क्या पत्थरबाजों से प्रेरणा ले रहा है विपक्ष ? सरकार के हर कदम का विरोध क्यों ?

By राकेश सैन | Dec 26, 2018

गत सप्ताह तीव्रगामी गाड़ी 'ट्रेन-18' के नई दिल्ली और आगरा के बीच हुए ट्रायल के दौरान कुछ लोगों ने पत्थरबाजी कर शीशे तोड़ दिए। स्वाभाविक है कि इसके पीछे सिवाय शरारत या अनावश्यक विरोध या फिर मानसिक विकृति के और कोई कारण नहीं हो सकता। लगता है कि इसी पत्थरबाज सी मानसिकता का शिकार विपक्ष भी हो चुका है। सरकार के हर निर्णय पर पत्थरबाजी करने को मानो विपक्ष ने अपना संवैधानिक दायित्व समझ लिया है और इतना भी ध्यान नहीं रखा जा रहा कि उनके इस आचरण से देश को कितना नफा-नुक्सान होने जा रहा है। भारत सरकार ने सूचना प्रोद्यौगिकी कानून से संबंधित अधिसूचना 09 जून, 2000 को प्रकाशित की जिसकी धारा 69 में इस बात का जिक्र है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के खिलाफ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उसके कंप्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं। कानून की उपधारा एक में निगरानी के अधिकार किन एजेंसियों को दिए जाएंगे, यह सरकार तय करेगी। उपधारा दो में कोई अधिकार प्राप्त एजेंसी किसी को सुरक्षा से जुड़े मामलों में बुलाती है तो उसे एजेंसियों को सहयोग करना होगा और सारी जानकारियां देनी होंगी। उपधारा तीन में यह स्पष्ट किया गया है कि अगर बुलाया गया व्यक्ति एजेंसियों की मदद नहीं करता है तो वो सजा का अधिकारी होगा। इसमें सात साल तक के जेल का भी प्रावधान है।

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सरकार ने इस कानून में संशोधन करते हुए दस जांच एजेंसियों को किसी के भी कंप्यूटर की जांच करने का अधिकार दे दिया है। कांग्रेस ने सरकार के आदेश को नागरिकों की निजी आजादी पर सीधा हमला करार दिया और आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी सरकार देश को 'निगरानी राज' एवं 'पुलिस राज' में तब्दील कर रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने कहा कि भारत में ''ऑर्वेलियन शासन कायम होने वाला है।'' देश की राजनीति में अपरिचित यह 'ऑर्वेलियन' शब्द किसी ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के बारे में बताने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसमें सरकार लोगों की जिंदगी के हर हिस्से को नियंत्रित करना चाहती है। प्रसिद्ध साहित्यकार जॉर्ज ऑर्वेल ने अपने उपन्यास 'नाइनटीन एटी फोर' में इससे मिलती-जुलती स्थिति को चित्रित किया। इन आरोपों के बीच विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि इस प्रकार की निगरानी के प्रावधान करने वाले सूचना प्रौद्योगिकी कानून को कांग्रेस की अगुवाई वाला संप्रग लाया था और नवीनतम आदेश में एजेंसियों को इस प्रकार की निगरानी के लिए नामित करके इसे केवल ज्यादा जवाबदेह बना दिया गया है। विधि मंत्री ने कहा, ''संप्रग ने कानून बनाया था। हमने उसे जवाबदेह बनाया है।'' उन्होंने निजता की चिंता से जुड़े प्रश्नों पर जवाब देते हुए कहा कि सरकार गोपनीयता की रक्षा करेगी लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता नहीं हो सकता।

 

 

