विभाजन के बीज बो रहीं ममता के खिलाफ आंदोलन जरूरी

By डॉ. दिलीप अग्निहोत्री | Jun 08, 2017

पश्चिम बंगाल दशकों से वोट बैंक की राजनीति का शिकार है। कांग्रेस के बाद यहां तीस वर्ष तक वामपंथियों का शासन रहा। इसके बाद ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जनादेश मिला। कहने को सरकारें बदलीं लेकिन तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति उसी तरह चलती रही। यही कारण है कि इस प्रदेश की दशा बद से बदतर होती गयी। जब किसी सरकार में उद्योगों के लिए बजट मदरसा शिक्षा से कम हो, तो उसकी प्राथमिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। यही पश्चिम बंगाल की त्रासदी है। वामपंथियों की सरकार का नैनो कार का कारखाना लगवाने में दम निकल गया था, अनेक किसान मारे गए और कारखाना नहीं लग सका। यही कारखाना गुजरात में स्थापित हो गया था क्योंकि वहां विशेष आर्थिक जोन पहले से स्थापित था। पश्चिम बंगाल की सरकारें वोटबैंक में उलझी रहीं इसलिए अवैध घुसपैठ को रोकने का प्रयास नहीं किया। वरन् उन्हें मतदाता बनाया गया। सभी सुविधाएं दी गयीं। कट्टरपंथियों को पैर जमाने का अवसर मिला। अपने को सेक्यूलर बताने वाले नेता तुष्टीकरण पर अमल करते रहे।

हाल ही में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की लखनऊ में सम्पन्न राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद ने पश्चिम बंगाल की स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की। बैठक के अंतिम दिन परिषद ने खासतौर पर पश्चिम बंगाल पर प्रस्ताव पारित किया। कहा गया कि वहां तृणमूल सरकार ने तुष्टीकरण की सभी हदें पार कर ली हैं। राष्ट्रविरोधी तत्वों के हौसले बुलन्द हैं। पाकिस्तान के समर्थन में तकरीर करने वाले मुस्लिम धर्मगुरु खुलेआम घूम रहे हैं। कुछ समय पहले टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम तो लाल बत्ती लगी कारों के काफिले से घूमते थे। उनका कहना था कि खुद मुख्यमंत्री ने उन्हें इसकी इजाजत दी है। जाहिर है यह सब वोट बैंक की राजनीति के अन्तर्गत किया जा रहा था। ममता बनर्जी इस सियासत में अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों कम्युनिस्टों और कांग्रेस को पीछ छोड़ देना चाहती हैं। दिल्ली पहुंच कर वह विपक्षी एकता की बात करती हैं। उनके नेताओं के साथ बैठक करती हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में वह कम्युनिस्ट पार्टियों व कांग्रेस का आधार छीन रही हैं। वोट बैंक की इस राजनीति का उन्हें तात्कालिक लाभ भी मिल रहा है। लेकिन इससे अलगाव के जो बीज बोए जा रहे हैं, उनके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। पश्चिम बंगाल के लिए यह बंग−भंग से कम बड़ा खतरा साबित नहीं होगा। इससे बंगाल की संस्कृति व भाषा पर भी हमला किया जा रहा है। जो इसके विरोध में आवाज उठाता है, उसका उत्पीड़न होता है। ममता बनर्जी का प्रशासन भी पीड़ित की जगह उत्पीड़न करने वालों के साथ उदारता दिखाता है। कुछ समय पहले मालदा के एक सांसद के नेतृत्व में उन्मादी भीड़ ने हिन्दुओं के घरों, दुकानों पर हमले किए थे लेकिन स्थानीय प्रशासन मूक दर्शक बना रहा। अक्सर हिन्दुओं के धार्मिक आयोजनों को अनुमति नहीं दी जाती जबकि अन्य लोगों पर कोई रोक नहीं होती। यह संविधान का उल्लंघन है जिसमें सरकार को ऐसा भेदभाव करने से रोका गया है। मजहबी आधार पर सरकार को किसी को तरजीह नहीं देनी चाहिए। सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। लेकिन संविधान की इस व्यवस्था पर वोटबैंक की सियासत भारी पड़ रही है। इसलिए यह केंद्र सरकार के हस्तक्षेप का विषय हो जाता है।

 

