अटके विधेयकों को लेकर राज्यसभा में फूट ही पड़ा PM का गुस्सा, पर कुछ असर होगा क्या ?

By संतोष पाठक | Jun 29, 2019

लोकसभा में बड़ी जीत के बावजूद राज्यसभा का संख्या बल अभी भी मोदी सरकार के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। 2014 से 2019 के पिछले कार्यकाल में भी तीन तलाक जैसे कई अहम बिल लोकसभा में सर्वसम्मति से पास करवाने के बावजूद वो कानून की शक्ल नहीं ले सके क्योंकि राज्यसभा में विपक्ष ने संख्या बल के आधार पर उन विधेयकों को लटका दिया या पारित ही नहीं होने दिया। बुधवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देने के लिए खड़े हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन में शायद पिछले 5 वर्षों के राज्यसभा के कामकाज का ही दृश्य घूम रहा होगा इसलिए उनका गुस्सा फूट पड़ा। मोदी ने संख्या बल के आधार पर राज्यसभा में इतराने वाले दलों पर जमकर निशाना साधा।  

 

राज्यसभा में बोले पीएम मोदी

 

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि राज्यसभा में हमारे पास संख्या बल नहीं तो इसका मतलब क्या यहां से विधेयक पारित नहीं हो पाएंगे। पिछली सरकार के कई बिल लैप्स हुए क्योंकि राज्यसभा में पारित नहीं हुए जबकि लोकसभा में उन्हें पारित किया गया था, इससे देश की जनता का पैसा बर्बाद हुआ। मोदी ने साफ-साफ कहा कि राज्यसभा भी संघीय ढांचे का हिस्सा है और उस जिम्मेदारी की ओर हमें आगे बढ़ना होगा। जनादेश विरोध का हो सकता है लेकिन बाधा पहुंचाने का जनादेश किसी को भी नहीं मिला है। उन्होंने कहा कि हमें मिलकर सदन को चलाना होगा तभी देश आगे बढ़ सकता है। पीएम मोदी ने आखिर में कहा कि देश को पुरानी अवस्था में नहीं रखा जा सकता। 

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लैप्स होने वाले विधेयकों पर लोकसभा में फिर से करनी पड़ेगी चर्चा

 

आपको बता दें कि लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले अगर उसके द्वारा पारित विधेयकों को राज्यसभा पारित नहीं करती है तो अगली लोकसभा के गठन के साथ ही वो तमाम विधेयक लैप्स यानि खत्म मान लिए जाते हैं। नई लोकसभा को नए सिरे से उस बिल पर चर्चा करनी पड़ती है। 25 मई 2019 को 16वीं लोकसभा भंग होने के साथ संविधान के अनुच्छेद 107(5) के तहत कुल 46 विधेयक लैप्स हो गए। वहीं 15वीं लोकसभा के दौरान 68 विधेयक लैप्स हुए थे। सोलहवीं लोकसभा से पारित होने के बावजूद राज्यसभा में लैप्स हो गए विधेयकों में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, मोटर वाहन संशोधन विधेयक 2017, लोक प्रतिनिधित्व संशोधन विधेयक 2018, नागरिकता संशोधन विधेयक 2019, आइटी संशोधन विधेयक 2019, भूमि अर्जन-पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन संशोधन विधेयक 2015, सूचना प्रदाता संरक्षण संशोधन विधेयक 2015, राष्ट्रीय बांध सुरक्षा विधेयक 2018, उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, 2018 और मानव अधिकार संरक्षण संशोधन विधेयक 2018 प्रमुख हैं। सरकार इन विधेयकों को अब पारित कराना चाहेगी तो फिर से लोकसभा में नई प्रक्रिया आरंभ करनी होगी। 

 

राज्यसभा सभापति एम. वेंकैया नायडू भी जता चुके हैं नाराजगी

 

राज्यसभा में लंबित विधेयकों में अप्रवासी भारतीय विवाह पंजीकरण विधेयक 2019, नेशनल कमीशन फॉर होम्योपैथी बिल 2019, राजस्थान विधान परिषद विधेयक 2013, असम विधान परिषद विधेयक 2013, तमिलनाडु विधान परिषद विधेयक 2012, कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2008, टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी संशोधन विधेयक 2008, निजी खुफिया एजेंसियां रेग्युलेशन विधेयक 2007 प्रमुख हैं।

 

राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू 248वें सत्र के दौरान अपने समापन भाषण में जनता के लिए रिपोर्ट जारी करते हुए विधायी कामों को लेकर असंतोष जता चुके हैं। उन्होंने इस बात को जाहिर किया कि जून 2014 से अब तक राज्यसभा ने 18 सत्रों के दौरान 329 बैठकें कीं जिसमें 154 विधेयक पारित हुए। यूपीए शासन के दौरान इसी अवधि में 2009 से 2014 के दौरान 188 विधेयक पारित हुए थे। वहीं 2004 से 2009 के दौरान 251 विधेयक पारित हुए जो इस बार से 58 अधिक है। यह विधायी कामकाज में गिरावट का संकेतक है। नायडू ने इसे लेकर गहरी नाराजगी भी जताई थी।

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सरकार और विपक्ष का टकराव

 

वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब राज्यसभा में विरोधी दलों के रवैये को लेकर सरकार ने तीखा हमला बोला हो। पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अरूण जेटली, रविशंकर प्रसाद, नितिन गडकरी सहित सरकार के उस समय के कई दिग्गज मंत्री विरोधी दलों के राज्यसभा में रवैये को लेकर तीखा हमला बोल चुके हैं। सरकार लगातार यह कह रही है कि संख्या बल के आधार पर राज्यसभा में जानबूझकर विधेयकों को लटकाया जाता है, चर्चा नहीं होने दी जाती है या पारित होने से रोका जाता है। सरकार का तर्क है कि ऐसा करके विपक्ष जनादेश का अपमान कर रहा है क्योंकि जनता ने लोकसभा में एनडीए सरकार को पूर्ण बहुमत देकर अपना एजेंडा लागू करने का जनादेश दिया है लेकिन विरोधी दल राज्यसभा में देशहित के विरोध में काम कर रहे हैं। हालांकि विरोधी दलों का इसे लेकर अपना तर्क है। उनका कहना है कि राज्यसभा का गठन लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों पर मुहर लगाना भर नहीं है। उनके हिसाब से राज्यसभा का गठन इसलिए ही किया गया है कि अगर कोई विधेयक लोकसभा में जल्दबाजी में पारित हो जाता है तो उसके कानून बनने से पहले राज्यसभा में उस पर गहन विचार-विमर्श किया जाए। विरोधी दल सरकार पर संसदीय समितियों के महत्व को नजरअंदाज करने का भी आरोप लगाते रहते हैं। हालांकि इन तर्कों के बावजूद लोकसभा में बिल पर सहमति और राज्यसभा में असहमति के दोहरे रवैये को लेकर सवाल तो खड़े होते ही हैं। 

 

प्रधानमंत्री के राजनीतिक हमले के बावजूद सरकार विपक्ष के सहयोग से अहम विधेयकों को पारित कराना चाहती है। सबसे अधिक जोर अध्यादेशों को रिप्लेस करने वाले विधेयकों पर है क्योंकि बजट सत्र के दौरान अगर इनको पास नहीं कराया गया तो ये अध्यादेश लैप्स हो जाएंगे। सरकार किसी भी तरह से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, लंबे समय से अटके मोटर वाहन संशोधन विधेयक, श्रम सुधारों से संबंधित विधेयक सहित अन्य कई विधेयकों को इसी सत्र में राज्यसभा से पारित करवाना चाहती है।

   

कानून बनने की लंबी है प्रक्रिया

 

दरअसल, संसद में सरकारी विधेयकों को पास कराना आसान काम नहीं होता। इनको काफी लंबी प्रक्रिया से गुजरता पड़ता है। विधेयक को कानूनी प्रारूप में लाने के बाद कैबिनेट की मंजूरी जरूरी होती है। इसके बाद विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही सदनों से पास कराना जरूरी होती है। कई बार विधेयकों पर गहराई से विचार करने के लिए इन्हे संसदीय समितियों या प्रवर समिति में विचार करने के लिए भी भेजा जाता है, जहां इन पर फैसला होने में काफी समय लग जाता है। दोनों सदनों से पारित होने के बाद विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही विधेयक कानून के रूप में लागू हो पाते हैं।

 

राजनीतिक संवादहीनता या टकराव की वजह से अगर विधेयक अटकते हैं तो इस पर निश्चित तौर पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को मिल बैठकर रास्ता निकालना चाहिए। दलों को यह समझना चाहिए कि चुनावी आरोप-प्रत्यारोप का असर सदन की कार्रवाई पर नहीं पड़ना चाहिए। राजनीतिक लड़ाई अपनी जगह है लेकिन जनहित सबसे ऊपर होना चाहिए।

 

-संतोष पाठक

 

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