कन्याकुमारी की यात्रा के पहले जरूर जान लें ये बातें

By डॉ. प्रभात कुमार सिंघल | Jan 30, 2020

भारत के मानचित्र पर दक्षिण में तमिलनाडु राज्य का आखिरी छोर कन्याकुमारी हमारी उस दिन हमारी आंखों के सामने था। एक एक यकीन नही हुआ कि दिल की एक हसरत सालों के इन्तजार के बाद यूं पूरी होगी। तीन तरफ समुन्द्र की खूबसूरत आभा से घिरा कन्याकुमारी एक ऐसा सुंदर और आकर्षक पर्यटन स्थल है जहां देश और विदेश के सबसे ज्यादा सैलानी पहुंचते हैं। कोई गली-मोहल्ला ऐसा न था जो खूबसूरत न हों। देख कर लगा हम भारत की नहीं वरन किसी और देश की धरती पर हैं।

 

कन्याकुमारी हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर का संगम स्थल है, जहां सागर अपने विभिन्न रंगो से मनोरम छटा बिखेरते बिखेर रहे थे। कन्याकुमारी वर्षों से कला, संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक रहा है। दूर फैले समुद्र की विशाल लहरों के बीच यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद आकर्षक लगता हैं। समुद्र बीच पर रंग बिरंगी रेत इसकी सुंदरता में चार चांद लगा रही थी।

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कन्याकुमारी देखने के सपने संजोये हमारा सफर कोटा रेलवे स्टेशन से दोपहर 3.30 बजे तिरूअंतपुरम राजधानी रेलगाड़ी से शुरू हुआ। रास्ते में आने वाले गोआ के मडगांव स्टेशन पर उतरे तो एक स्टाल पर गोआ के छिलके वाले काजू को देख कर मन ललचाया और काजू खरीद कर चलती रेल में इनके मीठे स्वाद का आनंद लिया। तिरुअनंतपुरम का हमारा सफर दो रात के बाद सुबह 5.30 बजे पूरा हुआ। समान लेकर स्टेशन से बाहर आये और चाय नास्ता कर टेक्सी वालों से बात की। किराया तय किया और हम चल पड़े 90 किलोमीटर दूर कन्याकुमारी के लिए। यही कोई 10 बजे थे हम कन्याकुमारी पहुँच गए और एक होटल में कुछ देर विश्राम कर नास्ता कर चल पड़े सैर के लिए।

 

हर रास्ते पर थे होटल और रेस्टोरेंट। स्थानीय हस्तशिल्प सीप, कोड़ी, मोती, शंख आदि की नाना विध शिल्पकला से सजी थी दुकानें। कहीं चाय तो कहीं कॉफी की स्टाल। सड़क के किनारे पर फूलमालाएं और पूजा का सामान बेचने वाले पूजन सामग्री लेने के लिए आग्रह कर रहे थे। बाजार का मज़ा लेते लेते हम पहुँच गए समुद्र के किनारे जहां से बोट में हमें विवेकानंद रॉक जाना था।

 

अब संयोग ऐसा बना कि उस दिन किसी कारण वश बोटिंग बन्द करदी गई। खैर हम कर भी क्या सकते थे। स्थिति से समझौता करना था सो किया। हमने मालूम किया कि ऐसी कौन सी जगह है जो समुंद्री आकर्षण के सबसे नजदीक हो। एक ने बताया कन्याकुमारी मंदिर के दांई और चले जाइये वहां से आप को सामने ही सबसे नजदीक दिखाई देंगे दोनों टापू।

 

हमें बताया गया था कि कन्याकुमारी मंदिर में लाइन में लगना होता है और करीब एक घंटे में दर्शन होते हैं। यही सोच कर हमने पहले कन्याकुमारी मंदिर देखने का प्लान बनाया और हम पहुंच गए मंदिर के सामने। मंदिर के बाहर फूलमाला और प्रसाद वाले बुला रहे थे देवी के लिए पूजा ले जाओ।

 

हमने भी पूजा की सामग्री ली और लाइन में लग गए। लाइन छोटी थी और 15 मिनट में ही हम देवी पार्वती के सम्मुख दर्शन कर रहे थे। देवी पार्वती की श्यामवर्णीय पाषाण से निर्मित खड़ी मुद्रा की मूर्ति आलोकिल आनंद प्रदान कर रही थी। प्रज्वलित दीपों की रोशनी में गर्भगृह का दृश्य मनभावन लग रहा था। मंदिर परिसर काफी बड़ा था। चारों और देवी देवताओं की प्रतिमाएं विराजित थी। यह मंदिर तीनों समुन्द्रों के संगम पर बना है। कुछ भक्त पहले त्रिवेणी में स्नान कर मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे थे। त्रिवेणी संगम स्थल मंदिर के बांई ओर करीब 500 मीटर दूरी पर ही है। मंदिर का संपूर्ण वातावरण भक्ति भाव से सरोबार था।

