्ड अपनाने से हम समस्याओं को सुलझाने की बजाय उलझा रहे हैं। इन स्थितियों ने भी देश को घायल कर रखा है। एक के बाद एक कुतर्कों एवं दोगलेपन से भरी बयानबाजी से देश का जनमानस पीड़ा महसूस कर रहा है। कमल हासन हो या नवजोत सिंह सिद्धू, कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा हो या कामेडियन कपिल शर्मा- इन लोगों ने न केवल निराश किया है बल्कि देश के जले घावों पर नमक छिड़कने का काम किया है। इनके बयान एवं कृत्य अक्षम्य हैं।

 

सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि हम हर स्तर पर अपने नेतृत्व को चुनने में भूल करते रहे हैं। अपने को, समय को पहचानने और अपने नेतृत्व को चुनने में भूल का ही परिणाम है कि तथाकथित नेता राष्ट्र के लिये बलिदान हुए जवानों की मौत को भुखमरी, बेरोजगारी, डिप्रेशन जैसी वजहों से मरने वालों से तुलना करने का दुस्साहस दिखा रहे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है कि हमने अपने आप को, अपने भारत को, अपने पैरों के नीचे की जमीन को नहीं पहचाना। अपने लच्छेदार भाषणों के कारण लोकप्रिय हुए नवजोत सिंह सिद्धू का पाकिस्तान प्रेम ही नहीं बल्कि उनकी ताजा आतंकवादी घटनाओं पर बयानबाजी ने हद ही कर दी है। उनके अतिश्योक्तिपूर्ण, अराजक एवं अराष्ट्रीय बयानों की तरफदारी करते हुए कॉमेडियन कपिल शर्मा भी जनता के घावों पर मरहम लगाने की बजाय उनको कुरेदने का ही काम कर रहे हैं। इन देश की हस्तियों को 40 जवानों का बलिदान सामान्य घटना लग रहा है। तभी उनका बयान है कि अनेक वजहों से लोग मरते हैं। ऐसा सिर्फ हमारे देश में नहीं होता, पूरी दुनिया में लोग मरते हैं, तब क्या आप अपनी जिन्दगी रोक देते हैं। क्या सिर्फ शोक मनाना ही काम है। और तो और फिल्म जगत से राजनीति चमकाने को तत्पर हुए दक्षिण भारत के सुपर स्टार रहे कमल हासन ने अपना ही राग अलापना शुरू कर दिया। नियति भी एक विसंगति का खेल खेल रही है। इस तरह के त्रासद बयानों से सत्ता को पाने की लालसा रखने वाले नेता कैसे राष्ट्रीयता को मजबूत करेंगे? यह नियति का व्यंग्य है या सबक? पहले नेता के लिए श्रद्धा से सिर झुकता था अब शर्म से सिर झुकता है।

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कमल हासन ने तो जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सवाल उठा कर शर्म की हदें पार कर दीं। इसके लिये उन्होंने प्रश्न किया है कि आखिर सरकार किससे डर रही है। अगर भारत ने अपने आपको अच्छा देश साबित करना है तो उसे इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं कमल हासन ने तो पाक अधिकृत कश्मीर को आजाद कश्मीर बता दिया। जब कमल हासन जनता के निशाने पर आए तो हर बार की तरह ऐसे घिनौने बयान से पल्ला झाड़ने वाले राजनेताओं की भांति ही उनकी पार्टी मक्कल निधि मय्यम की तरफ से बयान जारी कर कहा गया कि कमल हासन के बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। कमल हासन ने केवल इतना कहा था कि कश्मीर के लोगों से बातचीत करनी चाहिए और उनसे पूछा जाना चाहिए कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं?

