Gyan Ganga: गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- बिना किसी आशा या उम्मीद के दूसरों की सेवा कर अपना ऋण चुकाएँ

By आरएन तिवारी | Jan 08, 2021

अच्छे विचार ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है, क्योंकि धन और बल किसी को भी गलत राह पर ले जा सकता है किन्तु अच्छे विचार सदैव ही अच्छे काम के लिए प्रेरित करते हैं। 


आइए ! गीता प्रसंग में चलें- पिछले अंक में भगवान श्री कृष्ण ने अपने परम मित्र अर्जुन को संसार के शोक सागर से उबारने के लिए इंद्रियों को वश में करते हुए बुद्धिमानी पूर्वक निष्काम कर्म करने का उपदेश दिया था।


भगवान की बात सुनकर अर्जुन दुविधा में पड़ गए। अपनी दुविधा दूर करने के लिए उन्होंने भगवान से यह प्रश्न पूछा-

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अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ 


अर्जुन ने कहा– सभी जन की याचना पूरी करने वाले हे जनार्दन! यदि आप निष्काम-कर्म की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर मुझे इस भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाना चाहते हैं? 


व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥ 


आपके अनेक अर्थ वाले शब्दों से मैं दुविधा में पड़ गया हूँ। मेरी बुद्धि काम नहीं कर पा रही है, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र कल्याणप्रद हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे मैं उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। 


गीता रहस्य से भरा हुआ धर्म शास्त्र है, इसको बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि और मुनि, महात्मा नहीं समझ सके यहाँ तक कि भगवान के सदा निकट रहने वाले परम भक्त अर्जुन की बुद्धि भी लड़खड़ा गई, तो हम साधारण जीव की क्या बात है? ऐसा मान लीजिए कि जो गीता को समझ गया, वह गोविंद को समझ गया। वास्तव में श्रीमद्भगवत गीता मनुष्य को दूसरों की मदद करने (परमार्थ सिद्धि) की कला सिखाती है। भगवान जानते हैं कि अर्जुन के धर्म युद्ध करने से न केवल अर्जुन बल्कि सम्पूर्ण समाज लाभान्वित होगा। 


यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥


अर्जुन शब्द का अर्थ होता है स्वच्छ। यहाँ भगवान का यह अभिप्राय है कि अर्जुन तुम्हारा हृदय तो अत्यंत स्वच्छ और निर्मल है, फिर तुम्हारे मन में ऐसी दुविधा और संदेह क्यों? 


हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

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मनुष्य का ऐसा स्वभाव होता है कि जिसमें उसको अपना स्वार्थ दिखाई देता है, उस काम को वह बड़ी तत्परता से करता है, किन्तु वही कर्म उसके लिए बंधन का कारण बन जाता है। इसलिए इस बंधन से छुटकारा पाने के लिए कर्मयोग की बड़ी जरूरत है। कर्मयोग में सभी कर्म केवल दूसरों के लिए किए जाते हैं, अपने लिए कदापि नहीं। हमें यह नहीं समझना चाहिए कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें, बल्कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे हमें तो अपने कर्तव्य द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। हमारे जितने भी सांसरिक संबंध हैं- माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र यथा योग्य सबकी सेवा करनी चाहिए। अपना सुख लेने के लिए ये संबंध नहीं हैं। उनसे कोई आशा रखना या उन पर अपना अधिकार जमाना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारने के लिए उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। इसलिए निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें। सूर्य और चंद्रमा शाश्वत निष्काम कर्मयोगी हैं। 


किन्तु इस कलियुग में कर्मयोगी बनना आसान काम नहीं है। इसके लिए आदत और अभ्यास की जरूरत है। मुझे एक घटना याद आ रही है। एक साधु महात्मा अपने शिष्य के साथ भिक्षा मांगने गए, घर से एक नव वधू निकली वह धर्म-कर्म में विश्वास नहीं रखती थी, उसने चूल्हे में से एक मुट्ठी राख उठाई और बाबा की झोली में डाल दी। झोली में पहले से रखा हुआ सब आटा खराब हो गया। बाबा ने उसको पुत्रवती, सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। चेले ने आश्चर्य से पूछा- सारा आटा बिगाड़ दिया और आपने इतना अच्छा आशीर्वाद दे दिया। बाबा बोले— इसने कम से कम देना तो सीखा, देने की आदत शुरू तो हुई। जीव जब कर्म करने का प्रयास करता है, तो परमात्मा उसकी सहायता करते हैं।   

 

श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...


जय श्रीकृष्ण...


-आरएन तिवारी

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