आप देश की सबसे बड़ी नौकरी (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के लिए साक्षात्कार देने आये हैं। क्या आपको पता नहीं था कि साक्षात्कार के लिए सूट पहनना अनिवार्य है? जी श्रीमान मैं यह जानता हूँ। लेकिन इस नौकरी के माध्यम से मैं जिस राष्ट्र की सेवा करना चाहता हूँ, वहां के अस्सी प्रतिशत लोग यही वेशभूषा पहनते हैं। इसलिए धोती कुर्ता पहनने में मुझे किसी भी प्रकार की कोई ग्लानी महसूस नहीं होती। पर इस पद पर नियुक्त होने के लिए आपका, दूसरे लोगों से अलग दिखना जरुरी है। क्षमा कीजिए, मैं इस पद के लिए बाहरी वेशभूषा की अपेक्षा आतंरिक गुणों का महत्व अधिक समझता हूँ। जब परिणाम आया तो दीनदयाल जी का नाम तालिका में सबसे ऊपर था। किंतु नौकरी करना तो उनकी वृत्ति में था ही नहीं। सदा अव्वल आने वाले दीनदयाल ने अपने करियर की चिंता कभी भी नहीं की। उनका केवल एक ही स्वप्न रहा, अपना समस्त जीवन समाज को अर्पण करना। और इसी एक मंत्र को उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक जिया भी।
वे सनातन धर्म डिग्री कॉलेज, कानपुर में बीए के छात्र थे, वहीं पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और स्वयंसेवक बने। उन्होंने संघ के आजीवन व्रती प्रचारक बनकर राष्ट्र सेवा करने की शपथ ली। लखीमपुर जिले में 1942 में उन्होंने प्रचारक के रुप में जीवन –यात्रा का श्रीगणेश किया। सन 1945 में वे उत्तर प्रदेश के सह प्रांत प्रचारक बने। एक दिन लखीमपुर में उन्होंने अपने साथी अन्नाजी वैद्य से अपने प्रमाण-पत्रों से भरा बक्सा लाने को कहा। पंडित जी, ये प्रमाण-पत्र तो आपकी मेधा और उज्ज्वल यक्ष के साक्षी है। लाओ, इसमें से एक पत्र निकाल लेता हूँ। अब इन सबको आप जला दीजिए। मैंने अपना संपूर्ण जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया है, इसलिए इन डिग्रियों की अब मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। दीनदयालजी ने राष्ट्र की एकता, अखंडता, वैभवशाली अतीत और आन-बान को उजागर करता एक उपन्यास ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ एक ही बैठक में लिख डाला। इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा- “यूरोपियन विद्वानों द्वारा प्रयत्नपूर्वक तथा उनका अंधानुकरण करने वाले भारतीय विद्वानों ने जो अंधकार फैलाया है, उसे नष्ट करने के लिए यह एक शोधपूर्ण कृति है”। अपने दूसरे उपन्यास ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ में उन्होंने भारत को विश्व–पटल पर वही स्थान दिलाने का प्रयास किया, जो उसे वैदिक युग में प्राप्त था। इसमें उन्होंने लिखा- “प्राचीन काल से ही हम सब एक ही जल प्रवाह के जलकण रहे हैं, जिसका नाम ही आर्य है, हिंदू है। यह हमारा गौरव चिन्ह है। इसी के लिए हम अपनी संपूर्ण शक्तियां समर्पित करें”।
दीनदयालजी ने संघ की विचारधारा के प्रसार के लिए ‘राष्ट्रधर्म’ प्रकाशन की आधारशिला रखी। उसके पश्चात् ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक और ‘स्वदेश’ दैनिक का भी प्रकाशन कार्य प्रारंभ किया। पंडित जी किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं समझते थे। अखबारों के बंडल तैयार हैं, लेकिन कोई कार्यकर्त्ता अभी आया नहीं। ट्रेन का समय भी हो रहा है। मैं स्वयं ही साइकिल पर लादकर स्टेशन पहुंचा देता हूँ। अरे! आप संपादक होकर भी स्वयं ही डिस्पेचर का काम कर रहे हैं। आश्चर्यजनक है, आपकी कर्तव्यपरायणता और कार्य-साधना। ऐसे विराट व्यक्तित्व के धनी थे उपाध्याय जी।