 

मंदिर में दर्शन कर हम दांई और चल दिये। कोई दो मिनट में ही हम समुद्र के किनारे मंदिर के पीछे बने अच्छे चौड़े प्लेटफार्म पर पहुंच गए। सामने था विशाल समुद्र और उसके बीच विवेकानंद स्मारक और गुरुवल्लुर स्मारक का खूबसूरत दृश्य। दोनों स्मारकों को जितनी बारिकी से देख सकते थे मन भर कर निहारा और आनंद लिया।

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बताया जाता है कि पवित्र स्थान विवेकानंद स्मारक को 1970 में विवेकानंद रॉक मेमोरियल कमेटी ने स्वामी विवेकानंद के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए बनवाया था। इसी स्थान पर स्वामी विवेकानंद गहन ध्यान लगाया था। इस स्थान को श्रीपद पराई के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कन्याकुमारी ने भी तपस्या की थी। कहा जाता है कि यहां कुमारी देवी के पैरों के निशान भी हैं। इस स्मारक के विवेकानंद मंडपम और श्रीपद मंडपम नामक दो प्रमुख हिस्से हैं। 

 

इसके समीप ही तिरुक्कुरुल की रचना करने वाले अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की ऊँची प्रतिमा देखते ही बनती है। बताया जाता है कि 38 फीट ऊंचे आधार पर बनी यह प्रतिमा 95 फीट की है और इस प्रतिमा की कुल ऊंचाई 133 फीट है। प्रतिमा का वजन 2000 टन है। इस प्रतिमा को बनाने में कुल 1283 पत्थर के टुकड़ों का उपयोग किया गया है।

 

इन स्मारकों में इस स्थल की संस्कृति एवं समुंद्र में उठती गिरती नीली हरी सफेद लहरों को निहारना भी एक अलग ही दुनियां में ले जाता हैं। करीब एक घंटे का समय कब इन नज़रों को देखते और अपने मोबाइल में कैद करने में समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चल। मन नहीं होते हुए भी हम वापस हो लिए और पास ही एक भोजनालय में भोजन करने चले गए। यहां हमने लजीज भोजन का लुफ्त उठाया और ऑटो से अपने होटल आगये। कुछ देर विश्राम किया और देखा तो चार बज गए। हमारे पास पर्याप्त समय था, हमारी ट्रेन रात 10.30 की थी।

 

हम कुछ देर में होटल से बाहर आये और अब हम जा पहुँचे ग़ांधी मंडप जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चिता की राख रखी हुई है। बताया जाता है कि महात्मा गांधी 1937 में यहां आए थे। उनकी मृत्‍यु के बाद 1948 में कन्याकुमारी में ही उनकी अस्थियां विसर्जित की गई थी। स्मारक की स्थापना 1956 में कई गई थी। कहा जाता है कि स्मारक को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर सूर्य की प्रथम किरणें उस स्थान पर पड़ती हैं जहां महात्मा की राख रखी हुई है।

 

ग़ांधी मंड़प देखकर हम ने ऑटो किया और चल पड़े कन्याकुमारी से 13 किलोमीटर दूर स्थित सुचिन्द्रम के थानुमलायन मंदिर के दर्शन के लिए। यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। मंदिर में स्‍थापित हनुमान की छह मीटर की ऊंची मूर्ति आकर्षक है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश की मूर्तियां स्‍थापित है। मंदिर का स्थापत्य एवं मूर्ति शिल्प ऐसा है बस देखते ही रह जाओ। यहां नौवीं शताब्दी के प्राचीन अभिलेख भी पाए गए हैं। इस 13 किलोमीटर की यात्रा में प्रकृति का सुंदर दृश्य लुभावना होता है।

 

सुचिन्द्रम से लौटते लौटते रात गहरा गई और करीब 7 बजे का समय हो गया। एक रेस्टोरेंट में भोजन कर होटल से अपना सामान लिया और 9.30 बजे तक कन्याकुमारी रेलवे स्टेशन पहुँच गए। रात 10.30 बजे ट्रैन रामेश्वरम के लिए रवाना हुई। कन्याकुमारी ट्रिप की यादों में खोए न जाने कब नींद की आगोश में समा गए और जब आंख खुली तो रेल सुबह रामेश्वरम स्टेशन पर खड़ी थी। कन्याकुमारी की कभी न भूलने वाली यात्रा हमेशा याद रहेगी

 

- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

 

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