मुफ्ती सईद की राजनीति, रूबिया सईद अपहरण और महबूबा के अलगाववाद को समर्थन की पूरी कहानी

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By अभिनय आकाश | Nov 03, 2020

मुफ्ती सईद की राजनीति, रूबिया सईद अपहरण और महबूबा के अलगाववाद को समर्थन की पूरी कहानी

ये आज के भारत का नक्शा है और ये 15 अगस्त 1947 का भारत है। इसमें जम्मू कश्मीर राज्य दिख तो रहा है लेकिन आजादी के वक्त ये भारत का हिस्सा नहीं था। एक तरह से स्वतंत्र राज्य था। उस वक्त यहां के राजा थे हरिसिंह। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने देर कर दी इसलिए आज भी हम कश्मीर समस्या को सुलझा नहीं पाए। कुछ लोग कहते हैं कि पंडित नेहरू यूएन चले गए इसलिए आज भी ये समस्या है हमारे सामने और कुछ लोग कहते हैं कि ये समस्या पाकिस्तान ने बनाई है। आज बात कश्मीर की करेंगे। कश्मीर की राजनीतिक पार्टी की भी करेंगे। देश के गृह मंत्री की बेटी के अपहरण की करेंगे और उसके बाद सड़क पर लहराते बंदूकों के जश्न की भी करेंगे। 

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जम्मू कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (जेकेपीडीपी) की स्थापना पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और जम्मू कश्मीर के मुख्‍यमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1999 में की थी। वर्तमान में इसकी मुखिया सईद की बेटी मेहबूबा मुफ्ती हैं। क्षेत्रवादी विचारधारा में विश्वास करने वाली पीडीपी का चुनाव चिह्न कलम और दवात है। सईद का राजनीतिक सफर 1950 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस से शुरू हुआ था, लेकिन 1959 में वे नेकां से अलग होकर डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ़्रेंस और फिर कांग्रेस में चले गए। वर्ष 1987 में वे कांग्रेस से बाहर चले आए और वीपी सिंह सरकार में गृहमंत्री बने। वर्ष 2002 के राज्य विधानसभा चुनाव में पीडीपी ने 16 सीटें जीतकर कांग्रेस के साथ सरकार बनाई, जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में इसे मात्र एक सीट मिली। 2008 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को 21 सीटें मिलीं। 2014 में इसका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा। विधानसभा चुनाव में इसे 28 सीटें मिलीं, जबकि 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में 3 सीटें मिलीं।पीडीपी ने 2014 की जीत के बाद भाजपा के सहयोग से राज्य में सरकार बनाई, लेकिन यह गठबंधन लंबे समय तक नहीं चल पाया और 2018 में यह सरकार गिर गई। बाद में राज्य में राज्यपाल शासन लगाया गया।

1983 में जब मुफ्ती ने कांग्रेस छोड़ी तो उस वक्त कहा था 'इंदिरा गांधी तो दिल्ली में रहती है, मैं तो कश्मीरियों के बीच रहता हूं। कश्मीर में मुफ्ती ने राजनीति तब शुरू की जब शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता चरम पर थी। ये भी अजब संयोग है कि शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता में कभी कमी तब आई जब उन्होंने इंदिरा गांधी से समझौता कर लिया और मुफ्ती मोहम्मद तब लोकप्रियता के रास्ते पर निकले जब उन्होंने इंदिरा का साथ छोड़ा, कांग्रेस का साथ छोड़ा और घाटी की उस शून्यता को भरने निकल पड़े जो सियासी बिसात पर दिल्ली का प्यादा बनकर कश्मीरित को ही खारिज हमेशा से करती रही। इसीलिए मुफ्ती ने अलगाववादियों को कभी खारिज नहीं किया। हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट तो उनके कालेज के सहपाठी रहे और मुफ्ती की सियासी बिसात को अक्सर नर्म अलगाववाद के तौर पर ही देखा और माना गया। मुफ्ती ने बंदूक उठाए युवा कश्मीरी को कश्मीर का खिलाड़ी मानने में कई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। मुफ्ती सईद और फारूक की पुरानी अदावत की वजह से केंद्र ने जगमोहन को राज्यपाल बनाकर कश्मीर भेजने का फैसला किया। जिसके बाद फारूक अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया। 19 जनवरी 1990 की रात एक संवैधानिक की रात थी। मुख्यमंत्री और गवर्नर कृष्णा राव दोनों के इस्तीफे हो गए थे। अगले दिन जब तक नए गवर्नर जगमोहन शपथ लेने पहुंचते पैरामिलिट्री एक्शन में कई लोगों की जाने गई, श्रीनगर के छोटा बाजार इलाके में रात भर सर्च अभियान चली। कुछ ही महीनों में कश्मीरी पंडितों पर हमले शुरू हुए और उनका पलायन शुरू हो गया। इसके बाद से कश्मीर का भविष्य क्या होगा इसका पता आने वाले कल के अलावा किसे को नहीं था। 

