एक साहित्यकार जब बैंकर होता है तो उसके मस्तिष्क में साहित्य के अतिरिक्त अर्थशास्त्र की चिंताएं भी कहीं न कहीं व्याप्त रहती हैं। दीपक गिरकर एक व्यंग्यकार, लघु कथाकार, समीक्षक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, लेकिन उनका कई सारा लेखन समकालीन राजनीति, आर्थिक, कृषि एवं बैंकिंग विषयों पर सामने आया है। इन दिनों उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक एनपीए एक लाइलाज बीमारी नहीं शीर्षक से प्राप्त हुई है, जिसका प्राक्कथन वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ. जयंतीलाल भंडारी के द्वारा लिखा गया है। इसमें डॉ. भंडारी ने स्पष्ट किया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बैंकिंग क्षेत्र इन दिनों एनपीए की विकराल समस्या से जूझ रहा है, ऐसे वक्त में एनपीए होने के कारण, उनकी रोकथाम और एनपीए खातों के समाधान के विषय पर एक विस्तृत पुस्तक सामने आना बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक में नियामक संस्थाओं, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों, एनफोर्समेंट एजेंसियों, बैंक प्राधिकारियों और अंकेक्षकों की भूमिका, इनकी कार्यप्रणालियों, सीमाओं, चुनौतियों, निष्क्रियताओं, स्वायत्तता और पारदर्शिता पर व्यापक प्रकाश डाला गया है।
इसे भी पढ़ें: उर्दू पत्रकारिता का भविष्य (पुस्तक समीक्षा)
लेखक के अनुसार अभी तक एनपीए नामक बीमारी का बेहतर इलाज खोजने व इसका सर्वोत्तम इलाज करने का प्रयत्न ही नहीं किया गया है। एनपीए की बीमारी को इलाज के साथ ही इसकी रोकथाम के लिए शीघ्र और मजबूत कदम उठाने की आवश्यकता है। एनपीए खातों वाले बड़े कॉर्पोरेट चूककर्ताओं पर बहुत पहले ही सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए थी जिससे यह समस्या इतनी अधिक विकराल रूप धारण नहीं करती। एन्फोर्समेंट एजेंसियां घोटाले होने के बाद घोटालेबाजों के विरूद्ध कार्रवाई प्रारम्भ करने में कई दिन लगा देती हैं। बैंकों द्वारा व्यवस्थित और निरंतर प्रयासों की कमी से गैर निष्पादित आस्तियों और अपलिखित खातों में पर्याप्त वसूली नहीं हो पाती है। देश में क़ानून स्वयं एक निवारक के रूप में कार्य नहीं करता है। न्यायिक क्षमताओं को विकसित करने की अत्यंत जरूरत है।
दीपक लिखते हैं- बैंकों के ऋण प्रदान करने के शिथिल मानकों की वजह से गैर निष्पादित आस्तियों में इतनी अधिक बढ़ोतरी हुई है। बैंक स्टाफ द्वारा ऋण देने के पूर्व ऋणी व जमानतदारों का स्वॉट विश्लेषण (स्वॉट अनैलिसिस) नहीं किया जाता है। जिस तरह से बैंकों की अनुत्पादक आस्तियां बढ़ी हैं और इतनी अधिक राशियों की बैंक धोखाधड़ी हुई है उससे तो ऐसा लगता है कि ऋणी व जमानतदारों द्वारा ही बैंक अधिकारियों का स्वॉट विश्लेषण किया गया है। केवाईसी के अनुपालन में बैंकों द्वारा लापरवाही बरतने के कारण धोखाधड़ी की घटनाएं काफी बढ़ी हैं। केवाईसी में सिर्फ़ कागज़ी खानापूर्ति की जाती है। ऋण आवेदक और जमानतदारों के ट्रैक रिकॉर्ड बाजार रिपोर्ट की विस्तृत रिपोर्ट ठीक उसी तरह से बनाई जानी चाहिए जैसे कि होम्योपैथी के डॉक्टर्स अपने रोगी की विस्तृत फ़ाइल बनाते हैं। ऋणी व जमानतदारों की और उनके पूरे परिवार की कुंडली खँगालनी चाहिए।
