By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Feb 01, 2019
देश में नई पीढ़ी में बैंकों से ऋण लेने की प्रवृति में तेजी से विस्तार हुआ है। रिजर्व बैंक की एक हालिया जारी रिपोर्ट में दो बातें साफ हुई हैं। पहली यह कि आज लोग घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए खासतौर से कार−बाइक से लेकर एसी−एलईडी या इसी तरह के लक्जरी आइटम घर में लाने के लिए लालायित दिखाई दे रहे हैं और इन वस्तुओं या घूमने−घामने का शौक पूरा करने के लिए कर्जा लेने में किसी तरह से हिचकिचाहट नहीं दिखा रहे हैं। दूसरी खास बात यह कि बैंकों के एनपीए बढ़ने की लाख चर्चा के बावजूद इस तरह के खुदरा कर्ज लेने वाले लोगों द्वारा लिया हुआ कर्जा समय पर चुकाया जा रहा है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 2017 में 59900 करोड़ रु. का क्रेडिट कार्ड ऋण वितरित हुआ है जबकि इससे एक साल पहले 2016 में 43200 करोड़ रु. का इस तरह का कर्जा वितरित हुआ था।
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दरअसल प्रति व्यक्ति आय में साढ़े आठ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हो रही है वहीं लोन की रकम का औसत निकाला जाए तो ऋण की राशि में प्रति व्यक्ति 17.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हो रही है। दरअसल आज का युवा पर्सनल लोन की मंहगी ब्याज दर होने के बावजूद पर्सनल लोन लेने में किसी तरह का संकोच नहीं कर रहा है। बैंकों के आंकड़ों का अध्ययन करें तो इस तरह के कर्जों के समय पर नहीं चुकाने का आंकड़ा या यों कहें कि इस तरह के ऋणों का एनपीए का आंकड़ा कुल एनपीए का केवल और केवल दो प्रतिशत तक सीमित है। हालांकि पिछले कुछ समय से रियल स्टेट मार्केट मंदी के दौर से गुजर रहा है अन्यथा घर−फ्लैट्स के लिए बैंकों से कर्जा लेने वालों की संख्या भी कम नहीं है और इस कर्जें के चुकारे की स्थित भिी अच्छी ही मानी जा सकती है।
हालांकि यह हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरा के विपरीत है। कर्ज लेने को हमारी परंपरा में अच्छा नहीं माना जाता रहा है। हमारे देश में सनातन काल से ही चारुवाक संस्कृति चलती रही है और इसे हेय दृष्टि से देखा भी जाता रहा है। इस चारुवाक दर्शन का मूल वाक्य ही यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतम पिवेत रहा है। कर्जा लेकर सांसारिक सुख सुविधाओं का उपभोग इस संस्कृति के मूल में रहा है। पर अब समाज में दो विरोधाभासी बातें साथ साथ देखने को मिलने लगी हैं। एक और कहने में पूजा−पाठ को लाख ढकोसला कहा जाता हो, भविष्य ज्ञान को पाखंड कहा जाता हो पर दिन दूनी रात चौगुणी के हिसाब से इस क्षेत्र में इजाफा हो रहा है। वहीं दूसरी विरोधाभासी बात यह कि लोग अब कर्जा लेने में किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं दिखाते हैं। आज के व्यक्ति को साधन चाहिए, सुविधाएं चाहिए, जीवन को जीवन की तरह जीने की आकांक्षा चाहिए। यही कारण है कि पूरी की पूरी सामाजिक मानकों में बदलाव आता जा रहा है। लोगों में अधिक से अधिक पाने की−दिखावे की मानसिकता विकसित होती जा रही है और इसके चलते परिवार संस्कृति का विघटन, एकल परिवार का चलन, एकल परिवार में भी परिवार के दोनों ही सदस्यों द्वारा कामकाजी होना पूरे सामाजिक ताने−बाने को बदलने का कारण बनता जा रहा है। एक समय था जब लोग कम खाना पसंद करते थे पर किसी के आगे हाथ फैलाने से संकोच करते थे। कर्जदाता द्वारा कर्ज चुकाने का तकाजा करने आना तौहीन माना जाता था। हालांकि आरबीआई की हालिया रिपोर्ट से यह साफ हो जाता है कि मध्यम वर्ग की परंपरागत सोच में आंशिक ही बदलाव आया है और वह कर्ज लेने में तो संकोच नहीं कर रहा है पर कर्ज चुकाने के मामले में वह आगे है और समय पर कर्ज चुकाना अपना दायित्व मानकर चल रहा है। यही कारण है कि कुल एनपीए में खुदरा कर्ज का एनपीए का स्तर केवल दो प्रतिशत पर सिमटा हुआ है।
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दरअसल आज की जीवन शैली व परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आया है। आज लोग पेट काटकर पैसा जोड़ने में विश्वास नहीं रखते। दूसरा बैंकिंग सिस्टम तक आम आदमी की सहज पहुंच हुई है। पर्सनल लोन महंगा होने से जहां बैंकों को अच्छी आय हो रही है वहीं आम ऋणी सोचता है कि पैसा तो मिल रहा है और ईसीएस या अन्य तरीके से सीधा बैंक में ऋण राशि जमा हो जाती है तो पैसा लेने या जमा कराने के लिए बैंकों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते। इसी तरह से देश में तेजी से औद्योगिकरण के साथ ही हर वर्ग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उत्पाद बाजार में आ रहे हैं। फिर विक्रेताओं द्वारा ही आसान ईएमआई पर ऋण पर यह उत्पाद उपलब्ध करा दिए जाते हैं। बदलाव को यहां तक देखा जा सकता है कि कभी मौहल्ले में एक फोन होता था और उस घर की फोन के कारण प्रतिष्ठा ही अलग हो जाती थी वहीं आज मोबाइल क्रांति के जमाने में एक ही घर में छोटे बड़े सदस्यों के पास अलग अलग व एक से अधिक नंबर की सिम तक मिल जाएगी। साधारण मोबाइल तो अब देखने को भी नहीं मिलते ठेठ दूर ढ़ाणी में भी एंड्राइड फोन आम हैं। इसी तरह से दूर दराज के गांव की ढ़ाणी में भी डिश या केबल कनेक्शन आम है। ऐसे में लोगों की अपेक्षाएं और आंकाक्षाओं में बदलाव आया है। यही कारण है कि अब लक्जरी आइटम बनाने वाली कंपनियां हिन्दुस्तान में बाजार ढूंढ़ने लगी हैं और अब तो एक कदम आगे बच्चों के साथ ही गांवों को केन्द्रित बनाकर विज्ञापन नीति तैयार की जा रही है ताकि देहात को खरीद केन्द्र बनाया जा सके, ग्रामीणों को लक्षित कर उत्पादों को बेचा जा सके। हालांकि इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि लोगों के जीवन स्तर में तेजी से सुधार हो रहा है। देश में सूक्ष्म, लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यमों का तेजी से विकास हो रहा है। यह एक तरह से शुभ संकेत भी है।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा