किसी ज़माने में प्याज़ ने राजधानी की सरकार गिरा दी थी और अब इसी प्याज़ ने लोगों के स्वादु नखरे ढीले कर दिए हैं। अब नेता भी इतने समझदार हो चुके हैं कि चुनाव जीतने या हरवाने के लिए उचित मुद्दे पहले से पकाकर रखते हैं ताकि वोटर का स्वाद खराब न हो। व्यवहारिक बात करें तो प्याज़ के बिना सब्जी बना सकना आज की ज़रूरत है लेकिन कोशिश यही रहती है कि प्याज़ महंगा होने का रोना चलता रहे और दूसरी सामाजिक समस्याओं को भुला दिया जाए। काफी लोग बिना प्याज़ के स्वादिष्ट खाना बनाते, खाते और खिलाते हैं लेकिन जब किसी अच्छे सुझाव को संज्ञान में लेने की मंशा न हो तो प्याज़ की ज़रूरत कैसे कम हो सकती है। वैसे तो कोई भी काम करना मुश्किल काम ही होता है। पड़ोसियों से सीखने की बात तो दूर, हम ज्यादा प्यार मुहब्बत के कारण अन्य सम्प्रदायों से भी कुछ नहीं सीखना चाहते। वैसे तो हम विश्वगुरु हैं, लेकिन दूसरों के भेद जानकर और मसाला लगाकर परोसने का मज़ा लेने के शौक़ीन हम प्याज़ खाना मुश्किल से ही छोड़ सकते हैं। हालांकि हमने इतिहास को भी प्याज़ बना कर मनमाने तरीके से छील दिया है और साथ साथ हम भूलते जा रहे हैं कि हमारी प्राचीन संस्कृति में हर सवाल का जवाब उपलब्ध है फिर भी विदेश हो आई भारतीय परम्पराओं को ज्यादा महत्व देते हैं। प्याज़ के मामले में यदि हम जापानियों की संयम परम्परा को अपना लें तो हमारी विश्वगुरु की कुर्सी छिन नहीं जाएगी। संयम हमारा भी तो बड़ा गुण है।
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जापान में जो चीज़ ज्यादा मंहगी हो जाती है उसका प्रयोग कम कर दिया जाता है परिणामस्वरूप उस वस्तु के दाम कम हो जाते हैं। आम लोगों द्वारा अपनाया यह संयमित सामाजिक व्यवहार सचमुच नकल करने लायक है। स्वाभाविक है जब ज़रूरत कम हो जाती है तो सप्लाई की ज़रूरत नहीं रहती लेकिन हमारे यहां बिना ज़रूरत के सब कुछ और हर कुछ सप्लाई करना समृद्ध सामाजिक परम्परा है। वैसे तो समाज, धर्म और राज के नायकों ने जनता को सस्ता प्याज़ बना रखा है लेकिन यदि जनता इन्हें भी प्याज़ समझना शुरू कर दे और जीवन भोज में इनका प्रयोग कम या बंद कर दें तो इनके सारे छिलके स्वत उतर जाएं। सरकार संभवत गिरने से बच जाए लेकिन बदनाम निरंतर होती रहे।
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बड़े से बड़े स्टोरियों का धंधा हिल जाए, उनके आर्थिक छिलके भी उतरने लगें और असली प्याज़ सड़ने लगें। नकल संस्कृति को ईमानदारी से अपनाकर गृहणियां बिना प्याज़ के नए स्वाद वाली सब्जियां बनाना सीख लें। यदि ऐसा न कर सकें तो अपने कीमती वोट, जिसके माध्यम से एक से एक दिग्गज नेता जिता या हरा दिए गए हैं, को ही प्याज़ बना लें तो राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक खरीदारों की सारी परतें उधड सकती हैं। यह तीनों मिलकर आम आदमी के छिलके मनमाने तरीके से उतारते रहते हैं और उसे लोकतंत्र की सब्जी मसालेदार बनाने के लिए काट कूटकर डाल दिया जाता है। आम आदमी बोल नहीं पाता बदलते वक़्त ने भी उसकी हालत प्याज़ जैसी ही कर डाली है। बढती महंगाई के ज़माने में उसे थोडा संभल कर, प्याज़ के साथ साथ अपनी दूसरी ज़रूरतों का परीक्षण करना चाहिए।
- संतोष उत्सुक