विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार दिल्ली की जनता ने अभूतपूर्व विश्वास के साथ आम आदमी पार्टी के वोट देकर केजरीवाल को सत्ता सौंपी थी, वह अब टूट चुका है। दिल्ली नगर निगम चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने नकार दिया है। भाजपा 183 सीटों के साथ तीनों निगमों (पूर्वी, दक्षिणी और उत्तरी निगम) में काबिज हुई है। आम आदमी पार्टी के 45 सीटें मिलीं और कांग्रेस 30 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही है।
2015 के विधानसभा चुनावों में 70 में से 67 सीटें जीतने वाली यह आम आदमी पार्टी का पतन शुरू हो चुका है। लाभ का पद मामले पर 21 आप विधायकों की सदस्यता पर खतरा मंडरा रहा है। इस संबंध में चुनाव आयोग में सुनवाई पूरी हो चुकी और फैसला भी आने वाला है। उम्मीद है कि यह फैसला जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव के बाद आयेगा और पार्टी के 21 नहीं 26 विधायकों की सदस्यता समाप्त होने का खतरा है क्योंकि केजरीवाल ने 21 को संसदीय सचिव बनाया था और अन्य पांच विधायकों को लाभ के पदों पर बिठाया था। अगर पार्टी के 26 विधायकों की सदस्यता समाप्त होती है तो आम आदमी पार्टी के 67 में से 65 बचे विधायकों में से 26 निकल जाएंगे। ऐसे में उनके केवल 38 विधायक ही बचेंगे। इन 38 में से 4 विधायक पंकज पुष्कर, संदीप कुमार, देवेन्द्र सेहरावत और असीम अहमद खान पार्टी नेतृत्व से नाराज हैं और तय है कि मुश्किल वक्त में यह सरकार के साथ खड़े नहीं होंगे। इस प्रकार केजरीवाल के पास केवल 34 विधायक ही बचेंगे। किसी भी सरकार के बहुमत के लिए 36 विधायकों का होना ज़रूरी है। वैसे भी इस बात की जबर्दस्त चर्चा है कि पार्टी के करीब 35 विधायकों ने केजरीवाल से इस्तीफे की मांग की है और उन्हें पार्टी के शीर्ष पद से भी हटाने की मांग रखी है। अत: दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली की केजरीवाल सरकार पतन की शुरुआत हो चुकी है। अब देखना यह होगा कि दिल्ली में केजरीवाल की सरकार कब तक रहेगी।
जिसकी केन्द्र में सरकार हो उस पार्टी को दिल्ली में मात्र तीन सीटें मिलीं तो किसी के भी यकीन नहीं हो रहा था न मीडिया को, न भाजपा को, न कांग्रेस को और तो और स्वयं केजरीवाल एण्ड कम्पनी को भी भरोसा नहीं हो पा रहा था कि दिल्ली की जनता ने उन पर इतना यकीन किया है। दरअसल केजरीवाल जानते हैं कि उन्होंने जो वादे किये हैं उन्हें केन्द्र सरकार की मदद से अगले 40 सालों में भी पूरा नहीं किया जा सकता लेकिन यह बात दिल्ली की भोली-भाली जनता को कहां मालूम थी। कुछ लोग तो आज भी इस भ्रम में जी रहे हैं कि केजरीवाल दिल्ली को लंदन बना देंगे, बस एक बार प्रधानमंत्री बन जाएं। असल में केजरीवाल दिल्ली के लिए कुछ करना भी नहीं चाहते। बिजली-पानी की सब्सिडी के मुद्दे को भुना रहे हैं और सब्सिडी का पैसा जनता से वसूले गए टैक्स में से दिया जा रहा है और यदि यही पैसा दिल्ली के विकास पर लगाया जाता तो हालत दूसरी होती।
केजरीवाल सरकार ने सारे नियम-कायदों को धता बताते हुए मनमाने तरीके से सरकारी खजाने को नुकसान ही नहीं पहुंचाया बल्कि अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और रिश्तेदारों की सरकार में नियुक्तियां करके भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया है और यह काम चोरी-छिपे नहीं बल्कि जानबूझ कर केन्द्र और राज्यपाल से टकराव के बहाने किया है ताकि आंच आने पर खुद को बेचारा साबित करके वोटरों को दिग्भ्रमित कर सकें। पंजाब एवं गोवा विधानसभा चुनावों में मात खाने के बाद राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव में औंधे मुंह गिरी उनकी पार्टी एमसीडी चुनाव में एक और परीक्षण से गुजरी है और दिल्ली की जनता ने केजरीवाल की पार्टी को नकार दिया है।
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एवं तीन बार कांग्रेस की सरकार में दिल्ली में मंत्री रहे अरविंदर सिंह लवली और प्रदेश युवा कांग्रेस अध्यक्ष अमित मलिक और दिल्ली महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता बरखा शुक्ला के भाजपा में जाने से पहले ही भाजपा प्रथम, कांग्रेस दूसरे तथा केजरीवाल की पार्टी स्वयं तीसरे स्थान पर दिखाई दे रही थी। 2013 के दिल्ली के विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 70 सीटों में से 28 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था लेकिन जिस कांग्रेस सरकार को कोस-कोस कर और उसके नेताओं को भ्रष्ट बताकर केजरीवाल चुनाव लड़े थे और जनसभाओं में अपने बच्चों की कसमें खाते थे कि कभी न किसी का समर्थन लेंगे न देंगे लेकिन चुनाव बाद गिरगिट की तरह रंग बदलकर सत्ता के लालच में कांग्रेस की गोद में जा बैठे और जनता को भ्रमित करने के लिए यह शिकायत करते रहे कि उन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा है और अपने सिपहसालारों की सलाह पर मात्र 48 दिनों में ही सत्ता से भाग खड़े हुए थे।