तुष्टीकरण के कारण जिहादियों की बढ़ती हिंसा पर राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद में गहन विचार विमर्श किया गया। इस पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गयी। जिहादी तत्वों को बढ़ावा देने के कारण कालियाचक से धुलागढ़ तक कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हिंसक हमले किए गए। उनकी सम्पत्ति पर कब्जे किए गए। इस कारण सीमावर्ती क्षेत्रों से हिन्दुओं का पलायन हो रहा है। सुरक्षा बलों व कई पुलिस थानों पर आक्रमण, लूटपाट व आपराधिक रिपोर्ट जलाने की घटनाओं को कार्यकारी परिषद ने राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून व्यवस्था तथा संवैधानिक तन्त्र के लिए गंभीर चुनौती माना है। इतना ही नहीं राज्य सरकार की उदासीनता के कारण मादक पदार्थों की तस्करी, गऊ−हत्या, घुसपैठ व नकली नोटों का धंधा तेजी से बढ़ रहा है। कुछ दिन पहले खगड़गढ़, पिंगला सहित कई स्थानों पर बम विस्फोट हुए थे। इसमें बांग्लादेश के आतंकी संगठन जमालउल−मुलाहिद्दीन का हाथ होने के सबूत मिले थे। इससे स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में अवैध बांग्लादेशियों के साथ−साथ आतंकी तत्वों की भी घुसपैठ हो चुकी है। ये राज्य की लचर कानून−व्यवस्था का लाभ उठाकर अपने पैर जमाने में लगे हैं।

 

शिक्षण व सामाजिक क्षेत्र में भी ऐसे कट्टरवादियों का प्रभाव स्थापित हो रहा है। ये अपने ढंग से पाठ्यक्रम व भाषायी−भाव बोध में परिवर्तन करा रहे हैं। बच्चों को हिन्दू परिवार वृक्ष, मुस्लिम परिवार वृक्ष पढ़ाया जा रहा है। बांग्ला संबोधन रिश्तों के नाम आदि को उर्दू, फारसी रंग दिया जा रहा है। रामधेनु शब्द आदिकाल से प्रचलित है। लेकिन राम शब्द के कारण इसे साम्प्रदायिक मान लिया गया। इसको आसमानी रंग बताया जा रहा है। राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद में आए पश्चिम बंगाल के प्रतिनिधियों ने ऐसे अनेक उदाहरण दिए। बांग्ला भाषा, सभ्यता, संस्कृति पर कुठाराघात किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों में हिन्दू अध्यापकों व विद्यार्थियों को मिलाद उल नवी जैसे त्योहारों में शामिल होने के लिए विवश किया जाता है। उनका शोषण व अपमान किया जाता है। अनेक शिक्षण संस्थानों में इस कारण तनाव बढ़ रहा है। दूसरी ओर हिन्दू त्योहारों पर संगोष्ठी, सार्वजनिक कार्यक्रम, जुलूस पर सुनियोजित हमले होते हैं, उन पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। राज्य सरकार मुस्लिम कट्टरवादियों के दबाव में कार्य कर रही है। यही कारण है कि मदरसा शिक्षा के लिए बजट चार सौ बहत्तर करोड़ रूपये से बढ़ाकर दो हजार आठ सौ करोड़ रूपये से ज्यादा कर दिया गया। विडम्बना यह कि उद्योगों के लिए इससे कम बजट आवंटित किया गया है। पश्चिम बंगाल में पहले से ही बेरोजगारी बहुत ज्यादा थी। औद्योगिक विकास व रोजगारपरक शिक्षा को प्रोत्साहन देकर इस समस्या के समाधान का प्रयास करना चाहिए था। लेकिन सरकार की प्राथमिकता में मदरसा शिक्षा महत्वपूर्ण है। जबकि इससे रोजगार नहीं बढ़ता, कट्टरवादी विचार अवश्य पनपते हैं।

 

कार्यकारी परिषद ने कट्टरवादिता की शिक्षा देने वाले मदरसों पर प्रतिबन्ध लगाने और उद्योगों को बढ़ावा देने की मांग रखी है। प्रस्ताव में अंग्रेजों द्वारा थोपे गए बंग−भंग की भी चर्चा की गयी। इसके माध्यम से अंग्रेजों ने विभाजन के बीज बोने का प्रयास किया था। लेकिन रविन्द्रनाथ टैगोर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसी महान विभूतियों के नेतृत्व में बांग्ला समाज ने इसका विरोध किया। उन्हें सफलता भी मिली। आज ममता बनर्जी विभाजन के बीज बो रही हैं। उनके खिलाफ भी ऐसे जन आन्दोलन की आवश्यकता है।

 

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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