ओबीसी और मुस्लिम के रुप में नए सोशल काम्बिनेशन बनाने की चाह में वीपी सिंह को एक मुस्लिम नेता की जरूरत थी जो उन्हें चुनौती न दे सके। 1950 से राजनीति में सक्रिय  नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद जिन्होंने 1975 के इंदिरा गांधी शेख अब्दुल्ला पैक्ट की वजह से  कमजोर हुई कांग्रेस को फिर से खड़ा किया था। 1987 को राजीव फारूक समझौता के बाद मुफ्ती ने जन मोर्चा ज्वाइन कर लिया। कश्मीर घाटी की तीन लोकसभा सीटों में से एक श्रीनगर पर एक उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए। बारामूला और अनंतनाग में वोटिंग प्रतिशत क्रमश: 5.48 और 5.07 रहा। इसी वजह से मुफ्ती मोहम्मद सईद मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़े और लोकसभा के सदस्य बने। लेकिन मुफ्ती का राजनीतिक सफर एलओसी खीचे जाने के वक्त से शुरू हुआ था और उनकी पुत्री का सफर 1989 के आतंक के इस खौफ के बीच शुरू हुआ था। 

रूबिया सईद अपहरण

13 दिसंबर 1989 को श्रीनगर की सड़कों पर आंतक का हुजूम जीत के लिए निकला था। आंतकी जश्न श्रीनगर की सड़कों पर बंदूर लहराते हुए निकले थे। गली गली में एक नारा गूंज रहा था। जो करे खुदा का खौफ, उठा ले कलाश्निकोव। इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए आपको कुछ दिन पहले लिए चलते हैं। 

8 दिसंबर 1989, शुक्रवार का दिन था। श्रीनगर में ठंड काफी बढ़ गई थी। दोपहर के करीब साढ़े तीन बजे थे। 23 साल की मेडिकल इंटर्न अपनी ड्यूटी खत्म करके लालदेड़ मेडिकल हॉस्पिटल के बाहर निकली। इतने बड़े राजनीतिक घराने की बेटी होने के बावजूद वो बस से आना जाना करती थी। बाकी दिनों की तरह ही उस मेडिकल इंटर्न ने बस स्टाप पर थोड़ी देर इंतजार करने के बाद एक मिनी बस में सवार हो गई। कश्मीर में तब तक स्थिति बिगड़ चुकी थी। कोई भी अगर किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से संबंध रखता था तो उसे अपनी सुरक्षा के बारे में सावधानी बरतना जरूरी था। रूबिया सईद तो मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी थी। जिन्होंने करीब पांच दिन पहले ही देश के पहले मुस्लिम गृह मंत्री के रूप में शपथ ली थी। बस एक जहग रूकी और कुछ लोग चढ़े। थोड़ी देर बाद बस ने अपने रास्ते की दिशा बदली और तीन लोग रूबिया सईदको घेर कर खड़े हो गए। उनमें से एक नाम यासिन मलिक का था। उनके खिलाफ अभी भी अपहरण का केस चल रहा है। थोड़ी दूर जाने के बाद बस रूकी उन तीनों ने बंदूक निकालकर रूबिया सईद को बस से नीचे उतरने को कहा। अपहरणकर्ता की मांग थी-

  • 5 जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) नेताओं की रिहाई
  • मकबूल बट्ट को दिल्ली के तिहाड़ से श्रीनगर लाया जाए

