छात्र जीवन में सब्जी बेचकर किताबों के लिए पैसे जुटाते थे नानाजी देशमुख

By विजय कुमार | Oct 11, 2022

ग्राम कडोली (जिला परभणी, महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती राजाबाई की गोद में जन्मे चंडिकादास अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी। 1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ.प्र. में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया। अतः कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे। छात्र जीवन में निर्धनता के कारण अपनी पुस्तकों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे। 1934 में डॉ. हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया। 


उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहाँ हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था। अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे। नानाजी के प्रयास से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं। विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला सरस्वती शिशु मंदिर स्थापित किया। आज तो ‘विद्या भारती’ संस्था के अन्तर्गत ऐसे विद्यालयों की संख्या 50,000 से भी अधिक है।

इसे भी पढ़ें: राजनीति के शिखर थे समाजवादी मुलायम सिंह यादव

1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये। वहां से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य तथा दैनिक स्वदेश अखबार निकाले गये। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने से प्रकाशन संकट में पड़ गया। ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले। 1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उ.प्र. में यह कार्य उन्हें सौंपा गया। 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुँच गया। 1967 में वे राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनकर दिल्ली आ गये। दीनदयाल जी की हत्या के बाद 1968 में उन्होंने दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की। 


विनोबा भावे के भूदान यज्ञ तथा 1974 में इंदिरा गांधी के कुशासन के विरुद्ध जयप्रकाश जी के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में वे खूब सक्रिय रहे। पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश जी पर लाठी बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी भुजा पर झेल लिया। इससे उनकी भुजा टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये। 1975 में आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे पहले महासचिव थे। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी हार गयीं और जनता पार्टी की सरकार बनी। नानाजी भी उ.प्र. में बलरामपुर से सांसद बने। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें मंत्री बनाना चाहते थे; पर नानाजी ने सत्ता के बदले संगठन को महत्व दिया। अतः उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया।

इसे भी पढ़ें: बहुजन आंदोलन के महानायक थे कांशीराम, अटल बिहारी वाजपेयी भी उन्हें समझने में कर गए थे चूक

1978 में नानाजी ने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से गोंडा, नागपुर, बीड़ और अहमदाबाद में ग्राम विकास के कार्य किये। 1991 में उन्होंने चित्रकूट में देश का पहला ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ स्थापित कर आसपास के 500 गांवों का जन भागीदारी द्वारा सर्वांगीण विकास किया। इसी प्रकार मराठवाड़ा, बिहार आदि में भी कई गांवों का पुननिर्माण किया। 1999 में वे राज्यसभा में मनोनीत किये गये। अपनी सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन सेवा प्रकल्पों के लिए ही किया। नानाजी ने 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली। 


उन्होंने अपने 81वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया। ‘पद्म विभूषण’ से वे अलंकृत हो चुके थे; पर राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने 25 जनवरी, 2019 को उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा की।


- विजय कुमार

प्रमुख खबरें

Prabhasakshi Exclusive: Ajit Doval की China Visit से क्या हासिल हुआ? दोनों देशों के बीच आखिर किन मुद्दों पर बनी सहमति?

धक्काकांड! राहुल का वीडियो वायरल, घायल सांसद को पीएम ने मिलाया फोन

Top 10 Enterpreneur की सूची में Zepto के सहसंस्थापक का नाम भी शामिल, जानें युवा उद्यमियों की सूची में कौन शामिल

IND vs AUS: मेलबर्न टेस्ट में जसप्रीत बुमराह रच सकते हैं इतिहास, निशाने पर कई दिग्गजों का महारिकॉर्ड