श्री गिरकर के अनुसार बैंकों को प्रतिवर्ष बैंक के पैनल एडव्होकेट्स, मूल्यांकनकर्ताओं, अंकेक्षकों, सनदी लेखाकारों के कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए। बैंकों ने अपनी सूची में से उन सभी पेशेवरों (अंकेक्षकों, सनदी लेखाकारों, अभियंताओं, मूल्यांकनकर्ताओं, एडव्होकेट्स) को हटा देना चाहिए जिन्होंने असली तथ्यों को छिपाते हुए फर्जी रिपोर्ट बनाकर अपने क्लाइंट्स को फ़ायदा पहुंचा कर बैंकों के एनपीए में बढ़ोत्तरी करवाई है। लेखक के अनुसार प्रौद्योगिकी बैंकों के एनपीए के इलाज करने में और इस बीमारी की रोकथाम करने में एक सहायक की भूमिका निभाती है, इससे अधिक नहीं। इसलिए बैंकों को मानव संसाधन में अधिक निवेश करने की जरूरत है। प्रौद्योगिकी तो ऋण स्वीकृति के निर्णय लेने में मात्र एक सहायक है। ऋण सुविधाओं की स्वीकृति प्रक्रिया का कंप्यूटीकरण होने से गैर निष्पादित आस्तियों में वृद्धि अधिक हो रही है।
इसे भी पढ़ें: मोदी सरकार की योजनाओं का दस्तावेज है ''विकास के पथ पर भारत''
बैंकों के प्रबंधन की जो सोच है कि कंप्यूटरीकरण वित्तीय विश्लेषण में बहुत अधिक कारगर साबित हुआ है और कंप्यूटर ने बैंक अधिकारियों को ऋण स्वीकृति के निर्णय लेने में निर्णायक भूमिका प्रदान की है और कंप्यूटर की मदद से ही ऋणों की निगरानी और नियंत्रण में कसावट आई है, यह सोच अतिश्योक्तिपूर्ण है। क्योंकि कोई भी कंप्यूटर या सुपर कंप्यूटर मनुष्य के दिमाग़ से बड़ा नहीं हो सकता है। लेखक ने इस पुस्तक में अभिलेख रक्षण पर जोर दिया है जिसके अंतर्गत मैन्यूअली बैंकिंग के जमाने में ऋण स्वीकृति, ऋण निगरानी, ऋण नियंत्रण, ऋण निरीक्षण, ऋण अनुपालन, ऋण वसूली, अनुत्पादक आस्तियों, बट्टे खातों, न्यायालयीन प्रकरणों की प्रगति, डिक्री निष्पादन की प्रगति इत्यादि से संबंधित जो रजिस्टर संबंधित बैंककर्मी अपने हाथों से बनाते थे और उसे अद्यतन रखते थे उससे जहाँ एक ओर बैंक को ऋण की स्वीकृति, निगरानी, वसूली में बहुत अधिक सहायता मिलती थी। बैंककर्मी के स्थानांतरण होने के पश्चात भी उस शाखा में आने वाले बैंककर्मियों को इन रजिस्टर्स से काफ़ी सहायता मिलती थी। आजकल ये सारे रजिस्टर्स शाखाओं में नहीं दिखते हैं।
दीपक गिरकर एनपीए नामक बीमारी की गहराई तक गए हैं और इस विषय पर गहन चिंतन भी किया है। लेखक ने इस पुस्तक में 13 अध्याय में 222 उपशीर्षकों के तहत गहरे विश्लेषण और तथ्यों के साथ हर मुद्दे पर बहुत व्यावहारिक और ठोस ढंग से बात की है। एनपीए के विषय में ऐसी पुस्तक की अत्यंत आवश्यकता थी और वह कमी दीपक गिरकर ने निश्चित रूप से पूर्ण की है। इस पुस्तक को पढ़कर और पुस्तक में दिए गए सुझाव को अमल में लाकर बैंकर्स निश्चित ही एनपीए नामक घातक बीमारी से निजात पा सकते हैं।
-सतीश राठी
(पुस्तक समीक्षक)
पुस्तक- एनपीए एक लाइलाज बीमारी नहीं
लेखक- दीपक गिरकर
प्रकाशक- साहित्य भूमि, एन- 3/5 ए, मोहन गार्डन, नई दिल्ली- 110059
मूल्य-450 रूपए
पेज-167