सियासत की दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं होता है। यहां रिश्ते बेईमानी हैं तो इस दुनिया में न दोस्ती शिद्दत से निभाई जाती है और न ही दुश्मनी निभाने का सलीका किसी को आता है। कौन किसको, कब किस मोड़ पर दांव दे दे, कोई नहीं जानता है। इस दुनिया का यही दस्तूर है, 'दिल मिले न मिले, हाथ मिलाते जाइए।' सियासी दुनिया दो हिस्सो में बंटी नजर आती है। एक के हिस्से में सिर्फ नारे लगाना, दरी बिछाना, कुर्सी लगाना और नेताजी के आगे−पीछे परछाई की तरह चहल−कदमी करना आता है और दूसरा हिस्सा सियासत की मलाई मारता है। इसके अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। इसीलिये तो देश की सबसे बड़ी और बूढ़ी कांग्रेस पार्टी एक परिवार की बपौती बन गई है। कांग्रेस में तो इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि सत्ता कहीं दूसरे परिवार के हाथ में न फिसल जाये, इसीलिये राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी को सियासत से दूर रखा जाता है। कांग्रेस में ऐसे नेताओं का बड़ा धड़ा है जो प्रियंका को राहुल गांधी से बेहतर नेता मानते हैं, लेकिन वह इसलिये मुंह नहीं खोलते हैं कि दस जनपथ (सोनिया गांधी का घर) नाराज हो जायेगा। इसी प्रकार शिवसेना में बाल ठाकरे की जगह उनके बेटे उद्धव ठाकरे ले लेते हैं। जबकि सियासी रूप से बाल ठाकरे का भतीजा राज ठाकरे उनके ज्यादा करीब था। शिवसेना में अनदेखी के बाद राज ठाकरे अपनी अलग पार्टी बनाकर सियासत कर रहे हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार अपनी बेटी को आगे बढ़ाने के लिये कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
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परिवारवाद की मुखालफत करने वाले समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया को अपना गुरु बताने वाले लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने भी अपने गुरु डॉ. लोहिया के बताए रास्ते पर चलना उचित नहीं समझा। लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को खड़ा करने में कितने नेताओं ने 'कुबार्नी' दी होगी, लेकिन लालू यादव को जब अदालत ने किसी संवैधानिक पद पर बैठने के लिये अयोग्य करार दिया तो उनकी पत्नी राबड़ी देवी सीएम की कुर्सी की हकदार बनीं, जो सीएम की कुर्सी पर बैठने से पूर्व तक किसी सियासी मंच पर नहीं दिखाई दीं थीं। उनके पास लालू की पत्नी होने के अलावा कोई योग्यता भी नहीं थी। जबकि राबड़ी से कहीं अधिक योग्य और परिपक्व नेता पार्टी में मौजूद थे। सीएम की कुर्सी ही नहीं लालू के बाद उनकी पार्टी की कमान भी उनके बेटे संभाल रहे हैं।
लालू की तरह ही मुलायम सिंह भी डॉ. लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं, लेकिन मुलायम के पूरे सियासी जीवन में कभी ऐसा नहीं दिखा जिससे लगे कि वह लोहिया जी से प्रभावित थे। मुलायम की पूरी सियासत परिवारवाद की ही धुरी पर नाचती रही। आज की तारीख में हिन्दुस्तान की सियासत में मुलायम से बड़ा कोई सियासी कुनबा नही है। राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी पर, लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह ने इसे खूब आगे बढ़ाया।
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करीब 20−21 सदस्यों के साथ मुलायम का कुटुंब किसी भी पार्टी में सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के होने का दावा कर सकता है। आज भले ही समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश के हाथ में हो लेकिन मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के अगुआ और पार्टी संस्थापक हैं। उन्होंने 4 अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी का गठन किया था। अपने राजनीतिक कॅरियर में वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। मुलायम ने सियासत में अपना कुनबा उतारने के क्रम में सबसे पहले अपने भाई शिवपाल को तवज्जो दी। मुलायम ने बड़ी चालाकी के साथ अपने परिवार के सियासत में आगे बढ़ाया। वह सबसे पहले किसी विधान सभा या लोकसभा क्षेत्र से स्वयं चुनाव लड़ते और जीतने के बाद स्वयं के लिये कोई और संसदीय क्षेत्र या विधान सभा चुन लेते और अपनी जीती हुई सीट पर परिवार के किसी और सदस्य को चुनाव लड़ाकर जिता देते थे।
