भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े और कड़े कदम उठाना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है

By ललित गर्ग | Jun 03, 2022

राष्ट्र में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधों के विरुद्ध समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं। लेकिन उनका लक्ष्य, साधन और उद्देश्य शुद्ध न रहने से उनका दीर्घकालिक परिणाम संदिग्ध रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक ऐसी क्रांति का शंखनाद किया है जिसने न केवल विभिन्न राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की चूलें हिला दी है बल्कि भ्रष्टाचार के प्रश्न पर भी प्रशासन-शक्ति को जागृत कर दिया है। अब प्रशासन शक्ति जाग गयी है तो राजनीतिक दलों एवं नेताओं का हिलना, आग बबूला होना एवं बौखलाना स्वाभाविक है। आम आदमी पार्टी के मंत्री सत्येन्द्र जैन की गिरफ्तारी के बाद प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पूछताछ के लिए तलब किया है।

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नये भारत-सशक्त भारत को निर्मित करना है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े और सख्त कदम तो उठाने ही होंगे और प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को तेज करते हुए वोहरा कमेटी की सिफारिशों को अंजाम तक पहुंचाना ही होगा। देश में आम भ्रष्टाचार से ज्यादा खतरनाक है राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों का भ्रष्टाचार। उसे नष्ट करके ही आम भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है। वास्तव में कुछ हासिल करना है, तो फिर नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले जल्द निपटाने की कोई ठोस व्यवस्था बनानी होगी। इसका कोई औचित्य नहीं कि जिन मामलों का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, वे वर्षों और कभी-कभी तो दशकों तक खिंचते रहें। नेशनल हेराल्ड का मामला भी कुछ ऐसा ही है। यह मामला दस साल पुराना है और लगता नहीं कि जल्द किसी नतीजे पर पहुंचेगा। वास्तव में नेताओं की ओर से आय से अधिक संपत्ति जुटाने, सत्ता का दुरुपयोग कर अवैध कमाई करने और काले धन को छल-छद्म से सफेद करने के न जाने कितने मामलों की जांच जारी है। ऐसे कई मामले सीबीआई के पास हैं तो कुछ ईडी के पास। हमें इन एजेन्सियों को स्वतंत्र एवं सशक्त बनाये रखने की भी आवश्यकता है। कुछ मामलों की जांच ये दोनों एजेंसियां कर रही हैं। नेशनल हेराल्ड मामले का सच जो भी हो, यह किसी से छिपा नहीं कि तमाम नेताओं के लिए राजनीति धन कमाने का जरिया बन गई है।


कांग्रेस के शासन-काल में नित-नये भ्रष्टाचार के प्रकरण प्रकाश में आते रहे थे। तब यह भी गंभीर चिंतनीय विषय बना था कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री कितने लाचारी भरे शब्दों में भ्रष्टाचार की त्रासदी और उससे राष्ट्र के होते खोखलेपन को महसूस करते हुए कह रहे थे कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। उस समय लगता तो ऐसा था कि भ्रष्टाचार ही क्या उनके पास और भी ऐसी अनेक समस्याएं रहीं जिनसे निपटने के लिए कैसी भी छड़ी नहीं थी। वे तो बस डंडाधारी थे और अपने इस डंडे का कभी रामदेव पर तो कभी आम जनता पर इस्तेमाल करते रहें। जिस नेतृत्व ने देश, काल, स्थिति नहीं समझी या जो समय की नब्ज नहीं पहचान सका वह समाज को भटकाता रहा। आज जरूरत इस भटकन से उबरने की है, ऐसा कुछ करने की है जिससे हमारी विरासत, हमारा लोकतंत्र, हमारी राजनीति, हमारी वर्तमान जीवन शैली तथा भावी पीढ़ी सभी सुरक्षित रहें। जीवन संयमित रहे, व्यवस्था संयमित रहे। ऐसा क्रम ही लाभदायक होता है। मंगलकारी होता है। जब-जब भी अहंकारी, स्वार्थी एवं भ्रष्टाचारी उभरे, कोई न कोई जेपी और मोदी सीना तानकर खड़ा होता रहा। तभी खुलेपन और नवनिर्माण की वापसी होगी, तभी सुधार और सरलीकरण की प्रक्रिया चलेगी। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। तभी लोक जीवन भयमुक्त होगा। तभी देश पर बार-बार लगने वाले भ्रष्टाचार से परेशान राष्ट्र होने का तगमा हटेगा।

