By अजय कुमार | May 13, 2023
कर्नाटक चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी अपने दूसरे लक्ष्य पर निकल पड़ी है। लोकसभा चुनाव से पूर्व अब जिन चार राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव होना है, उसमें तीन हिन्दी शासित प्रदेश हैं। इसमें से राजस्थान को लेकर भारतीय जनता पार्टी काफी आश्वस्त है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक तरफ राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ उन्हीं के सचिन पायलट जैसे नेता मोर्चा खोले हुए हैं तो राजस्थान में प्रत्येक पांच वर्षों के बाद सरकार बदलने की परिपाटी भी रही है।
बात मध्य प्रदेश की कि जाए तो यहां पिछली बार बीजेपी-कांग्रेस किसी को भी बहुमत नहीं मिला था, लेकिन कांग्रेस ने यहां गठबंधन की सरकार बना ली थी, जिसके मुखिया कमलनाथ जैसे तेज तर्रार नेता थे, परंतु बाद में पासा ऐसा पलटा कि बीजेपी फिर से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ गई और शिवराज सिंह की मुख्यमंत्री के रूप में पुनः ताजपोशी हो गई थी। इसलिए मध्य प्रदेश को लेकर बीजेपी चिंतित नजर आ रही है। राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ से भी बीजेपी को काफी उम्मीदें हैं। यहां जिस तरह से नक्सली पांव पसार रहे हैं उससे यहां की कांग्रेस सरकार पर उगलियां उठ रही हैं, इसके अलावा यहां की जनता सीएम बघेल से भी सब संतुष्ट नहीं है। पिछली बार के विधानसभा चुनाव में यहां बीजेपी को अप्रत्याशित रूप से हार का सामना करना पड़ा था, हाल फिलहाल में यहां बीजेपी को उस समय बड़ा छटका लगा जब छत्तीसगढ़ में भाजपा के सबसे बड़े आदिवासी नेता नंदकुमार साय कांग्रेस में शामिल हो गए। वे 3 बार विधायक, 3 बार लोकसभा सदस्य, दो बार राज्यसभा सदस्य रहे और अविभाजित मध्य प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष भी रहे। साय जनसंघ के समय के पार्टी के नेता हैं। छत्तीसगढ़ में एक तिहाई आबादी आदिवासियों की है और लगभग इतनी ही सीटें 29 (90 में से) उनके लिए आरक्षित हैं।
बात तेलंगाना की कि जाए तो यहां पिछले कुछ समय में बीजेपी ने बहुत मेहनत की है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा चुनाव के लिए यहां सियासी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। कभी बीजेपी के लिए अछूत रहे इस राज्य से पार्टी को काफी उम्मीदें हैं। ग्रेटर हैदराबाद नगर निकाय के चुनावी नतीजों से भी पार्टी को दक्षिण भारत के इस महत्वपूर्ण सूबे में उम्मीद की किरण दिख रही है। बीजेपी को तेलंगाना के पिछले विधानसभा चुनाव यानी साल 2018 के विधानसभा चुनाव में महज एक सीट पर जीत मिली थी, परंतु 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन में सुधार हुआ और पार्टी चार सीटें जीतने में सफल रही। विधानसभा क्षेत्र के लिहाज से देखें तो बीजेपी भले ही एक सीटें जीतने में सफल रही हो, लेकिन 2019 में जिन चार लोकसभा सीटों पर जीती थी, उस लिहाज से उसे 21 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में इस प्रदर्शन ने तेलंगाना बीजेपी में उत्साह का संचार कर दिया और पार्टी को सूबे में सियासी संभावनाएं बेहतर नजर आने लगीं।
बहरहाल, विधानसभा चुनाव के नतीजों से लोकसभा की तस्वीर कोई ज्यादा स्पष्ट नहीं होती है, लेकिन इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के पक्ष में भले नहीं आते हों, वहां भी लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर खूब वोट पड़ते हैं। दिल्ली इसका सबसे बड़ा उराहरण है, जहां विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी सातों लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा रहा था।