दीनदयाल उपाध्याय जिन आदर्शों के लिए पैदा हुए थे, उन्हीं को मूर्त रुप देने के लिए उनका राजनीति में प्रवेश हुआ। उन्होंने आजीवन देशसेवा का व्रत लिया। देश को स्वाधीनता दिलाने, सर्व-संपन्न बनाने, शक्तिशाली राष्ट्र के रुप में खड़ा करने और संपूर्ण समाज में समरसता लाने के लिए जीवनपर्यंत मनसा, वाचा, कर्मणा अविराम साधना के पथ को अपनाया। उनको भारतीय जनसंघ जैसे मजबूत अखिल भारतीय राजनीतिक संगठन का महामंत्री बनाया गया। कुछ वर्षों बाद वे जनसंघ के अध्यक्ष भी बनाए गए। राजनीति में आने के बाद भी वे नेता की तरह नहीं बल्कि दार्शनिक की तरह ही रहे। उन्होंने ईमानदारी, कटुता रहित मानवीय आधार पर राजनीति करने की बात को सदैव प्राथमिकता पर रखा। उनका सदा सोचना था, कि जब तक पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का विकास नहीं होता, हमारा देश विकास नहीं कर सकता। मानव मात्र के कल्याण का मार्ग तभी प्रशस्त हो सकता है, जब उसका सर्वांगीण विकास हो। मानव तो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का सम्मिलित रुप है। पश्चिम की उपभोगवादी जीवन-शैली भारतीय शैली से अलग है। पश्चिम की समाजवाद और पूंजीवाद की विचारधाराओं में मनुष्य केवल एक आर्थिक इकाई है। यह खंडित और अपर्याप्त दृष्टिकोण है और इससे एकांगी पक्षों का जन्म हुआ। भारतीय संस्कृति में मनुष्य की आर्थिक जरुरतों के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक और मानसिक जरुरतों पर भी ध्यान दिया गया है। भारतीय चिंतन एकात्म मानव की संतुलित जीवन-शैली को मानता है, इसलिए यह चिरस्थायी है।
पंडित दीनदयालजी ने राष्ट्र, राज्य और देश को अलग बताया, ‘जिस प्रकार ‘राष्ट्र’ की ‘राज्य’ से भिन्न सत्ता है, उसी प्रकार ‘राष्ट्र’ और ‘देश’ भी एक नहीं है। एक निश्चित भूमिखंड और उसमें निवास करने वाला मानव समुदाय मिलकर देश कहा जाता है। भूमिखंड और जनसमुदाय दोनों को हम भली प्रकार देख, सुन और समझ सकते है। इसलिए जब हम राष्ट्र का वर्णन करने लगते हैं तो हमें इसी दृश्यमान देश का वर्णन करना पड़ता है। यही कारण है कि देश और राष्ट्र समानार्थी बनकर उपस्थित होते हैं। जिस प्रकार ‘राज्य’ राष्ट्र का प्रतिनिधि बनकर हमें दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार देश भी राष्ट्र की अभिव्यक्ति का ठोस आधार बनकर हमारे सामने उपस्थित होता है। यहाँ तक कि बिना देश के हम किसी राष्ट्र की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह सूक्ष्म रहस्य हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जिस प्रकार देश एक दृश्यमान सत्ता है, उसी प्रकार ‘राष्ट्र’ एक दृश्यमान सत्ता है। देश दिखाई पड़ता है, राष्ट्र दिखाई नहीं पड़ता। ठीक वैसे ही जैसे शरीर दिखाई पड़ता है, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती’।
वो अपने कार्यकर्ताओं को सदा कहा करते थे, कि “भारतीय जनसंघ का निर्माण देश की अनेक पार्टियों में अपनी भी एक नई पार्टी होनी चाहिए, इस दृष्टि से नहीं हुआ, बल्कि समग्र भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए एक अभियान के रुप हुआ है। इसलिए हमारी प्रेरणा केवल राजकीय नहीं बल्कि महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय तथा महात्मा गांधी से आती है। इन सभी से प्रेरणा लेकर राष्ट्र उत्थान के इस कार्य में हम लगे हुए है। यह उनके विशुद्ध नैतिक आचरण एवं आग्रह का परिणाम था कि भारतीय जनसंघ की पहचान Party with Difference के रुप में खड़ी हुई। राष्ट्र की रक्षा में, राष्ट्र के परंपरागत जीवन-मूल्यों की सुरक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, इसके वे स्वयं उदाहरण बन चुके थे। और इसलिए उनका आत्मकथन कि ‘मैं राजनीति में संस्कृति का दूत हूँ’ अत्यंत यथार्थ है। अक्सर लोग पद्चिन्हों पर चलते हैं, लेकिन कुछ विरले व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो अपनी कर्मठता, दूरदृष्टि, ध्येयवादिता व मूल्यों के प्रति निष्ठा के द्वारा स्वयं पद्चिन्ह बनाते हैं, ऐसे ही एक जीवन का नाम है पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी।
- डॉ. पवन सिंह मलिक
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक है)