आज भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु का रहस्य ज्यों का त्यों बना हुआ है

By राजेश कश्यप | Aug 18, 2020

अपने वतन भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्त करवाने के लिए असंख्य जाने-अनजाने देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और जीवनभर अनेक असनीय यातनाएं, कष्ट व प्रताड़नाएं झेलीं। देश में ऐसे असंख्य शूरवीर देशभक्त बलिदानी हुए, जिनके अथक संघर्ष, अनंत त्याग, अटूट निश्चय और अनूठे शौर्य की बदौलत स्वतंत्रता का सूर्योदय संभव हो सका। ऐसे ही महान पराक्रमी, सच्चे देशभक्त और स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनका जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा राज्य के कटक शहर में जानकीनाथ बोस के घर श्रीमती प्रभावती की कोख से हुआ। वे अपने पिता की नौंवी संतान के रूप में पाँचवें पुत्र थे। वे चौदह भाई-बहन थे, जिनमें छह बहनें व आठ भाई शामिल थे। उनके पिता कटक शहर के प्रसिद्ध वकील थे और माता धर्मपरायण गृहणी थीं।


सुभाष चन्द्र बोस बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। वे छात्र जीवन से ही अरविन्द घोष और स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों से प्रभावित हो चुके थे, जिसके चलते उन्होंने उनके दर्शनशास्त्रों का गहन अध्ययन किया। इसी बीच, देशभक्ति एवं क्रांतिकारी विचारों के चलते उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक अंग्रेज प्रोफेसर की सरेआम पिटाई कर डाली, जिसके कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा सुभाष आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) अधिकारी बने। पिता का मान रखने के लिए आई.सी.एस. बनना स्वीकार किया। इसके लिए सुभाष चन्द्र बोस ने इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वर्ष 1920 में उन्होंने अपनी अथक मेहनत के बलबूते, न केवल अच्छे अंकों के साथ चौथा स्थान हासिल करते हुए उत्तीर्ण की। हालांकि सुभाष चन्द्र बोस अपनी अनूठी प्रतिभा के बल पर भारतीय प्रशासनिक सेवा में तो आ गए थे, लेकिन उनका मन बेहद व्यथित और बेचैन था। उनके हृदय में देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी आक्रोश का समुद्री ज्वार आकाश को छू रहा था। अंतत: उन्होंने मात्र एक वर्ष बाद ही, 24 वर्ष की उम्र में मई, 1921 में भारतीय प्रशासनिक सेवा को राष्ट्रहित में त्याग दिया और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय हो गये।


सुभाष चन्द्र बोस ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत देश में चल रहे असहयोग आन्दोलन से की। उन्हें वर्ष 1921 में अपने क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों का संचालन करने के कारण पहली बार छह माह जेल जाना पड़ा। इसके बाद तो जेल यात्राओं, अंग्रेजी अत्याचारों और प्रताडऩाओं को झेलने का सिलसिला चल निकला। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान उन्हें ग्यारह बार जेल जाना पड़ा। वर्ष 1923 में सुभाष चन्द्र बोस चितरंजन दास की ‘स्वराज्य पार्टी’ में शामिल हुए और साथ ही देश के मजदूर, किसानों और विद्यार्थियों के संगठनों से जुड़े। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों से परेशान होकर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें वर्ष 1925 से वर्ष 1927 तक बर्मा में नजरबन्द करके रखा। उन्होंने वर्ष 1928 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की सफलता में उल्लेखनीय योगदान दिया। अंग्रेजी सरकार ने वर्ष 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया और वे वर्ष 1933 में यूरोप चले गए और ‘इंडिपेंडेंस लीग ऑफ इंडिया’ नामक क्रांतिकारी संगठन के सक्रिय सदस्य बन गये। वे वर्ष 1934 में पिता के देहावसान का दु:खद समाचार पाकर स्वदेश लौट आये। लेकिन, अंग्रेजी सरकार ने उन्हें फिर से देश से बाहर भेज दिया। इसके बाद वे वर्ष 1936 में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने आये, लेकिन इस बार भी उन्हें अंग्रेजी सरकार ने पुन: देश से बाहर भेज दिया। इस तरह से वर्ष 1933 से लेकर वर्ष 1936 के बीच उन्हें आस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लाविया, फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्विटजरलैण्ड, तुकी और युगोस्लाविया आदि कई देशों की यात्राएं करने व उनकी स्थिति व परिस्थितियों का अध्ययन करने का सुनहरा मौका मिला। इसके साथ ही उन्हें मुसोलिनी, हिटलर, कमालपाशा और डी. वलेरा जैसी वैश्विक चर्चित हस्तियों के सम्पर्क में भी आने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने बैंकाक में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती मिस ऐमिली शैंकल से प्रेम विवाह किया, जिनसे उन्हें अनीता बोस नामक पुत्री हुई। उनकी पुत्री अनीता बोस इन दिनों सपरिवार जर्मनी में रहती हैं।


