हिंदी साहित्य के कालजयी रचनाकार ‘प्रेमचंद’ के जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Jul 31, 2020

हिंदी साहित्य ललाट पर दैदीप्यमान भास्कर की तरह चमकने वाले प्रेमचंद किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे अपने बारे में कहते थे- मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं खड्ढे तो हैं पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहां निराशा ही होगी। मेरा जन्म संवत् 1937 (31 जुलाई, सन् 1880) में बनारस के एक छोटे से गांव लमही में हुआ था। पिता डाकखाने में क्लर्क थे, माता मरीज, एक बड़ी बहन भी थीं। उस समय पिताजी शायद 20 रुपये पाते थे, 40 तक पहुंचते-पहुंचते उनकी मृत्यु हो गई। यों वह बड़े विचारशील, जीवन-पथ पर आंखें खोलकर चलने वाले आदमी थे, लेकिन आखिरी दिनों में एक ठोकर खा ही गए और खुद तो गिरे ही थे, उसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया। 15 साल की अवस्था में उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और विवाह के साल ही भर बाद परलोक सिधारे। उस समय मैं नवें दर्जे में पढ़ता था, घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थीं, उनके दो बालक थे और आमदनी एक पैसे की नहीं। घर में जो कुछ लेई-पूंजी थी, वह पिताजी की छह महीने की बीमारी और क्रियाकर्म में खर्च हो चुकी थी। और मुझे अरमान था वकील बनने का और एमए पास करने का, नौकरी उस जमाने में भी इतनी दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है। दौड़-धूप करके दस बारह की कोई जगह पा जाता, पर यहां तो आगे पढ़ने की धुन थी. पांव में लोहे की नहीं अष्टधातु की बेड़ियां थीं और मैं चढ़ना चाहता था पहाड़ पर। साफ जाहिर होता है एक संघर्ष जो उन्हें बचपन से जगह जगह मिला और उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी उमड़ उमड़ कर आया।

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कालजयी रचनाकार प्रेमचंद की कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, संपादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। समाज सुधार, देशप्रेम, स्वाधीनता संग्राम से ओत-प्रोत उनकी कहानियों में पंच परमेश्वर, शतरंज के खिलाड़ी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, जुर्माना, सद्गति जैसी अनेकों रचनाएँ आज भी पठनाराध्य योग्य है। उनके उपन्यासों गोदान, गबन, सेवा सदन, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, निर्मला, प्रेमा, कायाकल्प, रंगभूमि, कर्मभूमि, मनोरमा, वरदान, मंगलसूत्र (अधूरा उपन्यास) ने उन्हें उपन्यास सम्राट के नाम से दुनियाभर में ख्याति दिलायी। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और न ही प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। वे हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक साहित्यकार हैं। हिंदी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की उन्होंने एक नयी परम्परा की शुरूआत की। उनकी लगभग सभी रचनाओं का विश्व की अग्रणी भाषाओं में अनुवाद किया गया। देहावसान 8 अक्तूबर, 1936 तक उनकी कहानियों का संग्रह मानसरोवर आठ खंडों में प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया है। मुंशी प्रेमचंद जनजीवन और मानव प्रकृति के पारखी थे। उनकी जन्मशती सन् 1980 में गोरखपुर में उनके सम्मान में 30 पैसे वाला डाक टिकट भी निकाला गया। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। गोरखपुर में प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी जहां भित्तिलेख है व उनकी प्रतिमा भी स्थापित है।

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प्रेमचंद ने अपने व्यवसाय का आरंभ एक पुस्तक विक्रेता के रूप में की थी ताकि उन्हें ज्यादा से ज्यादा किताबें पढ़ने का मौका मिल सके। उन्होंने अपना पहला साहित्यिक काम गोरखपुर से उर्दू में शुरू किया था। इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने हिंदी से पहले उर्दू में लिखना शुरु किया था। उनकी पहली रचना "सोज-ए-वतन" थी। सन् 1910 में, जब प्रेमचंद की रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए जिला कलेक्टर ने उन्हें तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाकर, सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। बीमार रहने के बावजूद भी उनकी एक ही ख्वाहिश थी, कि अपने अंतिम उपन्यास “मंगल सूत्र” को ख़तम करें परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पाया। उनके द्वारा लिखा गया “गोदान” उपन्यास गद्य का महाकाव्य माना गया है। कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद शिक्षक की पहली पोस्टिंग वही हुई थी, जहां उन्‍होंने प्राथमिक शिक्षा ली थी। वे महात्‍मा गांधी के ओजस्‍वी भाषण सुनकर इतने प्रभावित हो गए थे, कि उन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत में सरकारी नौकरी से त्‍यागपत्र दे दिया और स्‍वतंत्र लेखन करने लगे। वे अपने अंतिम दिनों में भी वे साहित्य से ही जुड़े रहे। उनका सम्पूर्ण जीवन ही एक रोचक कहानी है। उनके फटे जूते से झाँकता अंगूठा उनकी गरीबी का जीता जागता प्रमाण था। जहाँ तक उनके नामों का सवाल है तो इनकी कहानी गंगा नदी की तरह है। अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नाम। असली नाम धनपतराय श्रीवास्तव घर का दिया हुआ था। अंग्रेजों की नाक में नकेल डालन के लिए चाचा के द्वारा दिए गए नवाबराय छद्म नाम से लिखने लगे। अंग्रेजों द्वारा सोजे वतन जब्त करने के बाद उन्होंने उस नाम का त्याग कर दिया। जमाना के संपादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें नवाबराय से प्रेमचंद बनने की सलाह दी। उयह उन्हें बहुत पसंद आया। उसके बाद से प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। जहाँ तक उनके नाम के साथ मुंशी शब्द का सवाल है, यह प्रयोग गलत माना जाता है। वे पेशे से कभी भी मुंशी नही रहे। प्रेमचंद के मुंशी प्रेमचंद बनने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। हुआ यूँ कि मशहूर विद्वान और राजनेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से प्रेमचंद के साथ मिलकर हिंदी में एक पत्रिका निकाली. नाम रखा गया-’हंस’। यह 1930 की बात है। पत्रिका का संपादन केएम मुंशी और प्रेमचंद दोनों मिलकर किया करते थे। तब तक केएम मुंशी देश की बड़ी हस्ती बन चुके थे। वे कई विषयों के जानकार होने के साथ मशहूर वकील भी थे। उन्होंने गुजराती के साथ हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के लिए भी काफी लेखन किया। चूंकि वे प्रेमचंद से आयु में सात साल बड़े थे, इसलिए हंस पत्रिका में संपादक के तौर पर उनका नाम पहले और प्रेमचंद का नाम बाद में लिखा जाता था। इस तरह हंस पत्रिका से आरंभ हुई संपादकद्वय की यह जोड़ी मुंशी-प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हो गई। ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्हें हिंदी का उपन्यास सम्राट कहा जाता है। यह उपाधि बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद्र ने दी थी। वे क्या थे उन्हें समझने के लिए नीचे दी गयी पंक्तियाँ अत्यंत उपयुक्त लगती हैं-


युगों-युगों की मिसाल बनकर, पथ दिखाते मशाल बनकर।

धन्य हुआ हिंदी साहित्य, हे उपन्यास सम्राट! तुझे पाकर।।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'

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