लोग सड़क पर (व्यंग्य)

By दिलीप कुमार | Jan 08, 2020

"नानक नन्हे बने रहो, 

जैसे नन्ही दूब

बड़े बड़े बही जात हैं 

दूब खूब की खूब "

 

श्री गुरुनानक देव जी की ये बात मनुष्यता को आइना दिखाने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। ननकाना साहब में जिस तरह गुरूद्वारे को घेर कर सिख श्रद्धालुओं पर पत्थर बाज़ी की गयी और एक कमज़र्फ ने धमकी दी कि वो ये करेगा, वो करेगा। नफरत से भरी भीड़ ने सड़क पर कब्ज़ा करके गुरुद्वारे पर हमला कर दिया। सिखों और उनके धर्म स्थान को ख़त्म करने की खुले आम धमकी दी। अभी हफ्ते भर पहले ही पाकिस्तान में एक शख्स को ईशनिंदा कानून के तहत फांसी दी गयी है। फिर पता  नहीं क्यों, इमरान खान नियाजी के मुल्क में ईशनिंदा कानून भी चुनिंदा लोगों पर लागू होता है, ये बंटवारा इंसानों पर ही अभी तक लाज़िम था पाकिस्तान में, अब खुदा पर भी हो गया है शायद। ऐसे ही मारे-पीटे सताए लोग जब भारत आते हैं और उनके आँसूं पोंछने की कवायद होती है, तो तमाम किस्म की दलीलें देकर कुछ लोग सड़कों पर आ जाते हैं। अभी तक अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या हमारी सड़कों पर कहीं-कहीं  पाये जाते थे, अब एलीट क्लास को भी सड़कों पर संभावनाएं दिखने लगी हैं।

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लोग सड़क पर हैं कि फलां को भी अपनाओ, ढिमाका को क्यों छोड़ दिया। जान बचाकर भागकर आये लोगों और जबर्दस्ती घुस आए लोगों में फर्क होता है। लेकिन जो बेचारे शरणागत हुए हैं हमारे देश में उनका क्या? सड़कों पर डफली, डुगडुगी बजती रही और लोग चीखने में इस कदर लोग मशगूल रहे कि देश की शिक्षा नगरी मानी जाने वाली और युवाओं की पसंदीदा पढ़ने का शहर नौनिहालों की मौत से सिहर उठा।  सैकड़ों मासूम बच्चों की आहें, कराहें उन लोगों के कानों तक नहीं पहुंच सकी जो सड़कों पर चीख रहे थे। चूँकि बच्चे, वोट नहीं हैं, बच्चे बोटबैंक नहीं हैं, गरीब के बच्चे की चीख सड़कों के हल्ले-गुल्ले ने सड़क और हस्पताल का फर्क मिट गया क्योंकि जितनी सर्दी सड़कों पर थी उतनी ही सर्दी हस्पतालों में थी, लेकिन बीमार नौंनिहाल उतनी सर्दी झेल नहीं सके। देश सिर्फ एक्ट और कानून ही नहीं होता बल्कि असली देश तो ये बच्चे थे जिन्हें कोई सिर्फ सौ बच्चों की मौत कहकर पल्ला झाड़ रहा है, क्योंकि उनके आंकड़े कह कह रहे हैं कि पहले हजारों मरते थे, अब सिर्फ सैकड़ों ही मरे हैं।

 

क्या कहना, सदके जांवा आप पर,

कविवर अदम गोंडवी के शब्दों में 

"तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है"

 

डफलियां, डुगडुगियां, कूल डूड और डूडनियां राजधानियों की चौड़ी सड़कों पर मीडिया वैन देखकर ही उद्देलित होने वाली संवेदनाएं क्या सिर्फ लाइमलाइट तक महदूद रहेंगी, ये सवाल बहुतों के जेहन में है। सड़कों पर हुड़दंग, आगजनी, करने वाले लोगों के लिए कुछ लोगों की संवेदना इतनी उबाल मार रही थी कि कि भारत वर्तमान को उकसा कर सड़कों पर ला दिया, और देश का भविष्य अस्पतालों में दम तोड़ गया क्योंकि सर्दी में अस्पतालों और सड़कों का फर्क मिट गया, देश के तमाम युवाओं की टोली नकारात्मक ऊर्जा से सड़कों पर जूझ रही थी, तो दूसरी तरफ देश के कुछ नौनिहाल सर्दी और बीमारी से जूझ रहे थे, और ज़िन्दगी की जंग हारते जा रहे थे। उन नौनिहालों के परिवारों की टीस, दर्द, पीड़ा कोई सुनने वाला नहीं था।

