बिहार में ‘सुशासन बाबू’ कहलाने वाले नीतीश कुमार अब पक्के तौर पर ‘पलटू राम’ हो गये हैं। दो दिन की गहमागहमी के बाद उन्होंने पहले इस्तिफा देकर आखिर राज्यपाल से मुलाकात कर 160 विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया। इसे अस्तित्व की लड़ाई कहें या राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा लेकिन यह सच है कि सत्ता की खातिर पाला बदलने में कोई दल पीछे नहीं रहता। लोकतांत्रिक मूल्य, प्रामाणिकता, राजनीतिक सिद्धान्त तो शायद राजनीतिक दलों के शब्दकोश से गायब ही हो गए लगते हैं। भले ही गठबंधन राजनीति में टूट-फूट नई बात न हो और न ही जनादेश की अनदेखी किया जाना, लेकिन यह एक तथ्य है कि बार-बार पाला बदलने वाले दल अपनी साख गंवाते हैं। भारतीय राजनीति से नैतिकता इतनी जल्दी भाग रही है कि उसे थामकर रोक पाना किसी के लिए सम्भव नहीं है।
आज राष्ट्र पंजों के बल खड़ा राजनीतिक नैतिकता की प्रतीक्षा कर रहा है। कब होगा वह सूर्योदय जिस दिन राजनीतिक जीवन में मूल्यों के प्रति विश्वास जगेगा। मूल्यों की राजनीति कहकर कीमत की राजनीति चलाने वाले राजनेता नकार दिये जायेंगे। राजनीति की ये परिभाषाएं बदल जायेंगी कि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं या राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। राजनीति हो, सामाजिक हो चाहे धार्मिक हो, सार्वजनिक क्षेत्र में जब मनुष्य उतरता है तो उसके स्वीकृत दायित्व, स्वीकृत सिद्धांत व कार्यक्रम होते हैं, वरना वह सार्वजनिक क्षेत्र में उतरे ही क्यों? जिन्हें कि उसे क्रियान्वित करना होता है या यूं कहिए कि अपने कर्तृत्व के माध्यम से राजनीतिक प्रामाणिकता को जीकर बताना होता है परन्तु आज इसका नितांत अभाव है। राजनीतिक मूल्यों के रेगिस्तान में कहीं-कहीं नखलिस्तान की तरह कुछ ही प्रामाणिक व्यक्ति दिखाई देते हैं जिनकी संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। ऐसे लोगों का अभाव ही बार-बार तख्ता पलट करते हैं या गठबंधन को नकारते हैं।
यह सही है कि नीतीश कुमार के पास अब पहले से अधिक विधायकों का समर्थन होगा, लेकिन अब उनकी राजनीतिक ताकत पहले की तुलना में कम होगी, वे अब अपने हिसाब से शासन का संचालन करने में ज्यादा सक्षम नहीं होंगे। एक बड़ा सवाल यह भी है कि यदि नीतीश कुमार 77 सदस्यों वाली भाजपा के दबाव का सामना नहीं कर पा रहे थे, तो फिर 79 सदस्यों वाली राजद के दबाव से कैसे निपट पाएंगे? अब तो उन्हें राजद के साथ महागठबंधन के अन्य दलों को भी संतुष्ट करना होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि इस बार संख्या बल ही नहीं बल्कि नैतिक बल के मामले में जदयू ज्यादा कमजोर है। बिहार में सत्ता की चाभी भले ही जदयू के पास हो, लेकिन अब वह तीसरे नंबर की पार्टी रह गई है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन को छोड़ा था तो इससे आजिज आकर कि राजद नेता शासन संचालन में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे थे और वह उसे रोक नहीं पा रहे थे। क्या इस बार वह ऐसा करने में सक्षम होंगे और वह भी ऐसे समय, जब सुशासन बाबू की उनकी छवि पर प्रश्नचिह्न लग चुके हैं और बिहार विकास के पैमाने पर पिछड़ा है। अब तो उसके और पिछड़ने का अंदेशा है। नीतीश कुमार को उन सवालों के भी जवाब देने होंगे, जिनके तहत वह राजद नेताओं के भ्रष्टाचार को रेखांकित किया करते थे।
जहां तक भाजपा की बात है, उसके सामने बिहार में अपने बलबूते अपनी जड़ें जमाने की चुनौती आ खड़ी हुई हैं और इस चुनौती को झेलने में वह सक्षम है। ताजा घटनाक्रम भाजपा के लिये शुभ एवं श्रेयस्कर साबित होगा। क्योंकि भाजपा जिन मूल्यों एवं सिद्धान्तों की बात करती है, वह उन्हीं मूल्यों को आधार बनाकर अपने धरातल को मजबूत कर सकेगी। विशेष रूप से भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बिहार की जनता के बीच उसे बिना सत्ता के एक नया विश्वास अर्जित करना है। आम लोग तो यही चाहेंगे कि बिहार के विकास के लिए विपक्ष और सत्ता पक्ष, दोनों ही ज्यादा ईमानदारी से काम करें। कोई शक नहीं, आने वाले कम से कम तीन-साढ़े तीन साल बिहार में जमकर राजनीति होगी, बिहार में बहुत काम शेष हैं और तेजस्वी यादव बखूबी कमियां गिनाते रहे हैं, अब उन्हें मौका मिल रहा है, तो लोगों की शिकायतों को दूर करें। लेकिन ऐसा होना संभव नहीं लगता, यही भाजपा के लिये सकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करेगा।
