किसी भी लड़ाई में शारीरिक दमखम के साथ मनोबल का भी बहुत महत्व होता है। इसके कई उदाहरण इतिहास में प्रसिद्ध हैं। एक राजा दूसरे राज्य पर हमला करने से पूर्व सैनिकों के साथ अपनी कुलदेवी के मंदिर में गया। वहां पूजा के बाद उसने एक सिक्का दिखाकर कहा कि इसे उछालने पर यदि देवी का चित्र ऊपर आया, तो हम जीतेंगे, अन्यथा नहीं। सिक्का उछालने पर देवी का चित्र ही ऊपर आया। इससे सैनिकों का उत्साह बढ़ गया और कम संख्या होते हुए भी वे जीत गये। बाद में पता लगा कि सिक्के के दोनों ओर देवी का ही चित्र बना था।
ऐसे ही एक राजा जब लड़ने गया, तो शत्रु के क्षेत्र में घुसते ही उसका पैर फिसल गया। हाथ के सहारे वह किसी तरह गिरने से बचा। इससे सैनिक हताश हो गये; पर राजा ने कहा कि मेरी उंगली में पहनी हुई राजमुद्रा की छाप इस भूमि पर लग गयी है। अर्थात् यह भूमि तो हमारी हो गयी। इससे सैनिक उत्साह में आ गये और युद्ध जीत लिया गया। ऐसे उदाहरण अनेक हैं। परीक्षा के दिनों में छात्र, मैच से पहले खिलाड़ी, बच्चों की बीमारी में माताएं और नौकरी के लिए इंटरव्यू देने वाले युवा मनोबल बढ़ाने के लिए कई तरह की पूजा और टोने-टोटके भी करते हैं। क्योंकि मन का प्रभाव शरीर और बुद्धि पर पड़ता जरूर है। इसीलिए ‘मन के हारे हार और मन के जीते जीत’ की बात कही गयी है।
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भारतीय राजनीति में आजकल दो बड़े दलों के मनोबल का स्पष्ट प्रभाव दिख रहा है। भा.ज.पा. का मनोबल हाई है, तो कांग्रेस का मनोबल ‘‘इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा’’ की तरह पूरी तरह तितर-बितर हो चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव में हार कर सोनिया मैडम ने पार्टी की कमान राहुल को सौंप दी। लोगों को लगा कि युवा अध्यक्ष नये सिरे से पार्टी का गठन करेंगे; पर नये और पुरानों की लड़ाई में वे पिस गये। यद्यपि तीन राज्यों में कांग्रेस ने भा.ज.पा. से सत्ता छीन ली। इससे कांग्रेस वालों को लगा कि 2019 में भी ऐसा ही होगा; पर पूरी ताकत झोंकने पर भी उसे 52 सीटें ही मिलीं। यानि ‘‘न खुदा ही मिला न बिसाल ए सनम। न इधर के रहे न उधर के रहे।’’ जो तीन राज्य जीते थे, वहां भी नाक कट गयी।
तबसे कांग्रेस का मनोबल रसातल में है। पार्टी के सर्वेसर्वा ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि अपनी बात किससे कहें ? अतः सांसद और विधायक भी जा रहे हैं। जिस बस में चालक न हो, उसमें बैठने वाला मूर्ख ही कहलाएगा। कर्नाटक और गोवा में जो हुआ, वह नेतृत्व के नाकारापन का ही परिणाम है। अन्य राज्यों में भी यही स्थिति है।
दूसरी ओर भा.ज.पा. का मनोबल आसमान पर है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बाद अब जगत प्रकाश नड्डा और नये संगठन मंत्री बी.एल. संतोष के आने से कार्यकर्ता उत्साहित हैं। लोगों को लग रहा है कि म.प्र. और राजस्थान की सरकारें भी जाएंगी।
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बची खुची कसर महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस नेतृत्व की चुप्पी पूरी कर रही है। तीन तलाक पर हर मुसलमान महिला और समझदार पुरुष सरकार के साथ है; पर पार्टी नेतृत्व शतुरमुर्ग की तरह मिट्टी में सिर दबा कर खतरा टलने की प्रतीक्षा में है। अनुच्छेद 370 का विषय पिछले 70 साल से सुलग रहा हैं; पर मुसलमान वोटों के लालच में पार्टी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। पर अब शासन ने वह पेड़ ही काट दिया, जिस पर आतंकवादी पनप रहे थे। सारा देश खुश है; पर कांग्रेस को समझ ही नहीं आ रहा कि वे क्या करें ? असल में कांग्रेस कई साल से जमीनी सच से कोसों दूर है। इसलिए पार्टी के प्रबुद्ध नेता इस पर शासन का समर्थन कर रहे हैं। जर्नादन द्विवेदी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अभिषेक मनु सिंघवी, दीपेन्द्र हुड्डा, डॉ. कर्ण सिंह आदि छोटे नेता नहीं हैं। राज्यसभा में तो पार्टी के सचेतक भुवनेश्वर कालिता ही पार्टी छोड़ गये; पर राहुल बाबा अपनी दुनिया में मस्त हैं। संसद का सत्र समाप्त हो गया है। हो सकता है वे आराम के लिए फिर विदेश चले जाएं।
सच तो ये है कि कांग्रेस के हर नेता और कार्यकर्ता का मनोबल गिरा हुआ है। इसका लाभ भा.ज.पा. वाले उठा रहे हैं। अनुच्छेद 370 के नाम पर बाकी दलों में भी असंतोष पनप रहा है। इसलिए कुछ नेता इसे हटाने की बजाय हटाने की प्रक्रिया पर आपत्ति कर रहे हैं। कुछ पार्टियों ने इसके विरोध में वोट देने की बजाय सदन से बहिष्कार कर अपनी नाक बचाने का प्रयास किया है। दुनिया चाहे जो कहे; पर इस मास्टर स्ट्रोक ने हर दल की बखिया उधेड़ दी है। अतः भा.ज.पा. का मनोबल चरम पर है और उसे आगामी चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी सफलता मिलनी निश्चित है।
-विजय कुमार