यूसीसी पर उत्तराखंड ने जो सार्थक पहल की है उससे दूसरे राज्यों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए

By ललित गर्ग | Feb 06, 2024

उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने समान आचार संहिता (यूसीसी) के ड्राफ्ट बिल को मंजूरी दे दी और इसे विधानसभा में पेश भी कर दिया। अब चार दिनों के विशेष सत्र में इसे आसानी से पारित भी कर दिया जायेगा। इस तरह देश को आजादी मिलने के बाद यूसीसी लागू करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बन जाएगा। इससे पहले गोवा में यह लागू है। आजादी के अमृतकाल में समानता की स्थापना के लिये इससे अपूर्व वातावरण निर्मित होगा। यह उत्तराखण्ड ही नहीं, समूचे भारत की बड़ी जरूरत है। समानता एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक लोकतांत्रिक मूल्य है। इस मूल्य की प्रतिष्ठापना के लिये समान कानून की अपेक्षा है। यूसीसी देश की राजनीति के सबसे विवादित मुद्दों में रहा है। हालांकि संविधान में भी नीति निर्देशक तत्वों के रूप में इसका उल्लेख है। इस लिहाज से राजनीति की सभी धाराएं इस बात पर एकमत रही हैं कि देश में सभी पंथों, आस्थाओं से जुड़े लोगों पर एक ही तरह के कानून लागू होने चाहिए। राष्ट्र का कोई भी व्यक्ति, वर्ग, सम्प्रदाय, जाति जब-तक कानूनी प्रावधानों के भेदभाव को झेलेगा, तब तक राष्ट्रीय एकता, एक राष्ट्र की चेतना जागरण का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। उत्तराखण्ड एवं गोवा के बाद असम और गुजरात जैसे राज्य भी समान आचार संहिता को लागू करने की तैयारी में हैं। भारतीय जनता पार्टी एवं नरेन्द्र मोदी सरकार यूसीसी लागू करने की मांग जोरदार तरीके से करती आ रही है और इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से उठाया है। भारतीय न्यायपालिका की तरफ से भी बार-बार इसे लागू करने की जरूरत बताई जा रही है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि देश में इसे लेकर जागरूकता हाल के दिनों में बढ़ी है और इसका श्रेय भाजपा को दिया जाना चाहिए।


समान नागरिक संहिता दरअसल एक देश एक कानून की अवधारणा पर आधारित है। यूनिफॉर्म सिविल कोड के अंतर्गत देश के सभी धर्मों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था का प्रस्ताव है। भारत के विधि आयोग ने राजनीतिक रूप से अतिसंवेदनशील इस मुद्दे पर देश के तमाम धार्मिक संगठनों से सुझाव आमंत्रित किए थे। यूसीसी में संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन, विवाह, उत्तराधिकार, तलाक और गोद लेना आदि को लेकर सभी के लिए एकसमान कानून बनाया जाना है। पिछले कुछ समय से इस पर अच्छी खासी बहस चली है। लिहाजा एक-एक करके अलग-अलग राज्यों में इसे लागू करने और वहां के अनुभव के आधार पर आगे बढ़ने का ख्याल गलत नहीं कहा जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड विधानसभा में इसे पेश किए जाने और वहां बहस शुरू होने के बाद इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर रोशनी पड़ेगी और सभी दुविधाएं, शंकाएं एवं संदेह दूर हो जाएंगे। जो अन्य राज्यों के लिये लागू करने का आधार बनेगी।