बिहार की राजनीति तो आदर्श की राजनीति मानी जाती रही है, जिसने अनेक नैतिक राजनीति के शीर्षक व्यक्तित्व दिये हैं। वहीं से भ्रष्टाचार एवं अराजकता की राजनीति को चुनौती देने के लिये जयप्रकाश नारायण से समग्र क्रांति का शंखनाद किया। जहां से हम प्रामाणिकता एवं नैतिकता का अर्थ सीखते रहे हैं, जहां से राष्ट्र और समाज का संचालन होता रहा है, अब उस प्रांत के शीर्ष नेतृत्व को तो उदाहरणीय किरदार अदा करना चाहिए। लेकिन अब वहां पद के लिए होड़ लगी रहती है, व प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पद को येन-केन-प्रकारेण, लॉबी बनाकर प्राप्त करने के लिये गठबंधन टूटते हैं, तख्ता पलट होता है, तय मानकों को बदला जाता है। अरे पद तो क्रॉस है- जहां ईसा मसीह को टंगना पड़ता है। पद तो जहर का प्याला है, जिसे सुकरात को पीना पड़ता है। पद तो गोली है जिसे गांधी को सीने पर खानी होती है। पद तो फांसी का फन्दा है जिसे भगत सिंह को चूमना पड़ता है। सार्वजनिक जीवन में जो भी शीर्ष पर होते हैं वे आदर्शों को परिभाषित करते हैं तथा उस राह पर चलने के लिए उपदेश देते हैं। पर ऐसे व्यक्ति जब स्वयं कथनी-करनी की भिन्नता से प्रामाणिकता एवं राजनीतिक मूल्यों के हाशिये से बाहर निकल आते हैं तब रोया जाए या हंसा जाए। लोग उन्हें नकार देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के जीवन चरित्र के ग्राफ को समझने की शक्ति/दक्षता आज आम जनता में है। जो ऊपर नहीं बैठ सका वह आज अपेक्षाकृत ज्यादा प्रामाणिक एवं ताकतवर है कि वह सही को सही और गलत को गलत देखने की दृष्टि रखता है। समझ रखता है। यह गौर करना भी जरूरी है कि आजादी के तुरंत बाद बिहार कहां खड़ा था और आज आजादी के अमृत महोत्सव में कहां खड़ा है?
राजनीति में जब नीति गायब होने लगती है तो बेमेल गठबंधनों के बनते भी देर नहीं लगती। और, इस बुराई के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दल समान रूप से जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो सबकी नजर में 2024 का लोकसभा चुनाव है जहां 40 सीटों वाले बिहार की भूमिका भी अहम रहने वाली है। बिहार में नया सियासी गठबंधन कितना बदलाव लाएगा, यह भविष्य ही बताएगा। ऐसे में लंबे समय से कयास लगाए जा रहे थे कि नीतीश कुमार कभी भी भाजपा का साथ छोड़ सकते हैं। उनका झुकाव भी राष्ट्रीय जनता दल की तरफ अधिक देखने को मिल रहा था। तेजस्वी यादव के प्रति उनका नरम रुख प्रकट होने लगा था। मगर जब जनता दल (एकी) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह ने इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया तो परदे के पीछे चल रहा खेल सामने उभर कर आ गया।
दरअसल यह अवसरवादिता और मौकापरस्ती की हद है जिसका राजनीति में प्रतिकार होना चाहिए और ऐसे नेताओं को जनता द्वारा नकारा जाना चाहिए। वास्तव में बिहार का ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि इस राज्य में जातिवादी और परिवारवादी राजनीति ने इस प्रदेश की जनता के मौलिक अधिकारों से उनको वंचित किया हुआ है और इस प्रांत के लोगों को भारत का सबसे गरीब आदमी बनाया हुआ है। जबकि बिहारियों का भारत के सर्वांगीण विकास में योगदान कम नहीं है, सबसे अधिक मेहनती एवं बुद्धिजीवी लोग यही से आते हैं। इसकी धरती में अपार सम्पत्ति छिपी है और भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के स्वर्णिम अध्याय लिखे हुए हैं। इसके बावजूद इस राज्य में पर्यटन उद्योग का विकास नहीं हो पाया। जिस राज्य के पास नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष हों उसके ज्ञान की क्षमता का अन्दाजा तो सदियां बीत जाने के बाद 21वीं सदी में भी लगाया जा सकता है। लेकिन दूषित राजनीति की कालिमाएं यहां के धवलित इतिहास को धुंधलाती रही हैं। यहां की राजनीति की सत्तालोलुपता एवं भ्रष्टता लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करती रही है। जबकि प्रामाणिकता एवं सिद्धान्तवादिता राजनीतिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और अप्रामाणिकता मृत्यु का पर्याय होती है। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। नीतीश बाबू जिस महागठबन्धन की सरकार अब चलायेंगे वह बिहार के विकास की गाड़ी को उल्टी दिशा में ले जायेगी।
ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)