 

पुलवामा की घटना के बाद अपने आपको राजनेता मानने वालों के बयानों ने तो अपनी राजनीति चमकाने के लिये सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। उनके बयान विरोधाभासी ही नहीं, दुर्भाग्यपूर्ण है। जिसकी भी एक सीमा होती है, जो पानी की तरह गर्म होती-होती 50 डिग्री सेल्सियस पर भाप की शक्ति बन जाती है। महाराष्ट्र में एक नेता को तो यह कहते हुए सुना गया कि राष्ट्रवाद का बुखार तेज है, इसे वोटों में तब्दील करो, राजनीतिक लाभ लो। देश में ऐसी बयानबाजी कर हम किस तरह का राष्ट्र बना रहे हैं? मुम्बई हमला हो या आतंकवादियों से मुठभेड़, उन पर जमकर राजनीति होती रही है। ऐसा लगता है कि कुछ राजनेता तो ऐसी घटनाओं का ही इंतजार करते हैं ताकि वे अपने बयानों से राजनीतिक जगह बना सकें। यदि नेता ईमानदार होते तो देश के नेताओं के प्रति इतनी वितृष्णा एवं घृणा नहीं होती। कभी किसी नेता का बयान आ जाता है कि जो फौज में जाता है उसे पता होता है कि वह मरने के लिए ही जा रहा है। नेताओं की फिसलती जुबान से देश पहले भी कई बार घायल हो चुका है। देश बाहरी हमलों से ही नहीं, भीतरी एवं जिम्मेदार लोगों के बयानों एवं वचनों से ज्यादा घायल है, लहुलूहान है।

 

भारत की राजनीति में काफी हद तक अनुशासन एवं मर्यादाएं कायम रही हैं। राष्ट्रहित के मुद्दों पर सभी राजनीतिक दल और नेता व्यक्तिगत और दलगत नीतियों, स्वार्थों से ऊपर उठकर एकजुट होते रहे हैं। वैचारिक भिन्नता के बावजूद व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी और दलगत नीतियों, स्वार्थों से ऊपर उठकर एकमत होते रहे हैं। भले ही विपक्ष ने पुलवामा आतंकी हमले के बाद सरकार को पूरा समर्थन दिया है लेकिन देखने में आ रहा है कि सभी राजनीतिक दल और उनके नेता विभिन्न मंचों पर एक-दूसरे की धज्जियां उड़ाते नजर आ रहे हैं। एक-दूसरे पर व्यक्तिगत टिप्पणियां और शालीनता की हदें पार करते दिखाई दे रहे हैं। आज जनादेश का चारों तरफ मज़ाक बनाया जा रहा है। जनादेश का केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही महत्त्व नहीं है, इसका सामाजिक क्षेत्र में भी महत्त्व है। जहाँ राजनीति में मतों की गणना को जनादेश कहते हैं, वहां अन्य क्षेत्रों में जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को समझना पड़ता है।

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जनादेश और जनापेक्षाओं को ईमानदारी से समझना और आचरण करना सही कदम होता है और सफलता सही कदम के साथ चलती है। जहां इसके अनुरूप नहीं चला जाता है, वहां धोखा है और धोखा देना एक नए माफिया का रूप बन गया है। जनाकांक्षाओं को किनारे किया जा रहा है और विस्मय है इस बात को लेकर कोई चिंतित भी नजर नहीं आता। जो शिखर पर हो रहा है उसी खेल का विस्तार आज हमारे आस-पास भी दिखाई देता है। उससे भी ज्यादा विस्मय यह है कि हम दूसरों पर सिद्धांतों से भटकने का आरोप लगा रहे हैं, उन्हीं को गलत बता रहे हैं और हम उन्हें जगाने का मुखौटा पहने हाथ जोड़कर सेवक बनने का अभिनय कर रहे हैं। मानो छलनी बता रही है कि सूप (छाज) में छेद ही छेद हैं। इसके लिये गजब की प्रतिस्पर्धा है। ऐसी प्रतिस्पर्धा तो पहले कभी नहीं देखी गई। राजनीति का उद्देश्य केवल वोट बैंक नहीं होता बल्कि समाज और राष्ट्र को सही दिशा देना भी होता है, स्वस्थ एवं आदर्श राष्ट्र का निर्माण करना भी होता है और देश को सशक्त बनाने के साथ-साथ उसकी रक्षा करना भी होता है। क्या कोई देशवासी चाहेगा कि कश्मीर की एक इंच भूमि भी पाकिस्तान के हाथ में चली जाए? कौन देश के जवानों की शहादत को सलाम नहीं करना चाहेगा? हर देशवासी राष्ट्र के स्वाभिमान के साथ जीना चाहता है लेकिन कुछ लोगों को शहीदों के खून की कोई चिन्ता नहीं है वे तो उनके खून के कतरों पर भी राजनीति करते हैं, जो विरोधाभास ही नहीं, दुर्भाग्य है।

 

-ललित गर्ग

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