 

"चीख निकली तो है, होंठों से मग़र मद्धम है,

बन्द कमरों को नहीं सुनाई जाने वाली।"

 

जेरे बहस ये है कि चंदा लगाकर अगर दंगाइयों और उपद्रवियों का सरकारी जुर्माना भरा जा सकता है तो क्या इन बच्चों को बचाने का दायित्व उनका भी हो सकता है जो दर ब दर चंदा मांग रहे हैं भटके और मासूम लोगों का जुर्माना भरने के लिए। बच्चे और बच्चे का फर्क देखकर लोग हैरान हैं।


"तुम अभी शहर में क्या नये आये हो 

रुक गए राह में हादसा देखकर"

 

बन्द कमरों में सियासी मीटिंगें और प्रदर्शन के तौर-तरीके डिसकस हो रहे हैं आजकल ना कि नौनिहालों को बचाने का उपाय। बन्द कमरे में पैकेज, पारितोषिक की चर्चा-परिचर्चा होती है, फिर लोग सड़कों पर प्रोटेस्ट करने निकल पड़ते हैं... किसका प्रोटेस्ट, कैसा प्रोटेस्ट... सड़कों वाले लोग इन मुद्दों से नहीं जूझते हैं, उनको तो बस, पथराव, आगजनी और चीखों से आसमान सर पे उठा लेना है। वो चीखें तो संवैधानिक हक, संविधान के प्रहरी कुछ कहें तो उनको जुल्म नजर आता है। सड़कों पर ही इंस्टेंट मेकअप हो जाते हैं, दुनिया भर में पेरिस, हॉन्गकॉन्ग के प्रोटेस्ट के फैंसी स्लोगन, ट्रेन्डिंग ड्रेस को फॉलो किया जा रहा है कि जिससे प्रोटेस्ट थोड़ा स्टाइलिस्ट और ट्रेंडी बन सके। कम्पनियां प्रोटेस्ट जैकेट, प्रोटेस्ट स्कार्फ जैसे उत्पाद बेचने लगी हैं जो कि धड़ाधड़ बिक रहे हैं। योग सिखाने वाले लोगों की दुकान चल निकली है कि खूब देर तक चीखने -चिल्लाने का नारा कैसे लगाएं। ड्राई फ्रूट भी महंगे हो गए क्योंकि सुबह सुबह लोग खूब ड्राई फ्रूट खाकर प्रोटेस्ट करने जाते हैं ताकि स्टैमिना बना रहे। सड़कों पर पहले लोग एक बिल्ला लगाये घूमते थे जिसमें लिखा रहता था "आस्क फॉर वेट लॉस"। अब बाज़ार विशेषज्ञों ने अपने एग्जीक्यूटिव बाज़ार में उतार दिए हैं जो बिल्ला लगा कर घूमते हैं कि "आस्क फॉर बेटर प्रोटेस्ट ट्रेंड्स"। कंपनियां क्रैश कोर्स ऑफर कर रही हैं कि प्रोटेस्ट से आपके जीवन में नई कामयाबी लाएं। इस शार्ट टर्म कोर्स में बताया जाता है कि क्या खाकर, क्या पहन कर प्रोटेस्ट करने जाएँ। मेकअप पूरा करें, मुंह खोलें कम, हिलाए ज्यादा, मेकअप किट साथ रखें, थोड़ा उस प्रोटेस्ट के बारे में पढ़कर जाएँ, संविधान के दो चार जरूरी उपबंधों को याद रखें क्योंकि जब रिपोर्टर के प्रश्न समझ में ना आएं तो "संविधान खतरे में है" कहकर रिपोर्टर के सामने उन उपबंधों का हवाला दे दें। रिपोर्टर के सामने बाइट देते हुए कितना मुंह खोलें ,वरना चेहरे की पीओपी बिगड़ी हुइ आएगी। क्लींन शेव और नहाए धोये लड़के हर्गिज़ नजर ना आएं, हजामत चार छह दिन पुरानी हो और बालों में हेयर जेल का प्रयोग बिलकुल ना करें, बाल बिखरे हों तो सो फॉर सो गुड। पंप शूज पहनें, और मोटी जैकेट भी ताकि लाठी चार्ज हो तो भागने में आसानी हो।

