झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाह में हमलावर भीड़ ने कुल 7 लोगों की हत्या कर दी। इन घटनाओं को मीडिया के एक बड़े हिस्से ने 'भीड़ का कानून' और 'कानून व्यवस्था के फेल्योर' के बतौर प्रसारित किया। लेकिन अगर बारीकी से घटनाओं का मूल्यांकन किया जाए तो इन दोनों धारणाओं के विपरीत ये एक विशुद्ध राजनीतिक घटना है और हर सियासी घटना की तरह इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों है। मसलन यह महज संयोग नहीं है कि पीड़तों में 4 मुसलमान और 3 दलित हैं और इसमें बजरंग दल से जुड़े नेता सुनील का नाम पीड़ित समुदायों के लोग ले रहे हैं जिसने घटनाओं से लगभग एक महीने पहले से बच्चा चोरी की अफवाहें फैलाई थीं। यहां यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि पुलिस ने बच्चों की चोरी की घटनाओं से इनकार किया है।
दरअसल जब कोई भीड़ किसी भी आधार पर समाज के किसी वृहद हित की आड़ में किसी की जान लेती है तो वह राज्य और उसकी शक्ति को निस्पादित करने के अधिकार को खुद ले रही होती है। मसलन, हमारा कानून अपनी आत्मरक्षा में किसी की जान लेने का अधिकार तो व्यक्ति को देता है लेकिन समाज की व्यापक रक्षा या जनहित के नाम पर वह व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह को प्राण लेने का अधिकार नहीं देता। जहां पर भी जनहित या राज्यहित की बात आती है वहां राज्य किसी को भी मारने या फांसी पर चढ़ाने पर अधिकार खुद अपने पास रखता है और यह अधिकार ही उसे जनता के हित का संरक्षक भी बनाता है। ऐसे में जब कोई भीड़ बच्चा चोरी जैसी सामजिक अपराध चाहे वह अफवाह ही क्यों न हो, के आधार पर किसी व्यक्ति की हत्या करती है तब वह राज्य के प्राण लेने के अधिकार को खुद वरण कर रही होती है। इसीलिए झारखंड की हत्याएं किसी अफवाह की देन नहीं हैं और ना ही कानून व्यवस्था के ध्वस्त होने का संकेत हैं। यह राज्य द्वारा अपनी विधाई शक्तियों को खुद अपनी पसंदीदा वैचारिक भीड़ को हस्तांतरित कर देने का संकेत ज्यादा है। यह एक तरह से राज्य की सहमति से किसी हिंसक वैचारिक गिरोह के एक समानांतर राज्य की भूमिका में आ जाने की प्रक्रिया प्रतीत होती है।
झारखंड की घटनाओं में हम इसे इन तथ्यों की रोशनी में भी परख सकते हैं कि चार मुसलमानों की हत्या के खिलाफ आयोजित रैली में जिसकी प्रमुख मांग हत्यारों को गिरफ्तार करने, हत्याओं के दौरान मूक दर्शक बन खड़े रहे पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करने और प्रत्येक पीड़ित परिवार को 25 लाख रूपए मुआवजे की मांग थी, में शामिल लोगों के खिलाफ पुलिस ने 1600 लोगों पर आनन−फानन में मुकदमा दर्ज कर 50 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन इन हत्याओं में शामिल भीड़ का वीडियो मौजूद होने के बावजूद पुलिस हत्यारों को पकड़ने से बच रही है। जाहिर है यहां पुलिस का फोकस मुख्य अपराध के बजाए विरोध करने वालों पर ज्यादा है। हम इसी चीज को सहारनपुर में दलितों और राजपूतों के बीच हुई हिंसा के मामलों में भी देख सकते हैं। जहां पुलिस का पूरा फोकस दलित हिंसा पर विरोध प्रदर्शन करने वाले भीम सेना के नेताओं को पकड़ने या उनके 'नक्सली' कनेक्षन ढूंढने में ज्यादा है, उसके लिए पहले हिंसा को अंजाम देने वाले जय राजपुताना संगठन के नेताओं को पकड़ना प्राथमिकता नहीं है।