सुभाष चन्द्र बोस ने ‘भारतीय शासन अधिनियम’ का जबरदस्त विरोध किया और भारी प्रदर्शन किया, जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें वर्ष 1936 से वर्ष 1937 तक यरवदा जेल में डाल दिया। इस समय सुभाष चन्द्र बोस देश का जाना माना चेहरा बन चुके थे। इसके परिणामस्वरूप, फरवरी, 1938 में ‘हीरपुर’ (गुजरात) में हुए कांग्रेस के 52वें वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्ष चुन लिए गए। इस पद पर रहते हुए उन्होंने ‘राष्ट्रीय योजना आयोग’ का गठन किया। हालांकि, महात्मा गांधी को सबसे पहले ‘राष्ट्रपिता’ सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, इसके बावजूद, कभी उनके साथ वैचारिक मतभेद समाप्त नहीं हुए। इसी कारण, उन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से जल्दी ही त्यागपत्र देना पड़ा। लेकिन, अगले ही वर्ष 1939 में उन्होंने गांधी जी के प्रबल समर्थक और कांग्रेस में वामपंथी दल के उम्मीदवार डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करके त्रिपुरा कांग्रेस का अध्यक्ष पद हासिल कर लिया। नेताजी की शख्सियत की ऊँचाई का सहज अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राष्ट्रपिता के खुले समर्थन के बल पर चुनाव लड़ने वाले डॉ. सीतारमैय्या को 1377 के मुकाबले 1580 वोटों से जीत दर्ज की थी। इसके बाद तो उनका राजनीतिक उत्कर्ष शिखर पर पहुँचना स्वभाविक ही था। राष्ट्रपिता ने सुभाष चन्द्र बोस की जीत को अपनी व्यक्तिगत हार के रूप में महसूस किया, जिसके कारण बहुत जल्द नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मन कांग्रेस से ऊब गया और उन्होंने स्वयं ही कांग्रेस को अलविदा कह दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधियों और स्वतंत्रता आन्दोलन की गतिविधियों के संचालन के लिए 3 मई, 1939 को ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नामक वामपंथी विचारधारा वाले दल की स्थापना की। इसके साथ ही, वर्ष 1940 में ‘वामपंथी एकता समिति’ की स्थापना की और समाजवादी एवं साम्यवादी संगठनों को संगठित करने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन, इसमें वे कामयाब नहीं हो पाये।

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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अपनी अनवरत क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजी सरकार की आँखों की किरकिरी बन चुके थे। इसी के चलते, अंग्रेजी सकार ने उन्हें 27 जुलाई, 1940 को बिना कोई मुकदमा चलाये, अलीपुर जेल में डाल दिया। उन्होंने इस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलन्द की और 29 दिसम्बर, 1940 को जेल में ही अनशन शुरू कर दिया। अन्याय के खिलाफ चले इस अनशन के बाद अंग्रेजी सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस को 5 जनवरी, 1940 को जेल से रिहा तो कर दिया, लेकिन उन्हें कोलकाता में उन्हीं के घर में नजरबन्द कर दिया। कुछ समय पश्चात ही नेताजी अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से 16 जनवरी, 1941 की रात 1:30 बजे मौलवी के वेश बनाकर अंग्रेजी सरकार की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब हो गए और वे अपने साथी भगतराम के साथ 31 जनवरी, 1941 को काबुल जा पहुँचे। इधर योजनाबद्ध तरीके से परिजनों ने उन्हें 26 जनवरी, 1941 को लापता घोषित कर दिया और उधर नेताजी काबुल पहुँचने के बाद 3 अप्रैल, 1941 को जर्मन मंत्री पिल्गर के सहयोग से मास्को होते हुए हवाई जहाज से बर्लिन पहुँच गये। उन्होंने यहां पर जर्मन सरकार के सहयोग से 'वर्किंग ग्रुप इंडिया’ की स्थापना की, जोकि कुछ ही समय बाद ‘विशेष भारत विभाग’ में तब्दील हो गया। नेताजी ने 22 मई, 1942 को जर्मनी के सर्वोच्च नेता हिटलर से मुलाकात की।