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फेसबुक और इंस्टाग्राम की फोटो खुद ना खींचे बल्कि एक दूसरे की खींचे और एक दूसरे की वाल पर शेयर करें, सोशल मीडिया की फोटो के साथ क्रांति के गीतों की कैप्शन और इंकलाब से जुड़ी शायरियां जरूर लिखें। अपने साथ पट्टी और हैंडीप्लास्ट जरूर रखें और कुछ प्रोटेस्ट में लगाकर जाएँ, बाकी प्रोटेस्ट ख़त्म होने के बाद लगाएं। डफली, डुगडुगी बजाने की दोनों हाथों से प्रैक्टिस कर लें। कैमरा आस पास ना हो तो पुलिस वालों से बहुत शालीनता से "सर और अंकल जी कहकर बात करें, उन्हें बता भी दें कि जब कैमरा आयेगा तो आप चीख कर उनसे उलझ पड़ेंगे बाइट के लिए। इसके लिए उनसे बता भी दें और एडवांस में माफ़ी भी मांग लें। अपने रिज्यूमे में जरूर लिखें कि आपने कितने प्रोटेस्ट किये हैं, कितनी डफली बजायी है, इससे नौकरी और तरक्की की संभावना बढ़ जायेगी। देशद्रोह का मुकदमा झेल रहे एक ओवरएज युवक को तो इसी के बदौलत लोकसभा का टिकट और नौकरी भी मिल चुकी है। अब हमारे टॉप संस्थानों से सिर्फ देश निर्माण का सपना लिए युवा नहीं निकलेंगे, बल्कि वो डफली-डुगडुगी से देश को जगायेंगे, बाँध और फ्लाईओवर तो वे हमेशा से बनाते ही आये हैं। लड़के-लड़कियों ने मम्मी पापा को बता दिया है कि वो कालेज बन्द होने के बावजूद सड़कों पर इसलिये डटे हैं क्योंकि इस बार के कैम्पस प्लेसमेंट सड़कों पर ही होंगे, कोई किसी राजनैतिक दल के आईटी सेल में जाएगा तो कोई प्रवक्ता बनेगा और पैकेज क्या होगा...?" बेस्ट इन द इंडस्ट्री"। माँ-बाप समझा दिए गए हैं कि इकोनॉमी की हालत बुरी है, अब नौकरी सड़कों पर ही बहादुरी दिखाने से मिलेगी, मीडिया इंडस्ट्री में रोजगार की बहार है वरना देश के टॉप संस्थानों में सब्सिडी पर पढ़ रहे टॉप इंजीनियर सड़कों पर डफली-डुगडुगी लिए ना खड़े होते, ये वही लोग हैं जो देश के संस्थानों में भारी सब्सिडी लेकर पढाई पूरी करते ही विदेशों की इकोनॉमी संवारने चले जाते हैं। लोग सड़कों पर हैं तो सड़कों और फुटपाथों पर रहने सोने वाले लोग कहां जाएँ।

 

वे लोग परेशान हैं कि सड़कों का शौक लोगों का ख़त्म हो तो वे फुटपाथ पर अपनी रोजी रोटी चला सकें उन्हें क्रांति के नारे नहीं जंचते क्योंकि अपना रोजगार ना कर पाने की वजह से वे भूखे हैं इस सब में।

 

"ना कुछ देखा राम भजन में,ना कुछ देखा पोथी में 

कहत कबीर सुनो भाई साधो,जो देखा दो रोटी में"

 

सवाल तो लाज़िम है ,फिर भी लोग सड़क पर हैं।

 

दिलीप कुमार

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