खैर, तमाम किन्तु परंतुओं के बीच 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी को उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक उम्मीद है। इसी राज्य से सबसे अधिक 80 सांसद चुने जाते हैं, यह संख्या लोकसभा की कुल 543 सीटों का करीब 15 फीसदी है। केन्द्र में सरकार बनाने के लिए 272 लोकसभा सदस्यों की जरूरत पड़ती है, इसमें से 80 यानी करीब तीस फीसदी सीटें तो अकेले उत्तर प्रदेश से ही आती हैं। संभवतः इसीलिए बंगाल में बैठी ममता बनर्जी से लेकर बिहार में बैठे नीतीश कुमार तक सभी को दिल्ली की राजनीति चमकाने के लिए सबसे अधिक 'ऊर्जा’ यहीं से मिलती हुई दिखती है। कई गैर हिन्दी राज्यों के राजनैतिक पुरोधा भी समय-समय पर यूपी में अपनी किस्मत आजमाने को व्याकुल दिखाई देते रहते हैं।
उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी सियासी ताकत यह है कि यहां से जो आवाज उठती है वह जल्द ही पूरे देश में सुनाई पड़ने लगती है। यह सिलसिला काफी पुराना है। सबसे पहले कांग्रेस ने यूपी की सियासी महत्ता को समझा था, इसीलिए दिल्ली की गद्दी पर सबसे अधिक समय तक बैठने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने यूपी में कांग्रेस को कभी कमजोर नहीं होने दिया। भले ही नेहरू-गांधी परिवारवाद की सियासत का आरोप लगता रहता हो, परंतु परिवार से इत्तर यूपी में कई बड़े कांग्रेसी नेता भी नेहरू-गांधी के नाम पर संसद की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाब हो जाते थे। नेहरू-गांधी के नाम पर देश-प्रदेश में चुनाव होता था। यूपी में सबसे लम्बे समय तक राज करने का रिकार्ड भी कांग्रेस के पास है। राजीव गांधी की मौत के पश्चात सोनिया गांधी ने भी यूपी को काफी तवज्जो दी थी, लेकिन जबसे कांग्रेस में राहुल गांधी का दबदबा बढ़ा तबसे यूपी कांग्रेस से दूर होता चला गया। यूपी से कांग्रेस दूर हुई तो केन्द्र की सत्ता भी उसके लिए मुसीबत का सबब बन गई। कांग्रेस यूपी में पस्त पड़ी तो भारतीय जनता पार्टी ने यहां अपनी पैठ बनाना शुरू कर दिया।
भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह एवं राजनाथ सिंह, पार्टी के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले कलराज मिश्र, विनय कटियार, लल्लू सिंह, बृज भूषण शरण सिंह ने भी पार्टी को काफी मजबूती प्रदान की। यूपी में बीजेपी के उभार के साथ यहां का राजनैतिक स्वरूप बिल्कुल बदल गया। कभी कांग्रेस गरीबी हटाओ के नारे पर यूपी में चुनाव जीता करती थी तो यूपी में कांग्रेस के कमजोर पड़ने के बाद बीजेपी ने जब यूपी में जड़ें जमाना शुरू किया तो उसने करोड़ों हिन्दुओं के आराध्य प्रभु राम लला का सहारा लिया। बीजेपी ने बिखरे पड़े हिन्दू वोटरों को प्रभु रामलला के नाम पर एकजुट कर दिया। बीजेपी के सहयोगी संगठन विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठन अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण को लेकर संघर्ष करने लगे तो बीजेपी भी इनके साध कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहती। अयोध्या में भव्य राम मंदरि बनाने का संकल्प लिया जाता। बीजेपी के आनुषांगिक संगठनों ने रामभक्तों की रामलला के मंदिर निर्माण की इच्छा को जनआंदोलन बनाने का अभियान शुरू कर दिया। इसके बाद कई राज्यों और आम चुनाव के नतीजे भी अयोध्या से प्रभावित होने लगे। बीजेपी ने अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण की कोशिशों को उस समय नई उड़ान देना शुरू किया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने पिछड़ों को आरक्षण के लिए पूरे देश में मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं थीं। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा की तो पूरे देश में अगड़े-पिछड़े आमने-सामने आ गए। बीजेपी इस लड़ाई में पिछड़ती नजर आ रही थी तो 1990 में हिन्दुत्व को धार देने के लिए बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी रामलला के मंदिर निर्माण की मांग को लेकर सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा पर निकल पड़े। उनकी यात्रा जब बिहार पहुंची तो वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने आडवाणी को समस्तीपुर के सर्किट हाउस में गिरफ्तार करवा दिया। इसके बाद यह आंदोलन जनआंदोलन बन गया। नतीजा यह हुआ कि यूपी में बीजेपी ने सरकार बनाई जिसकी कमान कल्याण सिंह जैसे नेता के हाथ सौंपी गई जिन पर बाबरी विध्वंस का केस चल रहा था। इसी तरह से केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन की एनडीए सरकार बनी, लेकिन हिन्दुत्व की हांडी 2004 के लोकसभा चुनाव में नहीं चढ़ पाई और एनडीए को हार का सामना करना पड़ा। केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन वाली यूपीए की सरकार बनी। जिसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बने, लेकिन इस सरकार की कमान पीछे से सोनिया गांधी के हाथ में रहती थी।
