आज के दौर में सब आफती समाज में अपनी जिंदगी काट रहे हैं

By संतोष उत्सुक | Nov 16, 2018

यात्राओं ने जीवन में हमेशा यादगार अनुभव जोड़े हैं। इस बार भी पहाड़ से वापिस लौटते समय स्वतः विश्लेषण होता रहा कि कैसी रही यात्रा। दिल ने दिमाग़ से कहा लौटने का तो मन नहीं करता। हरियाली हर ओर, खूबसूरत पहाड़ियां, शीतल नीले बर्फीले पानी में गर्म पानी के खौलते चश्मे और जून के महीने में रजाई में सोना। शहरों में क्या जीते हैं बनावटी लाईफ, यह न करो वह हो जाएगा, वैसा न करो ऐसा हो जाएगा। पहाड़ पर ज़िन्दगी सिर्फ जीने के लिए क्या क्या करना ही पड़ता है, मोबाइल से खींची तस्वीरें बार बार दिखा रही थीं। मज़दूरी करती नेपाली मां की पीठ पर फटी शाल में बंधा बच्चा। पीठ ही उसका खेल मैदान है और दुनिया भी। जब तक थोड़ा आत्मनिर्भर नहीं हो जाता उसे तब तक वहीं जीना है क्योंकि मां ने रसोई चलाने के लिए दिन भर पत्थर उठाने हैं। इस मां व बच्चे की दुनिया सीमित है। तारकोल के खाली ड्रमों के पतरों से बनी रसोई व रात को सोने के लिए आशियाना भी। कौन जाने कब पहाड़ दरक जाए या कोई और मुसीबत दस्तक दे बैठे। मगर दोनों तन्दरूस्त, खुश और बेफिक्र हैं क्योंकि संभालने के लिए उनके पास ज्यादा कुछ नहीं है। सीधा कहें तो उनके पास सिर्फ ज़िन्दगी है जिसे उन्होंने संभालना व जीना है।

 

कुदरत की गोद में हम सभी निर्मल आनंद प्राप्त करते हैं। प्रत्याशित खतरों का आभास मात्र भी नहीं होता। हमारा अस्त व्यस्त व अफरातफरी भरा जीवन, असमान सुविधाओं, नियमों व अनुशासन में जकड़ा पड़ा है। हम छूटना चाहते हैं मगर हमारी कार्यशैली, सामंतवादी समाज में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की ज़िद, बाहर महंगा खाना, ब्रांडेड वस्त्र, हर कहीं पार्क न हो सकने वाली गाड़ियां, कई मकान कहें तो ज़िन्दगी में अब टौर यानी शान ओ शौकत लाज़मी हो चुकी है। हम आफती समाज में ज़िन्दगी काट रहे हैं। कम्यूनिकेशन की जकड़ में रोज़ाना नया सैल फोन ईजाद हो रहा है। संप्रेषण की इस फैलती दुनिया में संवाद की दुनिया गर्क हो रही है। आपस में बातचीत तो पति पत्नी की भी सीमित हो चली है। चौबीस घंटे उपलब्ध मनोरंजन ने अंधविश्वास व फूहड़ता फैलाने का ज़िम्मा ले रखा है। मज़ा देने वाले व मज़ा लेने वाले किसी भी किस्म की कीमत चुकाने को तैयार हैं। ज़िंदगी यात्रा न होकर मेला नहीं भगदड़ हो चुकी है जिसमें हम खुद को खोज रहे हैं। इस भगदड़ से चाहकर भी हम बाहर नहीं हो सकते। लेकिन कभी जब हम इस दुनिया से छिटक कर कुदरत की गोद में होते हैं तो आनंद की सोहबत में सब छूटता लगता है।

 

समाज में एक वर्ग के पास मनचाही छुट्टियां व धन है तो अनगिनत रास्ते भी हैं। दूसरों के पास छुट्टियां व सुविधाएं हैं मगर ऐसे लोग भी हैं जो जिम्मेदारी की गिरफ्त में हैं। छुट्टियां खाते में जमा हैं। बॉस खुद भी अवकाश नहीं लेते औरों को भी ऐसे देते हैं जैसे उनकी जेब से रुपए निकले जा रहे हों। साथी सोचते रहते हैं काश छुट्टी ज़रूरत के मुताबिक मिले तो ज़िंदगी बाग बाग हो जाए। कहीं दो छुट्टियां लेकर छुट्टियां छ: हो जाती हैं और किसी की छुट्टियां हर साल लैप्स होती हैं। जानवरों की तरह काम करते रहो तब भी नहीं कहा जाता, ‘चार दिन परिवार के साथ आवारगी कर आओ।' जीवन शैली बताती है कि किसी की मृत्यू हो जाए तो जान पहचान के लोग सोचने लगते हैं कि अब तो ‘वहां जाना पड़ेगा’। सभी ने अपना कमफर्ट जोन बना लिया है मगर सुविधाओं के अंबार के नीचे सब दुविधा में हैं। 

 

दरअसल हमारी कार्य संस्कृति ही ऐसी बन चुकी है। विमान में जब तक एअर होस्टेस सख्ती से न कहे फोन प्रयोग करते रहते हैं। बाग में सुबह की सैर में भी हाथ से मोबाइल नहीं छूटता, परिवारिक यात्रा में व्यवसायिक चिंताए चिपकी रहती हैं। अब तो मॉल ही वातानुकूलित बाग हो गए हैं। हम नकलची हैं विदेश के जहां सप्ताह में पांच दिन काम होता है, शुक्रवार की शाम होते ही सब छुट्टी मस्ती के फर्श पर उतर  चुके होते हैं। क्या हम यह मान कर चलें कि वहां प्रतिस्पर्धा नहीं और वहां लोग अपने काम, अपने परिवार और देश से कम प्यार करते हैं। नहीं, दरअसल वे जीवन के ऐसे सहज स्वानुशासित फार्मेट में जीते हैं जहां हर व्यक्ति, कार्य व वस्तु की अहमियत है। इतना कुछ विकसित होने के बाद भी हमारी व्यवस्था ऐसी है कि हम शरीर को चिंताओं में जीवित रखते हैं और रोज़ मरते हैं। आदमी का दिल चाहता है ‘जीना’  मगर दिमाग़ कहता है ‘जी ना'। प्रकृति के वरदान मानव जीवन को साल में कुछ दिन जी लेने की सुविधा मिलेगी या फिर ज़िंदगी की दुविधाएं ही ज़िंदगी से कहती रहेंगी, ज़िंदगी जी ना। मुझे पता है इस हाल में तो उस माँ और बच्चे जैसे बेफिक्री हमारे जीवन में होनी संभव नहीं।

 

-संतोष उत्सुक

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