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भारतीय संविधान के मुताबिक भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है, जिसमें सभी धर्मों व संप्रदायों (जैसे- हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, आदि) को मानने वालों को अपने-अपने धर्म से सम्बन्धित कानून बनाने का अधिकार है। भारत में दो प्रकार के पर्सनल लॉ हैं। पहला है हिंदू मैरिज एक्ट 1956 जो कि हिंदू, सिख, जैन व अन्य संप्रदायों पर लागू होता है। दूसरा, मुस्लिम धर्म को मानने वालों के लिए लागू होने वाला मुस्लिम पर्सनल लॉ। ऐसे में जबकि मुस्लिमों को छोड़कर अन्य सभी धर्मों व संप्रदायों के लिए भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत बनाया गया हिंदू मैरिज एक्ट 1956 लागू है तो मुस्लिम धर्म के लिए भी समान कानून लागू होने की बात की जा रही है, जो प्रासंगिक होने के साथ नये बन रहे भारत की अपेक्षा है। अभी मीडिया में छन-छन कर जो सूचनाएं आ रही हैं, उनके मुताबिक शादी, तलाक, अडॉप्शन से जुड़े कानूनों में एकरूपता के जो प्रावधान हैं, वे यूसीसी की मूल अवधारणा के अनुरूप ही हैं। बहरहाल, उत्तराखण्ड राज्य सरकार की यह एक बड़ी पहल है और इस पर अमल की प्रक्रिया ही नहीं, इसके नतीजों पर भी पूरे देश की नजरें रहेंगी।


आज जबकि भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है, जी-20 देशों की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत कर चुका है, भारत की अहिंसा एवं योग को दुनिया ने स्वीकारा है, विश्व योग दिवस एवं विश्व अहिंसा दिवस जैसे आयोजनों की संरचना हुई है। इन सब सकारात्मक स्थितियों को देखते हुए भारत की कानून विषयक विसंगतियों को दूर करना अपेक्षित है। क्योंकि विश्व के कई देशों में समान नागरिक संहिता का पालन होता है। इन देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किये, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र, अमेरिका, आयरलैंड, आदि शामिल हैं। इन सभी देशों में सभी धर्मों के लिए एकसमान कानून है और किसी धर्म या समुदाय विशेष के लिए अलग कानून नहीं हैं। लेकिन भारत में राजनीतिक फायदे के लिए तुष्टिकरण का ऐसा खेल खेला गया, जो विविधता में एकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन को तार-तार कर रहा है। निजी कानूनों के कारण कहीं-कहीं विसंगति के हालात भी पैदा हो रहे हैं। सामुदायिक घटनाओं को भी राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है, घटना को देखने का यह नजरिया वास्तव में वर्ग भेद को बढ़ावा देने वाला है।


देश का मुस्लिम भी समाज का एक हिस्सा है, जिसे इसी रूप में प्रस्तुत करने की परिपाटी चलन में आ जाए तो भेद करने वाले विचारों पर लगाम लगाई जा सकती है। लेकिन हमारे देश के कुछ राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को ऐसे भ्रम में रखने के लिए प्रेरित किया कि वह भी ऐसा ही चिंतन करने लगा, जबकि सच्चाई यह है कि आज के मुसलमान बाहर से नहीं आए, वे भारत के ही हैं। परिस्थितियों के चलते उनके पूर्वज मुसलमान बन गए। वे सभी स्वभाव से आज भी भारतीय हैं और विचार से सनातनी हैं, लेकिन देश के राजनैतिक दल अपने राजनीतिक लाभ एवं वोट बैंक के चलते मुसलमानों के इस सनातनी भाव को प्रकट करने का अवसर नहीं दे रहे। मुस्लिम पर्सनल लॉ में अनेक विसंगतियां हैं, जैसे शादीशुदा मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को महज तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता था। इसके दुरुपयोग के चलते सरकार ने इसके खिलाफ कानून बनाकर जुलाई 2019 में इसे खत्म कर दिया है। तीन तलाक बिल पास होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि सदियों से तीन तलाक की कुप्रथा से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिला है।


वर्तमान में हम देख रहे हैं कि कुछ लोग समान नागरिक कानून का विरोध कर रहे हैं, जबकि मुस्लिम समाज की महिलाएं इस कानून के समर्थन करने के लिए आगे आ रही हैं। 1985 में शाहबानो केस के बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड का मामला सुर्खियों में आया था। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद शाहबानो के पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि पर्सनल लॉ में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद में बिल पास कराया था। इस कानून के समर्थकों का मानना है कि अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे। अगर हम यह चिंतन भारतीय भाव से करेंगे तो स्वाभाविक रूप से यही दिखाई देगा कि समान नागरिक कानून देश और समाज के विकास का महत्वपूर्ण आधार बनेगा।


-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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