रूबिया सईद के अपहरण के वक्त फारूक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। फारूक की राय में अपहरणकर्ताओं की मांग नहीं माननी चाहिए। वहीं केंद्र सरकार के हिसाब से प्राथमिकता रूबिया सईद की जिंदगी और रिहाई का था। गृह मंत्री की बेटी का अपहरण और इनके नुकसान की सूरत में राजा साहब यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह की नई नवेली सरकार के लिए बड़ी हार सरीखे होती। ऐसे में इंद्र कुमार गुराल, जार्ज फर्नान्डिस, आरिफ मोहम्मद खान पर्दे के पीछे बातचीत के प्लान को अंजाम दे रहे थे। इस फैसले का समर्थन बीजेपी ने भी किया। अंतत: केंद्र सरकार और एक बेटी और उसकी सुरक्षा को ज्यादा अहमियत दी गई। फारूक ने इस प्रस्ताव की खिलाफत की। मगर सरकार को बर्खास्त किए जाने के डर से चुप हो गए। 1989 में भारत सरकार ने जेकेएलएफ के कैदियों को रिहा किया और कुछ घंटों बाद रूबिया भी अपने घर पहुंच गई। जितनी मुंह उतनी बातें लोगों ने यहां तक कहा  कि एक पिता ने जानबूढकर अपनी बेटी को किडनैप करवाया ताकि आतंकवादियों को छुड़वाया जा सके। बहरहाल, 13 दिसंबर 1989 को श्रीनगर की सड़कों पर आतंक का हुजूम जीत के जश्न के लिए सड़कों पर निकला था। रूबिया सईदसईद को जब घर लाया जा रहा था। कश्मीर की सड़कों पर लोग खुशियां मना रहे थे। नाच रहे थे, पटाखे जला रहे थे, लेकिन रूबिया सईदकी रिहाई पर नहीं बल्कि 5 जेकेएलफ के कैदियों की रिहाई पर। 122 घंटे कैद में रहने के बाद रुबैया सईद घर जा रही थी। गली गली में एक नारा गूंज रहा था- ''जो करे खुदा का खौफ उठा ले उसे कलाश्निकोव''। उस वक्त रूबिया की रिहाई के लिए दिल्ली आतंकवादियों के सामने झुकी थी। आतंक के इस जश्न में मुफ्ती मोहम्मद सईद की हार हुई थी। उस वक्त वो दिल्ली में बतौर गृह मंत्री हारे तो वादी में इम्ही कश्मीरियों के बीच हारे जिनके लिए उन्होंने भारतीय बनकर संघर्ष किया था। घाटी में कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम और उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने का सिलसिला शुरू हो गया था।

महबूबा मुफ्ती की पीडीपी

वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनावों में पीडीपी ने हिरासत में लिए गए कथित चरमपंथियों के रिहा किए जाने की बात और जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की कथित ज़्यादतियों की बात ज़ोरशोर से उठाई। इस पूरी विचारधारा पर मुफ़्ती मोहम्मद सईद से ज़्यादा उनकी बेटी महबूबा मुफ़्ती के व्यक्तित्व और राजनीति की छाप स्पष्ट नज़र आई। वर्ष 2008 में हो रहे चुनावों में पीडीपी ने ‘स्वशासन का नारा’ लगाया। पार्टी के मुताबिक स्वशासन के लिए भारतीय संविधान में व्यापक परिवर्तन की ज़रूरत है। इन बदलावों में प्रमुख हैं - संविधान का अनुच्छेद 356 जम्मू-कश्मीर पर लागू न हो और अनुच्छेद 249 भी लागू न हो जिससे राज्य के कार्यक्षेत्र में आने वाले विषयों पर भारतीय संसद क़ानून न बना सके। 

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बीजेपी पीडीपी गठबंधन

लंबे जद्दोजहद के बाद जम्मू कश्मीर में सरकार गठन को लेकर चल रही सियासी रस्साकशी खत्म हुई। उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और पीडीपी महबूबा मुफ्ती की मुलाकात के बाद दोनों पाटियां जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने को लेकर राजी हो गई। मुफ्ती सईद प्रदेश के नए सीएम बनें, जबकि बीजेपी के निर्मल सिंह डिप्टी-सीएम। वहीं महबूबा ने कहा, ये सरकार सिर्फ पावर शेयरिंग के लिए नहीं बल्कि ये सरकार राज्य के लोगों के दिल को जीतने के लिए काम करेगी। लेकिन राज्य में तेजी से बदलते हालात के बाद दोनों पार्टियों का गठबंधन टूटा साथ ही राष्ट्रपति शासन लगने के बाद जम्मू कश्मीर से धारा 370 का भी हमेशा के लिए खात्मा हो गया। 

हाल ही में रिहा हुई महबूबा

पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती हाल ही में नज़रबंदी से रिहा की गई हैं। जिसके बाद से घाटी में राजनीतिक हलचल बढ़ी है। महबूबा मुफ्ती ने हाल ही में तिरंगा पर बयान दिया था। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस समेत कई पार्टियों ने मिलकर एक बार फिर अनुच्छेद 370 को वापस लाने की मांग की है। पार्टियों की ओर से एक गठबंधन बनाया गया है, गुपकार समझौता किया गया है। 

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