राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व को बड़ा मुद्दा बनाकर भाजपा ने लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल की है। भाजपा की यह जीत इतनी बड़ी है कि 12 राज्यों में पार्टी को 50 फिसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गुजरात, गोवा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड और दिल्ली शामिल है। उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा और उसके सहयोगीयों के वोट प्रतिशत को एक साथ मिला दिया जाएं तो यहां NDA अपने दम पर 50 फीसदी का आंकड़ा पार करता दिखा रहा है। बिहार की बात करें तो भाजपा ने अपने सहयोगी जदयू और लोजपा के साथ मिलकर राज्य की 40 सीटों में से 39 पर एक तरफा जीत हासिल की है। इन सबके के बीच सबसे तगड़ा झटका बिहार में बने पांच पार्टियों के महागठबंधन को लगा है। 2014 चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश और लालू ने एक होकर बिहार में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन की नींव रखी थी हालांकि परिस्थितियां बदली और नीतीश ने अपना पाला बदला।
इससे पहले बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन का फॉर्मूला भाजपा को हराने में अपना काम कर कर गया था। नीतीश के भाजपा के साथ आ जाने के बाद महागठबंधन के फॉर्मूले को राजद और कांग्रेस ने मिलकर बिहार में जिंदा रखा और लोकसभा चुनाव आते-आते इस गठबंधन को तीन नए सहयोगी मिल ही गए। 2014 में NDA के साथ रहे उपेंद्र कुशवाहा, बिहार विधानसभा चुनाव में NDA को दलितों का वोट दिलवा पाने में नाकामयाब रहे पूर्व सीएम जीतन राम मांझी और बिहार की राजनीति में अपनी संभावनाए तलाश रहे मुकेश साहनी राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन की नैया को पार लगाने का जिम्मा उठाया। बिहार में सात चरणों में लोकसभा चुनाव भी हुए और 23 मई को नतीजें भी आएं। इन नतीजों ने जहां NDA को अप्रत्याशित कामयाबी मिली तो महागठबंधन लड़खड़ातें हुए एक सीट पर जीत दर्ज कर पाया। किशनगंज में कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. मो. जावेद ने जहां कड़े मुकाबले में जीत हासिल कर पाने में कामयाब हुए तो पाटलिपुत्र और जहानाबाद दो ऐसी सीट रही जहां राजद ने सघर्ष किया। वोट प्रतिशत की बात करें तो NDA को जहां 57.2 प्रतिशत वोट मिले तो महागठबंधन को 31.7 प्रतिशत।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर जीत की हुंकार भरने वाले इस महागठबंधन का यह हाल कैसे हुआ? इस सवाल का सबसे पहला जवाब है अनुभवहीनता। राजद अध्यक्ष और बिहार की राजनीति के माहिर लालू प्रसाद यादव का जेल में रहना महागठबंधन के लिए बड़ा झटका था। लालू का अनुभव महागठबंधन के लिए कुछ राहत भरा जरूर हो सकता था। इसके अलावा महागठबंधन में राजद के अलावा ऐसी कोई भी पार्टी नहीं थी जिसका बिहार में अपना अच्छा-खासा जनाधार हो। लालू के उदय के बाद बिहार में कांग्रेस का अस्त हो गया था। हालांकि अब लालू के सहारे ही बिहार में कांग्रेस खुद को जीवीत महसूस कर पाती है। बात अगर कुशवाहा, मांझी और साहनी की करें तो ये तीनों अपने-अपने महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार होकर सभी NDA तो कभी महागठबंधन के चक्कर लगाते रहें। 2014 में मोदी लहर में पहला चुनाव जीतने वाले कुशवाहा, नीतीश के दम पर सीएम बनने वाले मांझी बिहार विधानसभा चुनाव में NDA के लिए शून्य साबित हुए और इनके वोट प्रतिशत को देखे तो वह नोटा से भी कम रहा था।
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लोकसभा चुनाव में महागठबंध की हार का दूसरा बड़ा कारण यह रहा कि हैसियत से ज्यादा सहयोगियों को सीट दी गईं। कुशावाहा वोट का दम भरने वाले उपेंद्र को 5 सीट, राजनीतिक पारी शुरू करने वाले साहनी को तीन और दलित नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में लगे मांझी को तीन सीट देना राजद की बड़ी भूल थी। महागठबंधन के नेता लोगों के बीच मोदी और नीतीश की नाकामयाबी बताने की बजाएं दोनों पर व्यक्तिगत हमले करते रहे जिससे दोनों का कद भी बढ़ा। महागठबंधन के हार का एक बड़ा कारण प्रत्याशियों का चयन भी रहा। साथ ही साथ कुछ सीट ऐसी भी रही खासकर राजद की जहां आपसी गुटबाजी महागठबंधन के लिए मुसीबत बन गई। इसके अवाला तेजस्वी के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी, लालू पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, लालू परिवार में आपसी कलह, राहुल गांधी की छवि और सवर्णों को लेकर राजद का रूख भी महागठबंधन के लिए हानिकारक साबित हुआ।