इसी क्रम में 1996 में सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपनी जसवंतनगर की सीट छोटे भाई शिवपाल के लिए खाली कर दी थी। शिवपाल का जसवंतनगर की विधानसभा सीट पर आज तक कब्जा बरकरार है, लेकिन अब वह बागी हो चुके हैं और अपना अलग दल भी बना लिया है। शिवपाल के बाद मुलायम ने 2004 में संभल सीट रामगोपाल के लिए छोड़ दी थी और खुद मैनपुरी से सांसद का चुनाव लड़ा। रामगोपाल भी इस सीट से जीत हासिल करके संसद पहुंच गये। मुलायम ने 1999 का लोकसभा चुनाव संभल और कन्नौज दोनों सीटों पर लड़ा और जीता। इसके बाद सीट अपने बेटे अखिलेश के लिए कन्नौज की सीट खाली कर दी। अखिलेश ने कन्नौज की सीट से चुनाव लड़ा और जीता। इसी के साथ उनकी भी राजनीति में एंट्री हो गई। 2012 में अखिलेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
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2004 में मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी से चुनाव लड़ा और जीता। बाद में यह सीट अपने भतीजे धर्मेंद्र यादव के लिए खाली कर दी। उस वक्त उन्होंने 14वीं लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद बनने का रिकार्ड बनाया। मुलायम के सिलसिले को बेटे अखिलेश ने भी आगे बढ़ाया। अखिलेश यादव ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कन्नौज और फिरोजाबाद से जीत कर फिरोजाबाद की सीट की अपनी पत्नी डिंपल यादव के लिए छोड़ दी, लेकिन वह मुलायम की तरह भाग्यशाली नहीं रहे, उनकी पत्नी डिंपल को कांग्रेस उम्मीदवार राज बब्बर ने हरा दिया। पहली बार में इस खेल में मात खाने के बावजूद अखिलेश का भरोसा इस फार्मूले से नहीं टूटा। 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने अपनी कन्नौज लोकसभा सीट एक बार फिर डिंपल के लिए खाली की। इस बार सूबे में सपा की लहर का आलम ये था कि किसी भी पार्टी की डिंपल के खिलाफ प्रत्याशी उतारने की हिम्मत नहीं हुई और वो निर्विरोध जीतीं।
तेज प्रताप यादव सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के पोते हैं। वे मैनपुरी से सांसद हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों सीटों से चुनाव लड़ा था। इसके बाद उन्होंने अपनी पारंपरिक सीट मैनपुरी खाली कर दी थी। इस सीट पर उन्होंने अपने पोते तेज प्रताप यादव को चुनाव लड़ाया। तेज प्रताप ने भी अपने दादा को निराश नहीं किया और बंपर वोटों से चुनाव में जीत हासिल की। साथ ही राजनीति में धमाकेदार एंट्री की।
अक्षय यादव मौजूदा समय में फिरोजाबाद से सपा सांसद हैं। अखिलेश यादव ने वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में फिरोजाबाद और कन्नौज से चुनाव लड़ा था। यहां से डिम्पल यादव ने भी किस्मत आजमाई थी लेकिन जीत उन्हें कन्नौज लोकसभा क्षेत्र से हासिल हुई। सांसद और विधायक के अलावा भी मुलायम परिवार के कई सदस्य तमाम पदों पर विराजमान हैं। मुलायम के भाई राजपाल यादव की पत्नी प्रेमलता यादव 2005 में इटावा की जिला पंचायत अध्यक्ष चुनी गई थीं। मुलायम और अखिलेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके शिवपाल यादव की पत्नी सरला यादव को 2007 में जिला सहकारी बैंक इटावा का राज्य प्रतिनिधि बनाया गया था। इसी तरह से शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव जो कभी जसवंत नगर लोकसभा क्षेत्र के एरिया इंचार्ज हुआ करते थे, बाद में यूपीपीसीएफ के चेयरमैन बने। राजपाल और प्रेमलता यादव के बड़े बेटे हैं अंशुल यादव जो 2016 में इटावा से निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए। सपा सुप्रीमो की भतीजी और सांसद धर्मेंद्र यादव की बहन संध्या यादव ने जिला पंचायत अध्यक्ष के जरिए राजनीतिक एंट्री की है। उन्हें मैनपुरी से जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए निर्विरोध चुना गया था। संध्या यादव को मैनपुरी से जबकि अंशुल यादव को इटावा से निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष चुना गया है।
यहां तक तो यह कुनबा खूब फलता−फूलता रहा, लेकिन मुलायम के हाथों से समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश में आने के बाद स्थितियां काफी बदल गईं। मुलायम की सियासी पटल से विदाई के बाद शिवपाल यादव बागी हो गये। इस दौरान मुलायम सिंह भाई और बेटे की सियासत के बीच पैंडुलम की तरह घूमते रहे। कभी वह शिवपाल के साथ दिखाई देते तो कभी अखिलेश को आशीर्वाद देते दिख जाते, लेकिन जानकारों का यही कहना था कि मुलायम दिल से हमेशा अखिलेश के साथ ही रहे। अब तो ऐसा लगता है कि मुलायम बेटे अखिलेश की सियासत को बचाने के लिये अपने भाई शिवपाल को चरखा दांव से पटकनी देने की भी 'साजिश' रच रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो मुलायम, शिवपाल के कार्यक्रम में बेटे अखिलेश और उसके नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी को मजबूत करने की बात नहीं करते।
