पैकिंग बिकती है (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Dec 03, 2021

सम्मान खुला या खुले आम बिक सकता है लेकिन सामान तो पैकिंग में ही बिकता है। बढ़िया पैकिंग किसी भी सामान या विचार को खूब बेच सकती है। लोग पैकिंग देखते देखते सामान के मालिक हो लेते हैं।  पैकिंग एक खूबसूरत व्यक्तित्व की मानिंद होती है जो बहुत आसानी से आकर्षित कर लेती है। सामान कम की जगह ज़्यादा बिक जाता है। चमकीले रंग पैकिंग को ज्यादा बिकाऊ बनाते हैं। इंसानियत की बिक्री की तरह यहां डिस्काउंट भी नहीं देना पड़ता, लाइन लग जाती है लेने वालों की। प्रभावोत्पादक पैकिंग इतनी स्वीकृत हो चुकी है कि घटिया, सड़े गले विचार, किसी भी किस्म का आचार व्यवहार सब बेचा जा रहा है। उत्कृष्ट पैकिंग के कारण नकली सामान असली को मात दे रहा है और हिन्दी चीनी भाई भाई की विश्व कुटुम्बकम की भावना पुन स्थापित कर रहा है। 


विदेशों में तो नकली हस्ताक्षर भी करोड़ों में बिक रहे हैं। हमारे यहां तो असली बिकने को तैयार हैं और खरीदने वाले पहले से बेकरार बैठे हैं। ऐसा काम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पैकिंग में ही किया जाता है। बढ़िया पैकिंग में कम माल भी ग्राहक की आँखें चुंधिया देता है। वह अलग बात है हम सब्जी मंडी में मोलभाव करें क्यूंकि सब्जी खुली बिकती है। कितनी ही जगह खजूर, कीवी, अंगूर, मशरूम वगैरा पोली पैकिंग में बिक रहे हैं तभी मोलभाव नहीं करते और कार्ड से भुगतान कर अपनी छील उतरवाने का शुक्रिया भी अदा करते हैं। ऐसा लगता है पैकिंग आराम भी देती है यदि पैकिंग न हो तो शायद कुछ चीज़ें बिकनी बंद हों जाए।  काफी लोग खूब नाराज़ हो जाएं कि पैकिंग क्यूं नहीं की। वैसे तो भावनाएं, प्रेम, मुहब्बत, विशवास, आश्वासन जैसी वस्तुएं यहां तक कि नफरत, ईर्ष्या, द्वेष भी सब मनमानी पैकिंग में ही लिए और दिए जा रहे हैं। 


धर्म, मज़हब की पैकिंग हमेशा शान बढ़ाऊ रही है जिसके साथ अस्त्र शस्त्र और वस्त्र मुफ्त दिए जाते हैं। अनेक बार लाजवाब पैकिंग के कारण इनकी मांग बहुत बढ़ जाती है और कीमत आसमान छूती है। सामाजिक धुलाई के लिए धर्म की पैकिंग अनेक बार दिमाग के साबुन में लपेट कर की जाती है ऐसी कि वह ज़िंदगी धो डालती है। सोनपापड़ी की पैकिंग इतनी टिकाऊ होती है कि दर्जनों जगह यात्रा करती है लेकिन खुलती नहीं पैकिंग। पैकिंग वह दिलकश और टिकाऊ अदा है कि दो सौ तेतीस ग्राम की चाकलेट तीन सौ पचास रूपए में ठाठ से बिकती है और गर्व से खरीदी जाती है। थोड़ा हिसाब कर लें तो एक ग्राम चाकलेट एक रुपया पचास पैसे जो जगह के बदलाव के कारण और भी महंगी हो सकती है। इस तरह की ठोस और पैकिंग से अत्याधिक कचरा पैदा हो रहा है वह बात दीगर है कि पर्यावरण से सम्बंधित दो सौ से ज्यादा कड़क क़ानून स्वच्छ हवा खा रहे हैं। आकर्षक नारे, योजनाएं और क्रियान्वन सब प्रभाव उगाऊ पैकिंग में है। पैकिंग तो ऐसी हो गई है मानो एक ठोस संकल्प दिया जा रहा हो जिसे सामने वाला लेने से इन्कार नहीं कर सकता उसे चुपचाप उसे स्वीकार करना ही है। ज़माना पैकिंग का है  है अब तो आत्मप्रशंसा भी अच्छे से पैक कर पेश करनी पड़ती है।


- संतोष उत्सुक

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