2004 के लोकसभा चुनाव के बाद बनी मनमोहन सरकार के गठन में उत्तर प्रदेश का योगदान ना के बराबर रहा था। यूपी में कांग्रेस को मात्र 09 सीटों पर जीत हासिल हो पाई। इसके बाद यूपी में कांग्रेस कभी मजबूत नहीं हो पाई। इसी के साथ इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा भी नेपथ्य में चला गया। गौरतलब है कि वर्ष 1971 में चुनावी सरगर्मी के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया। इंदिरा का यह स्लोगन इतना लोकप्रिय हुआ कि वो एक मजबूत प्रधानमंत्री बन गईं। इस नारे के बल पर वह कई चुनाव जीतीं।
इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओं का नारा इतना सश्क्त था कि इससे सरकारें बन और बिगड़ जाती थीं। यह और बात है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक के 52 साल के सियासी सफर में भारत को 12 प्रधानमंत्री मिले लेकिन गरीबी और भूख का मुद्दा जस का तस रहा। सभी प्रधानमंत्रियों ने गरीबी हटाने के पुरजोर दावे किए, लेकिन देश में गरीबी कितना हटी ये आंकड़ों तक ही सीमित रहा। 2014 में भी बीजेपी गरीबी और महंगाई को मुद्दा बनाकर केंद्र की सत्ता में आई थी। 2014 के चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी खुद को गरीब का बेटा बताते रहे। सत्ता में आने के बाद शुरुआती सालों में गरीबी हटाने के लिए कई दावे किए गए। मसलन- 2022 तक सबको आवास और किसानों की दोगुनी आय करने की घोषणा की, लेकिन 2022 जाते-जाते मोदी सरकार बैकफुट पर आ गई। सरकार ने अब फिर से 2030 तक गरीबी हटाने का लक्ष्य रखा है।
मोदी सरकार ने 2030 तक गरीबी हटाने का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए भले ही एक समय सीमा तय कर दी हो, परंतु भारतीय जनता पार्टी को भी संभवतः इस बात का अहसास हो गया है कि अब चुनाव गरीबी और गरीबों के सहारे नहीं जीते जा सकते हैं। इसीलिए बीजेपी और उसकी सरकारें भी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की जैसी ही भाषा बोलने लगी हैं। बस फर्क इतना है कि उक्त दल मुस्लिम तुष्टिकरण के सहारे अपनी सियासत आगे बढ़ाते थे, वहीं बीजेपी हिन्दुत्व के सहारे वोटों के ध्रुवीकरण में लगी रहती है। यह दौर भी कितना लम्बा चलेगा कोई नहीं जानता। इस बात का अहसास बीजेपी आलाकमान को भी है। इसीलिए वह हिन्दुत्व के साथ नये-नये सियासी समीकरण साधने में लगी रहती है। अब तो बीजेपी आश्चर्यजनक रूप से मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने की रणनीति पर भी काम कर रही है। बीजेपी की नजर पसमांदा मुस्लिम समाज पर लगी हुई है, जिसकी मुसलमानों की कुल आबादी में अस्सी फीसदी हिस्सेदारी है। पसमांदा मुसलमान वह हैं जो कभी दलित हिन्दू हुआ करते थे, हिन्दू समाज में छूआछूत के चलते इन्होंने अपना कल सुधारने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लिया था, लेकिन आज भी उनकी स्थिति दयनीय ही बनी हुई है। वह कहने को तो मुसलमान हैं लेकिन आज भी यह समाज उन्नति के लिए भटक रहा है। पसमांदा मुसलमान को न शिक्षा मिल पाई है न सम्मान ही हासिल हुआ है। यह लोग ऐसे धंधे में लगे पाए जाते हैं जो अगड़े मुसलमान करने से परहेज करते हैं। इनके हिस्से में कसाई का काम करना, दर्जीगीरी, साइकिल पंचर बनाने जैसे ही कार्य आए हैं। इनको इस्लाम के नाम पर आतंकवादी बना दिया जाता है और इनके हिस्से में अक्सर दर्दनाक मौत ही आती है। इन्हीं मुसलमानों को बीजेपी आईना दिखाने का काम कर रही है। इसमें यदि बीजेपी सफल हो जाती है तो भारतीय राजनीति में बीजेपी को हराना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा।
-अजय कुमार