गौरतलब है कि रमाबाई आंबेडकर मैदान में 09 दिसंबर 2018 को शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की पहली रैली थी। अपनी सियासी ताकत दिखाने और समाजवादी पार्टी के वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये शिवपाल ने खूब पसीना बहाया और अच्छा खास मजमा भी जुटा लिया। शिवपाल यह मानकर चल रहे थे कि मुलायम सिंह नहीं आयेंगे। इसीलिये अपवाद को छोड़ किसी पोस्टर में मुलायम की फोटो नहीं लगाई गई थी। सब कुछ ठीकठाक चल रहा था, शिवपाल भीड़ को देखकर आत्मविभोर थे, लेकिन रैली का मिजाज तब बदल गया, जब छोटी बहू अपर्णा यादव संग अचानक लाल टोपी और सपा के झंडे के रंग का मफलर डाले मुलायम सिंह सभा स्थल पर पहुंच गए। मंच पर मुलायम को पाकर शिवपाल ने उन्हें रैली की अध्यक्षता दे दी और सपा छोड़ने का दर्द भी बयां किया, लेकिन जब मुलायम ने माइक संभाला तो शिवपाल की उपेक्षा के सवाल पर तो चुप्पी साध गए, लेकिन सपा की सरकार बनवाने की अपील जरूर कर डाली। इसकी वजह से उन्हें टोका−टोकी भी झेलनी पड़ी।
मुलायम सिंह यादव ने माइक संभालते ही सांप्रदायिकता की चुनौतियां गिनाना शुरू करीं और इसके समाधान का रास्ता उन्होंने सपा को बताया। मुलायम का बार−बार सपा बोलना समर्थकों को नागवार गुजरा और उन्होंने नारेबाजी शुरू कर दी। इस पर शिवपाल ने स्थिति संभाली और कहा कि प्रगतिशाली समाजवादी पार्टी है। मुलायम ने कहा, सब एक ही हैं। प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को मजबूत करें। रैली से फिर आवाज आई कि शिवपाल को आशीर्वाद दें। मुलायम ने शिवपाल के सिर पर हाथ रखा और कहा, ये मेरे भाई हैं। इन्होंने बहुत संघर्ष किया है। रैली में भीड़ जुटाने के लिए उन्होंने शिवपाल की तारीफ की। मुलायम बोले, शिवपाल के हाथ मजबूत करो, सपा की सरकार बनवाओ। मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव ने खुलकर शिवपाल यादव के पाले में खड़े होने का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि परिवर्तन के लिए नए विकल्प को चुनें।
प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की पहली रैली में ही शिवपाल सिंह यादव ने रविवार को अपनी पुरानी पार्टी के कोर वोट बैंक पर दावा ठोंक दिया। मंच पर सपा के तमाम पुराने चेहरों को जगह दी तो भाजपा और मंदिर के मुद्दे पर हमलावर रुख दिखा साथ ही मुस्लिमों को लुभाने की कोशिश की। यहां तक कि मुलायम सिंह के दौर में अयोध्या में हुए गोलीकांड तक की याद दिला डाली। विधान सभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री योगी के पैर छूने व भाजपा के पाले में खड़े रहने वाले निर्दलीय विधायक अमन मणि त्रिपाठी के अलावा राज्यसभा चुनाव में भाजपा को वोट करने वाले निर्दलीय विधायक विजय मिश्र शिवपाल के मंच पर दिखे। मंच पर मुलायम के कई करीबी भी दिखाई दिए। इसमें पूर्व सांसद भगवती सिंह, राज्यसभा सांसद सुखराम यादव, पूर्व सांसद रघुराज शाक्य, डॉ. सीपी राय, पूर्व मंत्री शारदा प्रताप शुक्ला, शादाब फातिमा, कमाल यूसुफ मलिक, पूर्व सांसद वीरपाल यादव, पूर्व एमएलसी रामनरेश यादव, पूर्व विधायक प्रमोद गुप्ता, आशीष यादव, सुखदेवी वर्मा, संध्या कठेरिया, सुंदरलाल लोधी, अभिषेक सिंह आशू जैसे चेहरे शामिल रहे।
लब्बोलुआब यह है कि अभी तो नहीं लेकिन अगर शिवपाल इसी तरह से सियासी पंख फैलाते रहे तो अखिलेश के लिये मुश्किल खड़ी हो सकती है। कुछ माह बाद लोकसभा चुनाव होने हैं। इसमें अगर अखिलेश की समाजवादी पार्टी ठीकठाक सीटें नहीं जीत पाई तो कुछ और नेता भी अखिलेश का साथ छोड़ने में गुरेज नहीं करेंगे। यह भी तय है कि शिवपाल जितनी ताकत के साथ लोकसभा चुनाव लड़ेंगे उतना ही नुकसान समाजवादी पार्टी को होगा। भले ही शिवपाल भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुए हों, लेकिन उनके अंतरात्मा की आवाज तो यही कहती होगी कि उनके लिये बीजेपी नहीं वह समाजवादी पार्टी नंबर एक दुश्मन है जिसे खड़ा करने के लिये उन्होंने (शिवपाल) अपनी जिंदगी के 40 साल लगा दिये थे और इसके बदले में उन्हें तिलांजलि मिली।
-अजय कुमार