देश में हाल ही में घटित घटनाएं बताती हैं कि सूचना क्रांति विकास की गति बढ़ाने के साथ-साथ देश विरोधियों के हाथों में नया हथियार भी साबित हो रही है। इन्हीं कंप्यूटरों की जांच से ही विगत माह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के षड्यंत्र का खुलासा हो पाया जिसके आरोपी पांच शहरी माओवादी अभी न्यायिक हिरासत में चले आ रहे हैं। दुनिया के लिए नये खतरे के रूप में उभरा आईएस किस तरह सूचना तकनोलोजी को हथियार बना कर भारतीय युवाओं को भ्रमित कर उनकी भर्ती कर रहा है इसका खुलासा समय-समय पर होता रहा है। आईएस के चंगुल में फंसे युवक बताते रहे हैं कि वे सोशल मीडिया के माध्यम से उनके जाल में फंसे। अभी पंजाब में ही खुलासा हुआ कि पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई कैसे युवाओं को खालिस्तानी आतंकवाद की भट्ठी में झोंकने की कोशिश कर रही है और सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं के मनों में जहर भरा जा रहा है। विदेश में बैठे खालिस्तानी आका भी इसी के सहारे पंजाब के युवाओं को अपने ही देश व समाज के खिलाफ भड़का रहे हैं। लश्कर व जैश जैसे खतरनाक संगठनों ने जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त पंजाब में सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी पकड़ बना ली है। इस काम में केवल अपराधिक पृष्ठभूमि के लोग ही नहीं बल्कि साधारण युवा भी संलिप्त पाए गए हैं। अगर सरकार इस कानून के दायरे में अपराधियों के साथ-साथ नए संदिग्धों को भी लाना चाहती है तो कांग्रेस को भला इससे क्या आपत्ति होनी चाहिए। सरकार जब इसका भरोसा दिलवा चुकी है कि सर्वोच्च न्यायालय की भावना व आदेश के अनुरूप इस कानून से नागरिकों के निजता का उल्लंघन नहीं होगा और प्रदेश के मुख्य सचिव के आदेश के बाद ही किसी की जांच होगी तो इससे विपक्ष की चिंता का कोई आधार दिखाई नहीं पड़ता।

 

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ठीक ही कहा गया है कि निजता की आड़ में अपराधियों व देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। वैसे भी यह आदेश उस कानून का हिस्सा है जिसे साल 2009 में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा की सरकार ने बनाया था, के नियम चार के साथ सूचना प्रोद्यौगिकी अधिनियम 2000 की धारा 69 (1) की शक्तियों का प्रयोग करते हुए सरकार ने दस एजेंसियों के अधिकार में वृद्धि की है। इसका विरोध करते समय पी. चिदंबरम को स्मरण रहना चाहिए कि इसी कानून से उनके कार्यकाल में नीरा राडिया प्रकरण का भांडाफोड़ हुआ और उस समय चिदंबरम ने इसे उचित बताया था। पाठकों को स्मरण होगा कि राडिया टेप विवाद व्यापारिक घरानों के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला एक टेलीफोन पर बातचीत का टेप है जिसमें नीरा राडिया नामक दलाल का कई राजनेताओं, पत्रकारों एवं व्यावसायिक घरानों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों से टेलीफोन पर हुई बातचीत है जिसे भारत के आयकर विभाग ने 2008-09 में टेप किया था। नीरा राडिया तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की परिचित एवं विश्वस्त थी तथा वैष्नवी कम्युनिकेशन्स नामक एक सार्वजनिक सम्बन्ध संस्था का संचालन करती थी। जब कांग्रेस यह कानून लाई तो यह उचित और आज यह एमरजेंसी लगाने वाला कैसे बन गया ?

 

आज से लगभग पौने पांच साल पहले साल 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद देखने में आया है कि विपक्ष मुद्दों की गहराई में जाने, सरकार की तथ्यों के आधार पर आलोचना करने, सुझाव देने, संशोधन करवाने की बजाय पत्थरबाजी ही करता आ रहा है। रोचक बात तो यह है कि 1975 में देश में आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस पार्टी को सरकार के हर कदम में अघोषित अपात्काल ही दिखाई दे रहा है। विपक्ष पत्थरबाजी की मानसिकता से कब उबरेगा ? उक्त मुद्दे पर सरकार का भी दायित्व बनता है कि वह देश को सुनिश्चित करे कि जांच के अधिक अधिकार मिलने के बाद आम नागरिकों की निजता पर कोई हमला नहीं होगा और नागरिकों को अपने अधिकार की सुरक्षा का मजबूत तंत्र भी उपलब्ध करवाना होगा।

 

-राकेश सैन

 

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