प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भले ही प्राथमिकता से सरकारी कामकाज की शैली में पारदर्शिता, तत्परता और ईमानदारी की वकालत की हो, लेकिन आज भी सरकारी कार्यशैली लापरवाह, अनुशासनहीन, भ्रष्ट एवं उदासीन बनी हुई है। आजादी के बहतर सालों के बाद भी आम आदमी शासन-तंत्र की उपेक्षा एवं बेपरवाही के कारण अनेक संकटों का सामने करने को विवश है। विवशताएं इतनी अधिक हैं कि आम आदमी के सामने इनके समाधान का कोई रास्ता नहीं है। एक नागरिक अपनी शिकायत पर ध्यान नहीं दिए जाने की वजह से हताशा के दौर में चला जाता है। ऐसी ही त्रासद, हताश एवं विकराल स्थितियों के बीच उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मुख्यमंत्री कार्यालय के सामने एक व्यक्ति ने इसलिए आग लगाकर जान देने की कोशिश की कि शासन-तंत्र में बैठे संबंधित अधिकारियों ने उसकी शिकायत की अनदेखी की और आरोपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की थी। अफसोसजनक स्थिति है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तमाम सतर्कता, चेतावनी एवं चुस्त प्रशासन की घोषणाओं के बावजूद ऐसी स्थितियां कायम हैं। एक आम नागरिक प्रशासन की उपेक्षा एवं लापरवाही से इतना परेशान हो जाये कि उसे आत्महत्या के अलावा कोई और रास्ता दिखाई न दे, यह शासन एवं प्रशासन की जवाबदेही पर एक बड़ा घिनौना प्रश्न है।
खबर के मुताबिक, कन्नौज जिले के रहने वाले उस व्यक्ति ने ग्राम प्रधान और लेखपाल से इस बात की शिकायत की थी कि उसकी जमीन पर दूसरे व्यक्ति ने अवैध रूप से कब्जा कर लिया है। नियमानुसार शिकायत दर्ज होने के बाद संबंधित अधिकारियों को अपनी ड्यूटी के तहत समय पर मामले की जांच करनी चाहिए थी, ताकि न्याय का रास्ता तैयार होता। लेकिन उनके रूख में लगातार अनदेखी ने शिकायतकर्ता को इस हद तक क्षुब्ध एवं पीड़ित कर दिया कि उसे सार्वजनिक रूप से आत्मदाह की कोशिश करके अपनी परेशानी की ओर शीर्ष शासन-प्रशासन का ध्यान खींचने का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। शुक्र है कि मुख्यमंत्री कार्यालय के सामने ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों ने तत्परता दिखाते हुए आग बुझाई और पीड़ित को नजदीक के अस्पताल में भर्ती कराया। अगर समय पर यह सक्रियता नहीं दिखाई गई होती तो मामला इस रूप में दर्ज हो जाता कि एक व्यक्ति को शासकीय कामकाज में उपेक्षा एवं लापवाही की वजह से अपनी जान देनी पड़ी। निश्चित रूप से शिकायत पर कार्रवाई में देरी की वजह से किसी व्यक्ति के इस तरह के कदम उठाने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। बात केवल उत्तर प्रदेश की नहीं है, देशभर के तमाम सरकारी कार्यालयों में आम आदमी ऐसी स्थितियों से रू-ब-रू होता है।
पीड़ित व्यक्ति की कोशिश यह होनी चाहिए थी कि अगर निचले स्तर के कर्मचारी या अधिकारी उसकी सुनवाई नहीं कर रहे थे तो वह उनके उच्चाधिकारियों तक अपनी बात पहुंचाने का रास्ता चुनाता। लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि समूचे शासन तंत्र में निचले से लेकर ऊपरी स्तर की जटिल संरचना में एक आम नागरिक अगर कोई शिकायत लेकर पहुंचता है तो वह टालमटोल या फिर संबंधित कर्मचारी या अधिकारी की उदासीनता की वजह से अक्सर हार जाता है, टूट जाता है। कई बार भ्रष्टाचार की वजह से भी ऐसी परिस्थिति सामने आती है। यह स्थिति किसी भी सरकार और उसके तंत्र के लिए एक बड़ी विडम्बना है कि जो व्यवस्था आम लोगों को सुविधा मुहैया कराने और उसकी शिकायतों पर गौर करके उसका निपटारा करने के लिए बनायी गई है, उसी की वजह से किसी को हताश होकर आत्मदाह की कोशिश जैसा अतिवादी कदम उठाना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में इससे पहले भी शिकायत पर सुनवाई नहीं होने की वजह से कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं। सवाल है कि अगर राज्य सरकार और उसके संबंधित महकमे अपने कामकाज में सुशासन, पारदर्शिता और समय पर दायित्व पूरा करने के साथ जनता को आश्वस्त करते हैं, तो किसी नागरिक के सामने अपनी शिकायतें नहीं सुने जाने की वजह से जान देने या इसकी कोशिश करने की नौबत क्यों आती हैं?