सुभाष चन्द्र बोस ने 17 जनवरी, 1941 को बर्लिन रेडियो से अपना ऐतिहासिक सम्बोधन दिया और भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुली जंग का ऐलान कर दिया। जर्मन सरकार ने उनके साहस और शौर्य को देखते हुए उन्हें ‘फ्यूचर ऑफ इण्डिया’ के खिताब से नवाजा। इसी के साथ वे ‘नेताजी’ कहलाने लगे। उन्होंने वर्ष 1943 में जर्मनी को छोड़ दिया और वे जापान होते हुए सिंगापुर जा पहुँचे। उन्होंने यहां पर कैप्टन मोहन सिंह द्वारा गठित ‘आजाद हिन्द फौज’ की अपने हाथों में ले ली। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस की सहायता से 60,000 भारतीयों की ‘आजाद हिन्द फौज’ पुनर्गठित की। इसके साथ ही नेताजी ने 21 अक्तूबर, 1943 को ‘अर्जी-हुकूमत-ए-आजाद हिन्द’ के रूप में अस्थायी सरकार स्थापित कर दी। इस अस्थायी सरकार के ध्वज पर दहाड़ते हुए शेर को अंकित किया गया। नेताजी ने महिला ब्रिगेड ‘झांसी रानी रेजीमेंट’ और बालकों की ‘बाबर सेना’ भी गठित कर दी। उन्होंने रानी झांसी रेजीमेंट की कैप्टन लक्ष्मी सहगल को बनाया। 


नेताजी 4 जुलाई, 1944 को, आजाद हिन्द फौज के साथ बर्मा पहुँचे। यहीं पर नेताजी ने ऐतिहासिक संबोधन के साथ ओजस्वी आह्वान करते हुए कहा था कि ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’’ इसके जवाब में आजादी के दीवानों ने नेताजी को विश्वास दिलाया कि ‘‘वे स्वाधीनता की देवी के लिए अपना खून देंगे।’’ जनरल शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ाते हुए भारत में लगभग 20,000 वर्गमील के क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा लिया। दुर्भाग्यवश, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों ने 6 अगस्त, 1945 को जापान के प्रमुख शहर हिरोशिमा और इसके तीन दिन बाद 9 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिये गए, जिससे जापान, इटली आदि देशों को घुटने टेकने को विवश होना पड़ा और इसी वजह से आजाद हिन्द फौज को भी अपने मिशन में विफलता का सामना करना पड़ा। हालांकि, इस विफलता से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बेहद निराशा हुई, इसके बावजूद उन्होंने आजादी हासिल करने के लिए निरन्तर नये-नये प्रयास जारी रखे। इन्हीं प्रयासों के तहत वे सहायता मांगने के लिए रूस भी गए, लेकिन उन्हें कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। इसके बाद वे 17 अगस्त, 1945 को हवाई जहाज से मांचूरिया के लिए रवाना हुए। 23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को बेहद दु:खद एवं चौंकाने वाली सूचना दी कि पाँच दिन पूर्व 18 अगस्त, 1945 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का विमान मांचूरिया जाते हुए ताईवान के पास दुर्घटना का शिकार हो गया, जिसमें नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु हो गई। इस समाचार को सुनकर हर कोई शोक के अनंत सागर में डूब गया। लेकिन, इसके साथ ही उनकीं मौत पर भी सवाल खड़े हो गये।

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आज भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु का रहस्य ज्यों का त्यों बना हुआ है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के रहस्यमयी हवाई दुर्घटना का शिकार होने के दो वर्ष बाद ही 15 अगस्त, 1947 को देश में स्वतंत्रता का सूर्योदय हो गया। एक तरह से नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आजादी की जंग को अपने अंजाम तक पहुँचाया और स्वर्णिम वेला की भोर में ही स्वयं को अस्त कर लिया। समस्त राष्ट्र स्वतंत्रता के इस अमर सेनानी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के असीम त्याग, अनूठे बलिदान, अनंत शौर्य, अद्भूत पराक्रम और अटूट संघर्ष के लिए सदैव ऋणी रहेगा। इसके साथ ही ‘जय हिन्द’ का नारा और गौरवमयी ऐतिहासिक अभिवादन देने के लिए भी हिन्दुस्तान हमेशा कृतज्ञ रहेगा। भारत सरकार ने इस महान शख्सियत को वर्ष 1992 में देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा। लेकिन, नेताजी के परिजनों इस सम्मान को यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि देर से दिये गये इस सम्मान का कोई औचित्य नहीं है। इसके बावजूद, स्वतंत्रता का यह अमर सेनानी हमेशा देशवासियों के दिलों में अजर-अमर बने रहेंगे। उन्हें कोटि-कोटि नमन है।


राजेश कश्यप

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)

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