केजरीवाल एनजीओ चला रहे थे और एनजीओ में किसी भी विषय पर काम करने से पहले रिसर्च की जाती है और केजरीवाल ने भी यही किया। केजरीवाल ने राजनैतिक मुकाम हासिल करने के लिए लोगों के दिलों में यह विश्वास जगाया कि यदि उनकी पार्टी बहुमत से जीतती है, तो अन्ना हजारे के सपनों को पूरा करेगी और दिल्ली को भ्रष्टाचार मुक्त करेगी, साथ ही साथ विकास की नयी ऊंचाईयों पर ले जाएगी। अन्ना हजारे को देखकर लोगों को लगा था कि अन्ना की बगल में बैठा यह साधारण सा आदमी हम जैसों की तकलीफ समझता है और व्यवस्था परिवर्तन के लिए जरूर कुछ न कुछ करेगा और उसी का नतीजा था कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में जीत गई। एक साल के राष्ट्रपति शासन के बाद दिल्ली की जनता ने एक बार फिर 2015 के विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के नए वादों फ्री वॉइ-फाई और मुफ्त बिजली-पानी के नारों पर विश्वास करके सत्ता की चाबी सौंप दी।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीटें मिलीं थीं। लेकिन सीख देने वालों को केजरीवाल ने चुन-चुन कर बाहर का रास्ता दिखा दिया और चापलूसों की जमात के मुखिया बन बैठे। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं प्रो. आनंद कुमार, पार्टी को दो करोड़ रूपया चंदा देने वाले शांति भूषण, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकाल दिया गया। पंजाब में भी भगवंत मान के अलावा कोई सांसद केजरीवाल के साथ नहीं है। सभी ने केजरीवाल के कामकाज पर उंगली उठाई थी कि वह सही काम नहीं कर रहे हैं और तीन-चार लोग पार्टी चला रहे हैं। केजरीवाल के इस निर्णय से जनता में उनकी इमेज तानाशाह की बनी है।
गोवा, पंजाब, दिल्ली के राजौरी गार्डन की करारी हार के बाद अब नगर निगम चुनाव में भी आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने नकार दिया है और यह केजरीवाल की सबसे बड़ी नाकामी है। दिल्ली नगर निगम चुनाव के यह नतीजे पार्टी के पतन की शुरुआत है। बवाना से आम आदमी पार्टी के विधायक रहे वेद प्रकाश पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए हैं। विधायक ने आरोप लगाया है कि अरविंद केजरीवाल चौकड़ी से घिरे हैं और उन्हीं की सुनते हैं और उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं।
केजरीवाल पूरा समय प्रधानमंत्री और दिल्ली के उपराज्यपाल के खिलाफ दोषारोपण करते रहते हैं और आपराधिक मामलों में अपने विधायकों का बचाव करते हैं। दिल्ली में इनके विधायकों सोमनाथ भारती, संदीप कुमार, दिनेश मोहनिया, जितेन्दर तोमर, अखिलेशपति त्रिपाठी हों या फिर सुरेन्दर कमांडो इनका बचाव करने में केजरीवाल का अधिक समय गुजरा है। केजरीवाल खोखले वादे करते हैं। दिल्ली का विकास रूका हुआ है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत एक भी परियोजना पर काम नहीं हो रहा है। लैंड पूलिंग पॉलिसी केजरीवाल लागू ही नहीं होने देना चाहते हैं। कॉलोनियों के रेगुलरलाइजेशन का मामला थमा हुआ है और 15 साल पुरानी स्थिति है। फ्री वाई-फाई का वादा हवा-हवाई है। मुहल्ला क्लीनिक अधिकतर पार्टी कार्यकर्ताओं के घरों में चल रहे हैं जो अस्थायी हैं। सड़कों की हालत किसी से छिपी नहीं है। सड़कों और दूसरे विकास कार्यों का पैसा एडवरटाइजिंग पर लगाया जा रहा है।
विधानसभा चुनावों में दिल्ली की जनता ने आँख बंद करके केजरीवाल को इतना बड़ा बहुमत दे दिया था लेकिन अधिकांश लोगों को निराशा ही हुई है। एमसीडी चुनाव परिणामों से साफ हो गया है कि यह उनकी पार्टी के पतन की शुरुआत है। लेकिन केजरीवाल मानने वाले नहीं हैं और उन्होंने इसका ठीकरा ईवीएम मशीनों पर फोड़ दिया है। ईवीएम पर संदेह जताकर केजरीवाल पहले ही इशारा कर चुके थे कि हार का ठीकरा ईवीएम मशीनों पर फोड़ेंगे। उन्होंने इसके लिए मनीष सिसोदिया, गोपाल राय, कपिल मिश्रा, आशुतोष, आशीष खेतान, राघव चड्डा, दिलीप पांडेय सरीखे नेताओं को मैदान में उतार दिया है जो चीख-चीख कर भाजपा द्वारा ईवीएम पर गड़बड़ से जीतने के आरोप लगा रहे हैं।
सोनिया चोपड़ा