राजनीतिक कला में माहिर हैं नीतीश कुमार, जरूरत के हिसाब से बदल लेते है पाला

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Aug 10, 2022

देश के हिन्दी पट्टी क्षेत्र में किसी राज्य में सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार बिहार के सर्वोच्च पद के लिये एक तरह से अपरिहार्य बन गए। राजनीतिक कला में माहिर कुमार ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंध विच्छेद करने से पहले अंतिम क्षण तक अपने पत्ते नहीं खोले। उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से अलग होने के लिये अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) में सर्वसम्मत भावना का हवाला दिया। नीतीश कुमार ने इसके बाद बिना समय गंवाये विपक्षी दलों के साथ नया समझौता किया जिन्होंने जदयू के वरिष्ठ नेता का खुलकर स्वागत किया। चार दशकों से अधिक समय के राजनीतिक करियर में 71 वर्षीय कुमार पर भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, कुशासन जैसे दाग नहीं लगे हैं, हालांकि उनके आलोचक उन पर ‘अवसरवादिता’ का आरोप लगा रहे हैं। नीतीश कुमार का जन्म 1 मार्च 1951 को पटना के बाद बख्तियारपुर जिले में हुआ था। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी एवं आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। कुमार स्वयं इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रहे हैं। कुमार बिहार इंजीनियरिंग कालेज (अब एनआईटी, पटना) के दिनों में छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। बाद में वह समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के प्रभाव में राजनीति में शामिल हो गए और 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भाग लिया। यह उनका परचिय कई लोगों से हुआ जिनमें लालू प्रसाद और सुशील कुमार मोदी शामिल हैं। 

 

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कुमार को पहली चुनावी सफलता 1985 के विधानसभा चुनाव में मिली जिनमें कांग्रेस ने बड़ी जीत दर्ज की थी। हालांकि नीतीश कुमार लोकदल के टिकट पर हरनौत सीट जीतने में सफल रहे। इसके पांच वर्ष बाद वे तत्कालीन बाढ़ सीट से सांसद निर्वाचित हुए। बाढ़ संसदीय सीट अब समाप्त हो गई है। इसके करीब पांच वर्ष बाद जब मंडल की लहर अपने शीर्ष पर थी तब नीतीश कुमार ने जार्ज फर्नाडिस के साथ मिलकर समता पार्टी की स्थापना की जो बाद में जदयू में रूपांतरित हो गई और आगे जा कर भाजपा के साथ केंद्र में और 2005 के बाद से राज्य में सत्ता में हिस्सेदार बनी। मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के, पहले पांच वर्षो के कार्यकाल का उनके आलोचक भी उल्लेख करते है। कुमार के पहले कार्यकाल में प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति में काफी सुधार देखा गया था जो उससे पहले प्रतिद्वन्द्वी समूहों द्वारा नरसंहार और फिरौती के लिये अपहरण की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहती थी। मंडल आंदोलन की उपज और कुर्मी समुदाय से संबंध रखने वाले कुमार ने राज्य के जातीय गणित को ध्यान में रखते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलितों का एक उपकोटा सृजित किया जिसे ‘अति पिछड़ा’ और ‘महादलित’ का नाम दिया गया। इस कदम का प्रभावशाली यादव समुदाय और दुसाध जाति (राम विलास पासवान का समर्थक मानी जाने वाली जाति) ने विरोध किया था। कुमार ने ‘पसमंदा’ मुस्लिम मुद्दे को भी आगे बढ़ाया। हिन्दुत्व विचारधारा से जुड़े तत्वों की अतिसक्रियता पर लगाम लगाने की उनकी (कुमार की) क्षमता के कारण ही भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद अल्पसंख्यक समुदाय में उनकी स्वीकार्यता बनी रही। अपने मुख्यमंत्रितत्व काल में कुमार ने स्कूल जाने वाली बालिकाओं के लिये नि:शुल्क साइकिल एवं पोशाक जैसे कदम उठाये। इन कदमों के कारण ही वर्ष 2010 में जदयू-भाजपा गठबंधन बड़े बहुमत के साथ सत्ता में लौटा। 

 

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यह समय अटल-आडवाणी युग के अवसान का था और तब गुजरात में उनके समकक्ष रहे नरेन्द्र मोदी के साथ कुमार की तल्खी बढ़ गई थी जिन्हें बिहार में उन्होंने चुनाव प्रचार नहीं करने दिया और 2013 में भाजपा के साथ गठबंधन समाप्त कर लिया। उन्होंने हालांकि सत्ता बनाये रखी क्योंकि विधानसभा में उनके पास पर्याप्त संख्या बल था। कुमार ने वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के खराब प्रदर्शन को देखते हुए नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पद छोड़ दिया था। हालांकि, एक वर्ष बाद ही अपने सहयोगी रहे जीतन राम मांझी के विद्रोह के बाद राजद और कांग्रेस के समर्थन से वह फिर मुख्यमंत्री बने। उन्हें तब मोदी को चुनौती देने वाले नेता के रूप में देखा जाता था। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन ने बड़ी जीत दर्ज की और सत्ता हासिल की। नीतीश कुमार महागठबंधन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री बने हालांकि दो वर्ष बाद ही 2017 में वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में लौट आए। तब कुमार ने उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप को लेकर अपने रूख को व्यक्त किया था। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में कुमार ने केंद्र में भारी बहुमत से काबिज भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। हालांकि जदयू को 243 सदस्यीय विधानसभा में 45 सीट पर ही संतोष करना पड़ा। समझा जाता है कि भाजपा की आक्रामक शैली तथा विरोधियों को समाप्त करने एवं सहयोगियों पर काबू करने के उसके तरीके से कुमार सहज नहीं थे और उन्होंने पूर्व सहयोगियों के साथ जाना बेहतर समझा जिन्होंने सीमित महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन किया।

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