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इस देश में भ्रष्टाचार पनपने का बड़ा कारण राजनीति ही रहा है। सत्ता के शीर्ष पर बैठने वालों ने अपने लिये ऐसी व्यवस्थाएं बना दी थीं कि उनके हजार अपराध करने पर भी उनको कोई टच नहीं कर सकता। तभी एक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री कहा करते थे कि ‘फर्स्ट फैमिली को कभी टच नहीं किया जाना चाहिए।’ इसी तरह की बातें कई राज्यों में भी कही जाती थीं। वहां भी अधिकतर राजनीतिक दल सत्ता में होते थे तो वे प्रतिपक्षी दलों के गुनाहों को आमतौर पर नजरअंदाज कर देते थे। यानी राजनीतिक भ्रष्टाचार चारों ओर व्याप्त था, पूरे कुएं में ही भांग घुली थी, कोई भी इससे अछूता नहीं था। आज भी स्थिति बदली नहीं है, एक आंकड़े के अनुसार सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों के खिलाफ कुल 4,984 मामले लंबित हैं। स्पष्ट है कि जांच एजेंसियों के साथ अदालतों को सक्रियता दिखाने की जरूरत है।


भ्रष्टाचार मट्ठे की तरह राष्ट्र में गहरा पैठा है। राष्ट्रीय स्तर पर 1971 के बाद भ्रष्टाचार ने देश में संस्थागत रूप ग्रहण कर लिया, विशेषतः राजनीतिक दलों में यह तेजी से पनपा। खुद पर भ्रष्टाचार के आरोपों के जवाब में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार तो दुनिया भर में है। सिर्फ भारत में ही नहीं है।’ पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी कहा था कि केंद्र सरकार गरीबों के लिये दिल्ली से जब एक रुपया गांवों में भेजती है तो सिर्फ 15 पैसे ही उन तक पहुंच पाते हैं। कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की यह कैसी लाचारी थी, कैसी विवशता थी। विडम्बना तो यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने इसी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करके सत्ता हासिल की और सत्ता पर बैठते ही भोली-भाली एवं अनपढ़ जनता की आंखों में धूल झोंकते हुए खुलकर भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये हैं। हालांकि अब 2014 से यह स्थिति बदली नजर आ रही है। प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी ने संकल्प व्यक्त किया था कि ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा।’ इसका व्यापक असर देखने को मिला है। अब योजनाओं का पूरा पैसा लाभार्थियों को मिल रहा है। अब घोटालेबाज जान रहे हैं कि उन्हें कोई बचाने वाला नहीं है। सजाएं मिलनी शुरू हो गई हैं। बड़े-बड़े नेता जमानत पर हैं। किसी से ईडी पूछताछ कर रही है तो किसी से सीबीआई। ऐसे नेताओं में प्रथम परिवार कहे जाने वाले परिवार के नेता भी शामिल हैं।


मोदी को और भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कदम उठाने होंगे, कानून व्यवस्था पर पुनर्विचार करना होगा, प्रशासन को सक्रिय करना होगा। भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त लोगों पर कानूनी कार्रवाई में देरी भ्रष्टाचार के पनपने का बड़ा कारण बन रही है। निःसंदेह राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती दिखाया जाना समय की मांग है, लेकिन बात तब बनेगी, जब नेताओं और साथ ही नौकरशाहों के भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच एवं सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर तेजी से होगी। कहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार की सख्त कार्रवाइयों में नौकरशाही को भ्रष्ट होने के लिये खुला न छोड़ दें? यह ज्यादा खतरनाक होगा।


कांग्रेस पार्टी ने इस देश को अपने अहिंसात्मक सत्याग्रहों, जन आंदोलन के माध्यम से आजादी दिलाई और इन्हीं उद्देश्यों के लिए विश्वविख्यात हुई लेकिन आज उसी पार्टी के डरे हुए और नादान नेताओं ने उनके शीर्ष नेताओं पर ईडी की कार्रवाई पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पार्टी की इज्जत को धूल में मिला दिया है। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ आरोपों को दबाने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं वे कांग्रेस जैसी महान पार्टी की शानदार परम्पराओं के अनुकूल हैं? सत्ता और संपदा के शीर्ष पर बैठकर यदि जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया जाता है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। राजनीति के शीर्ष पर जो व्यक्ति बैठता है उसकी दृष्टि जन पर होनी चाहिए पार्टी पर नहीं। आज जन एवं राष्ट्रहित पीछे छूट गया और स्वार्थ आगे आ गया है। जिन राजनीतिक दलों को जनता के हितों की रक्षा के लिए दायित्व मिला है वे अपने उन कार्यों और कर्त्तव्यों में पवित्रता एवं पारदर्शिता रखें तो किसी भी ईडी एवं सीबीआई कार्रवाई की जरूरत नहीं होगी। 


-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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