नेताजी की नाक केवल एक साधारण नाक नहीं थी, बल्कि इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज होने योग्य थी। गाँव के बुजुर्गों का कहना था कि जब नेताजी पहली बार चुनाव लड़े थे, तब उनकी नाक एकदम सामान्य थी—छोटी, संतुलित, और इंसानी सीमाओं के भीतर। लेकिन जैसे-जैसे उनके कार्यकाल बढ़ते गए, वैसे-वैसे उनकी नाक भी लंबी होती चली गई। यह कोई रहस्य नहीं था बल्कि उनकी राजनीतिक सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण था। इतिहासकारों ने तो यहाँ तक सिफारिश कर दी थी कि इस नाक को ‘राष्ट्रीय धरोहर’ घोषित कर देना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ देख सकें कि कैसे राजनीति केवल विचारों से नहीं, बल्कि नाक की लंबाई से भी प्रभावित होती है।
जब किसी पत्रकार ने उनसे पूछ लिया कि "नेताजी, आपकी नाक इतनी लंबी कैसे हो गई?" तो नेताजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "जनता के प्यार से!" यह सुनकर जनता हैरान रह गई। कोई यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया कि असल में नेताजी की नाक उनके किए गए वादों की लंबाई से मेल खाती थी। जितने वादे, उतनी लंबी नाक! यह नाक एक जीवंत स्मारक बन चुकी थी, जो याद दिलाती थी कि राजनीति में अनुभव केवल काम करने से ही नहीं, बल्कि वादे करने और उन्हें तोड़ने से भी बढ़ता है।
नेताजी के पास हर समस्या का समाधान था—बस समस्या का नाम मत लीजिए! अगर किसी गाँव में पानी नहीं आ रहा तो नेताजी कहते, "भाई, पानी नहीं आ रहा, इसका मतलब यह नहीं कि व्यवस्था खराब है। इसका मतलब यह है कि हमारे जल स्रोत सुरक्षित हैं। हम जल संरक्षण को बढ़ावा दे रहे हैं।" बिजली नहीं आती तो उनका जवाब होता, "सरकार जनता को आत्मनिर्भर बनाना चाहती है। मोमबत्ती जलाइए, बचपन की यादें ताजा कीजिए।" जब किसी ने उनसे पूछा कि अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, तो उनका जवाब था, "हमने जनता को मजबूत बनाने का प्रण लिया है। बीमारियाँ खुद ही ठीक होने दें, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाएँ।" इस तर्क में इतनी मजबूती थी कि विरोधियों को भी उनके तर्कशास्त्र के आगे झुकना पड़ता था।
चुनाव नजदीक आते ही नेताजी के भाषण और भी चमत्कारी हो जाते। एक दिन जब उन्होंने जनता को संबोधित किया तो बोले, "हमने पाँच सालों में इतने विकास किए हैं कि अगर आप गिनने बैठें तो उंगलियाँ कम पड़ जाएँगी।" जनता ने सवाल किया, "नेताजी, बताइए, कौन-कौन से विकास हुए?" नेताजी मुस्कुराए, चश्मा ठीक किया और बोले, "पहला विकास – हमारी पार्टी मजबूत हुई। दूसरा – हमारा परिवार समृद्ध हुआ। तीसरा – हमारे करीबी ठेकेदारों की किस्मत चमकी। बाकी तो आप खुद समझदार हैं।" यह सुनकर जनता पहले तो हतप्रभ रह गई, लेकिन फिर उसे एहसास हुआ कि नेताजी के भाषणों में ऐसी जादुई ताकत थी कि वे बिना कोई ठोस जवाब दिए भी तालियाँ बजवा सकते थे।
सड़कें इतनी खराब थीं कि ऐसा लगता था जैसे किसी ने गड्ढों के ऊपर थोड़ा-बहुत सड़क डाल दी है। जब लोगों ने शिकायत की तो नेताजी बोले, "देखिए, ये स्मार्ट गड्ढे हैं। इसमें पानी भर जाए तो कुआँ बन जाता है, सूख जाए तो स्टेडियम।" जनता इस चमत्कारी व्याख्या से चकरा गई। किसी ने मज़ाक में कह दिया, "नेताजी, सड़कें तो आपकी नाक जितनी भी ठीक नहीं हैं।" नेताजी हँसते हुए बोले, "सड़कें लंबी बनाने के लिए पहले वोट लंबी संख्या में चाहिए!"
सफाई व्यवस्था भी ऐसी थी कि कूड़ा सड़कों पर बिखरा हुआ था, लेकिन नेताजी की नजर में यह विकास का प्रतीक था। उनका कहना था, "स्वच्छता अभियान के तहत हमने इतना कूड़ा जमा किया है कि अब बस उसे हटाने की औपचारिकता बची है। हमारी सरकार इसे ऐतिहासिक कूड़ा घोषित करवा सकती है!" जब किसी ने पूछा कि कूड़ा उठेगा कब, तो बोले, "योजना बन रही है, अगले चुनाव तक सब साफ हो जाएगा, चाहे कुछ भी हो जाए, वोट बैंक गंदा नहीं होना चाहिए!"
फिर आया चुनाव परिणाम का दिन। नेताजी हार गए। हारने के बाद उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर बयान दिया, "हमारी हार जनता की जीत है, और जनता की जीत आखिर हमारी ही जीत है। मतलब, हम हारे ही नहीं!" रिपोर्टर ने पूछा, "नेताजी, अब क्या करेंगे?" नेताजी बोले, "हम नई पार्टी बनाएंगे, पुरानी पार्टी पर आरोप लगाएंगे, फिर नई पार्टी को पुरानी बनाएंगे, और पुरानी को नई। बस, जनता को उलझाए रखेंगे!"
अब नेताजी राजनीति से सन्यास लेने की सोच रहे थे, लेकिन उनकी नाक ने इसकी इजाजत नहीं दी। आखिरी बार जब उन्हें किसी ने संसद भवन के गेट पर देखा, तो वे सोच रहे थे, "काश, जनता की याददाश्त मेरी नाक जितनी लंबी होती!"
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)