हर स्तर पर नियंत्रण नहीं होकर सर्वोपरि नियंत्रण होना चाहिए। हर स्तर पर नियंत्रण रखने से, सारी शक्ति नियंत्रण को नियंत्रित करने में ही लग जाती है। नियंत्रण और अनुशासन में फर्क है। नीतिगत नियंत्रण या अनुशासन लाने के लिए आवश्यक है सर्वोपरि स्तर पर आदर्श स्थिति हो, तो नियंत्रण सभी स्तर पर स्वयं रहेगा और वास्तविक रूप में रहेगा मात्र ऊपरी तौर पर नहीं। अधिकार किसी के कम नहीं हों। स्वतंत्रता किसी की प्रभावित नहीं हो। पर इनकी उपयोग में भी सीमा, समयावधि और संयम हो।
कानूनी व्यवस्था में गलती करने पर दण्ड का प्रावधान है, लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था में कोई दण्ड का प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि किसी एक व्यक्ति को संपूर्ण अधिकार देने में हिचकिचाहट रहती है। हर स्तर पर दायित्व के साथ आचार संहिता अवश्य हो। दायित्व बंधन अवश्य लायें। निरंकुशता नहीं। आलोचना भी हो। स्वस्थ आलोचना, पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को जागरूक रखती है। पर जब आलोचक मौन हो जाते हैं और चापलूस मुखर हो जाते हैं, तब फलित समाज को भुगतना पड़ता है।
आज हम अगर दायित्व स्वीकारने वाले समूह के लिए या सामूहिक तौर पर एक संहिता का निर्माण कर सकें, तो निश्चय ही प्रजातांत्रिक ढांचे को कायम रखते हुए एक मजबूत, पारदर्शी, शुद्ध व्यवस्था संचालन की प्रक्रिया बना सकते हैं। हां, तब प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों को मुखर करना पड़ेगा और चापलूसों-लापरवाहों को हताश, ताकि सबसे ऊपर अनुशासन और आचार संहिता स्थापित हो सके अन्यथा अगर आदर्श ऊपर से नहीं आया तो क्रांति नीचे से होगी। जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है। काम कम हो, माफ किया जा सकता है, पर आचारहीनता एवं गैरजिम्मेदारी तो सोची समझी गलती है- उसे माफ नहीं किया जा सकता।
''सिस्टम'' की रोग मुक्ति, स्वस्थ समाज एवं प्रशासन का आधार होगा। राष्ट्रीय चरित्र एवं सामाजिक चरित्र निर्माण के लिए प्रशासन से जुड़े कर्मचारियों एवं अधिकारियों को आचार संहिता से बांधना ही होगा, अन्यथा भोले-भाली जनता आत्महत्या को विवश होती रहेगी। दो राहगीर एक बार एक दिशा की ओर जा रहे थे। एक ने पगडंडी को अपना माध्यम बनाया, दूसरे ने बीहड़, उबड़-खाबड़ रास्ता चुना। जब दोनों लक्ष्य तक पहुंचे तो पहला मुस्कुरा रहा था और दूसरा दर्द से कराह रहा था, लहूलुहान था। हमारा प्रशासनिक ढांचा राजमार्ग बने, उबड़-खाबड़ बीहड़ नहीं। शासन-प्रशासन को जवाबदेही तो लेनी ही होगी। किसी काम या शिकायत के निपटारे के लिए एक निर्धारित अवधि एवं न्यूनतम प्रक्रिया होनी चाहिए। सरकार अगर खुद को जनता के प्रति जिम्मेदार मानती है तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शासन-तंत्र में आम लोगों की शिकायतों का निपटारा या जरूरत के काम समय पर पूरे हों। शासकीय कामकाज में टालमटोल, उदासीनता या भ्रष्टाचार सरकार में जनता का भरोसा कमजोर करते हैं। शासन-प्रशासन से जुड़ी शक्तियां अपने कामकाज की शैली में पारदर्शिता, त्वरता एवं ईमानदारी के कोरे दावे ही नहीं करें, बल्कि प्रक्रिया भी प्रस्तुत करें।
-ललित गर्ग