जेब और इज्जत (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Nov 04, 2022

हमने एक साहब को दुकान के उद्घाटन पर बतौर मुख्य अतिथि न्यौता दिया। मुख्य अतिथि उन्हीं को बनाना चाहिए जो आगे चलकर हमारे काम आ सके। वो क्या है न कि उनके नाम से दो-चार विज्ञापन यूँ ही झड़ जाते हैं जैसे हवा के चलने से पेड़ के सूखे पत्ते। साहब पर कई मुकदमे चल रहे हैं। खाने के नाम पर पैसा, ओढ़ने के नाम पर बेईमानी, बचाने के नाम पर टैक्स और दिखाने के नाम पर ठेंगा इनका शगल है। वे प्रायः बाहर रहते हैं। उन्हें अंदर की हवा पसंद नहीं है। समाचार पत्रों का पहला पन्ना छोड़कर बाकी सब पन्ने पढ़ने के शौकीन हैं। पहले पन्ने पर इन्हीं की कारस्तानियों की खबरें छाई रहती हैं, ऐसे में खुद के बारे में पढ़ना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। 


वे अपनी हाजिरजवाबदारी के लिए हमेशा चर्चा में रहते हैं। एक दिन उनसे किसी पत्रकार ने कह दिया कि आपने देश का पैसा खा लिया। आप गद्दार हैं। इस पर उन्होंने अपनी जेब से पाँच का सिक्का निकाला और कहा– यह लो सिक्का और इसे खाकर दिखाओ। यदि तुम खा गए तो मैं मान लूँगा कि मैंने पैसा खाया है। जेब से खुद का सिक्का निकालकर उसे किसी दूसरे को खाने के लिए देना कभी गद्दार की निशानी नहीं हो सकती। 

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पत्रकार ने पलट कर पूछा– फिर आप दो साल जेल में क्यों रहे? जेल में रहने का मतलब तो यही हुआ न कि आपने कुछ गलत किया था। साहब ने एक लंबी सांस ली और धीरे से कहा– फिर आजादी से पहले जो लोग जेल गए थे, क्या वे दोषी थे? नहीं न! उन्हें तब की सरकार ने जेल भेजा था। मुझे अबकी सरकार ने। उन्हें देश के लिए लड़ने के एवज में भेजा था तो मुझे खुद के एवज में। उनका मामला कोर्ट कचहरी में चला, मेरा मामला भी कोर्ट कचहरी में चला। वे भी बाहर आए थे, हम भी बाहर आए। फर्क केवल इतना था कि वे अपनी दलीलों से बाहर आए और हम अपने दलालों से। दलीलें दलाल से नहीं दलालों से दलीलें चलती हैं। 


पत्रकार ढीठ था। उसने पूछा– फिर सरकार आपके खिलाफ क्यों है? साहब ने कहा– इसलिए कि इससे पहले की सरकारें मेरे साथ थीं। सरकारों के बीच की दुश्मनी दो पाटों की तरह होती है, जिसमें हम जैसे घुन को पीसा जाता है। अच्छा हुआ कि मैं घुन नहीं साबुत पत्थर निकला। सो बाहर निकल आया। वैसे भी जेब और इज्जत का क्या है, कुछ देर खाली रहने के बाद फिर से भर जाती हैं। वो दिन लद गए कि लुटी इज्जत फिर से नहीं कमाई नहीं जा सकती। अब इज्जत मापने के पैमाने बदल गए हैं। वैसे तुम्हें बता दूँ कि हम बहुत जल्द चुनाव लड़ने जा रहे हैं। नेता बनते ही सफेद कपड़ों के साथ सफेद चरित्र फ्री में मिलता है।          

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'

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