बेहद कम तनख्वाह में गुजर-बहस कर रहे अधिकांश युवा

By मानवेंद्र कुमार | Apr 20, 2017

भारत में रोजगार की मौजूदा हालत काफी विस्फोटक है। जिस देश की दो तिहाई आबादी यानी 80 करोड़ जनता 35 वर्ष से कम आयु की हो और इनमें से तीस प्रतिशत से ज्यादा लोग बेरोजगार हों, तो स्थिति गंभीर ही मानी जाएगी। खासकर इसलिए भी कि बचे सत्तर प्रतिशत लोगों में भी ज्यादातर कोई जमी-जमाई या बहुत अच्छी अनख्वाह वाली नौकरी नहीं कर रहे हैं बल्कि उनमें भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है, जो अशंकालिक तौर पर नियोजित हैं और बेहद कम तनख्वाह में किसी तरह गुजर-बहस कर रहे हैं। यही वजह है कि देश में बढ़ती बेरोजगारी पर चिंता जताकर हर राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से युवाओं को साधने की कोशिश करते रहते हैं। उन्हें मालूम है कि 35 वर्ष तक के युवाओं की पहली प्राथमिकता निश्चित तौर पर अच्छे वेतन की नौकरी या प्रगतिशील व्यापार के अवसर प्राप्त करना है। तभी कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में भी युवाओं को दस करोड़ रोजगार के सपने दिखाए थे वहीं भाजपा ने भी करोड़ों युवाओं को रोजगार देने का वादा किया था।

दरअसल आगामी एक दशक में दस करोड़ नौकरियों के सृजन का मुद्दा लगभग सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे में है, भले ही वह महज चुनावी लाभ अर्जित करने की ही गरज से क्यों न हो। कांग्रेस ने 2014 के अपने घोषणापत्र में सत्ता में वापसी की सूरत में सरकार गठन के सौ दिनों के अंदर अपना रोजगार एजेंडा घोषित करने का वादा किया था, जिसमें नौकरियों के सृजन हेतु नये निवेश पर ध्यान देने की बात कही गई है। वैसे पिछली बार उसने सौ दिन के अंदर महंगाई घटाने का वादा किया था, जो मजाक बनकर रह गया।

 

बहरहाल, भाजपा ने भी रोजगार बढ़ाने को लेकर अपनी योजनाओं-कार्यक्रमों का जो विस्तृत खाका पेश किया है, उसमें मुख्य जोर निवेश, विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन देने, निर्यात में वृद्धि और कौशल विकास आदि पर है। पिछले दशक में यूपीए सरकार की अनोखी राष्ट्रीय विनिर्माण नीति से रोजगार सृजन तथा विनिर्माण आधारित विकास के एजेंडे का उदय हुआ लेकिन इस एजेंडे से नौकरियां तो नहीं बढ़ीं। हां, रोजगार विहीन विकास जरूर हुआ। भाजपा आर्थिक विकास करने तथा देश में विनिर्माण क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने हेतु औद्योगिक कॉरिडोर के निर्माण हेतु प्रतिबद्धता जता रही है। वैसे भाजपा ने रोजगार सृजन एवं कौशल विकास को रफ्तार देने का जो वादा किया है, उसमें पूंजीवादी व्यवस्था की धाक और जमने का ही अंदेशा है।

 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर लगातार कम से कम होते जा रहे हैं। रोजगार कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित हो गए हैं। रोजगार के मोर्चे पर देश को सुदृढ़ बनाने के लिए भाजपा ने भारत में व्यापार शुरू करने संबंधी प्रक्रिया में सुधार लाने, परमिट और ऋण सुविधाओं को सरल बनाने और कर प्रवर्तन प्रणाली में सुधार की पहल की है। ऐसी बातें तो लंबे समय से की जाती रही हैं लेकिन नतीजा क्या निकला। राष्ट्रीय कौशल विकास एजेंसी स्थापित कर भी उसने बड़ा ढिंढोरा पीटा था कि इससे रोजगार बढ़ेंगे। प्रशिक्षणार्थियों को नियुक्ति का प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के लिये प्रोत्साहन उपलब्ध कराने के नाम पर जमकर कंपनियों को प्रोत्साहन दिया गया और कंपनियों ने कम से कम नियुक्तियों के सहारे ज्यादा से ज्यादा लाभ जुटाया। दिक्कत यही है कि योजनाओं के नाम पर शुरुआत तो होती है लेकिन मकसद को साधने के लक्ष्य से मॉनिटरिंग नहीं होती। मनरेगा के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। रोजगार के अवसर तो छोड़िए, इससे श्रमिकों के हितों का संरक्षण भी नहीं हो पा रहा है, जिसे लेकर लंबे चौड़े दावे किए जाते हैं और रोज ब रोज श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए कानून में बदलाव की प्रतिबद्धता जताई जाती है।

 

वैसे भाजपा युवाओं की समस्याओं से कम चिंतित नजर नहीं आती। उसके पास भी युवाओं से वादे करने के लिए बहुत कुछ है। पार्टी ने रोजगार सृजन और उद्यमिता के अवसरों को अपनी उच्च प्राथमिकता में रखा है। लेकिन व्यापक आर्थिक पुनरुत्थान के जरिए। उसका दावा है कि सरकार लगातार भारी प्रभाव वाले क्षेत्रों जैसे कपड़ा, जूता, इलेक्टॉनिक सामान असेंबलिंग आदि और पर्यटन का रणनीतिक आधार पर विकास कर रही है। युवाओं को उद्योग तथा ऋण की सुविधा के जरिए स्वरोजगार के लिए सशक्त बनाना उसका लक्ष्य है। रोजगार कार्यालयों को रोजगार केंद्र के रूप में बदलने की बात कही जा रही है। यह अलग बात कि इससे बदलाव कैसे आएगा, इसका खाका अभी तक पेश करने में वह विफल दिखती है। केवल यह कहा गया है कि कौशल कार्यक्रम पेश करके, आर्थिक पुनरुत्थान से, अधोसंरचना और आवास के सुधार के जरिए, कृषि और संबंधित उद्योगों को आधुनिकीकरण के साथ मजबूत बनाकर शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करने की कोशिश की जा रही है। कई मामलों में तो विरोधाभास भी है। रोजगार को लेकर भाजपा को सारी समस्याएं सेवाभाव से हल करने पर जोर है लेकिन क्या केवल सेवाभाव से ही देश चलाया जा सकता है। बहरहाल पिछले पांच वर्षों में उत्पादकता तो करीब 35 प्रतिशत बढ़ी है लेकिन रोजगार के अवसरों में महज 0.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसमें सुधार लाने की जरूरत है जिस पर सरकार का ध्यान है। और दूसरी पार्टियां इस मसले को उठाती तो हैं लेकिन समाधान नहीं बता पाती हैं।

 

- मानवेंद्र कुमार

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