वहीं झारखंड की घटनाओं के संदर्भ में हमें यह भी याद रखना होगा कि ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं जिसमें राजनीतिक रूप से विरोधी समझे जाने वाले तबकों के खिलाफ ऐसी अफवाहें फैलाकर समाज में ध्रुवीकरण की कोशिश होती रही है जिसकी आड़ में सनसनी युक्त हिंसा और नफरत फैलाई जाती है। इसे राजनीति विज्ञान की भाषा में 'शॉक थ्योरी' कहा जाता है। इसमें गुप्त तरीके से काम करने वाले फासीवादी संगठन अपने राजनैतिक वैचारिकी के आधार पर हिंसा के लिए उपयुक्त माहौल बना कर अपनी मारक क्षमता और समाज में उसके प्रति रूझान को परखते हैं। करीब बीस साल पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'मुंहनोचवा' प्रकरण की रोशनी में इसे समझा जा सकता है। उस वक्त पूरे पूर्वांचल में अचानक एक रात यह अफवाह फैलाई गई कि एक अजीबो गरीब किस्म का जानवर अचानक से लोगों पर खास करके बच्चों पर हमला करके उनका मुंह नोच ले रहा है। जबकि कोई भी उसे देखने का दावा नहीं कर पा रहा था। सब लोग उसे किसी दूसरे गांव की घटना बताते थे। यह अफवाह इतने व्यापक और संगठित रूप से फैली थी कि लोग रात−रात भर जगे रहते थे और गांवों में बारी−बारी से पहरेदारी की जाती थी।
वहीं पुलिस प्रशासन भी ऐसी किसी भी चीज के वजूद से इनकार कर रहा था। यहां तक कि अस्पतालों और डॉक्टरों तक ने किसी 'मुंहनोचवा' के शिकार व्यक्ति के इलाज से भी इनकार किया था। बावजूद इस सबके इस अफवाह का यह पहलू इसे एक खास राजनीतिक और सामजिक दिशा देता था कि 'मुंहनोचवा' सिर्फ हिंदुओं को काटता है और उसे मुसलमानों के मोहल्ले से निकलते हुए लोगों ने देखा है। इसके बाद हम कह सकते हैं कि दूसरे चरण में इस अफवाह को मूर्त रूप देने की कोशिश के तहत विभिन्न इलाकों में मजबूत कहे जाने वाले पेशेवर मुसलमानों को 'मुंहनोचवा' का मास्टरमाइंड बताया गया। जिससे 'मुंहनोचवा' के बहाने फैली अफवाह एक ठोस मुस्लिम विरोधी माहौल में तब्दील होने लगी। मसलन, बलिया और आजमगढ़ में यह अफवाह फैलाई गई कि वहां के मशहूर मुस्लिम डॉक्टर ने ही मुंहनोचवा को छोड़ा है। हालात इतना तनावपूर्ण हो गया कि इन दोनों शहरों में पुलिस को प्रेस कांफ्रेंस करके बताना पड़ा कि 'मुंहनोचवा' का मुस्लिम डॉक्टरों से कोई सम्बंध नहीं है। लेकिन बावजूद इस प्रशासनिक कवायद के आम लोगों में इसे लेकर मुस्लिम विरोधी माहौल बना रहा।
वहीं इस परिघटना को हम मुहंनोचवा प्रकरण से पहले पूरे देश में गणेश जी के दूध पीने की अखिल भारतीय अफवाह में भी देख सकते हैं। जब रामायण और महाभारत जैसे टीवी सीरियल देखकर धार्मिक भक्ति में गोते लगाने वाले जनमानस ने इसे चमत्कार माना और टीवी निर्मित उसकी कृत्रिम आस्था ने अचानक पहले तो उससे मंदिरों के सामने कतार लगवायी और फिर 'राममय' पार्टी के पक्ष में वोट देने के लिए बूथ पर पहंचा दिया। इसलिए झारखंड की अफवाहों को हमें 'शॉक थ्योरी' की रोशनी में समझना होगा, इस क्वालिटेटिव फर्क को स्वीकार करते हुए कि इससे पहले इसमें लोगों की जान नहीं ली जाती थी और आज जान ले ली जाती है।
शाहनवाज आलम
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और आलेख में व्यक्त विचार निजी हैं)