प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुबह−शाम गाली देने वालों की कभी कमी नहीं रही। मोदी को गाली देने वाले नेताओं की लिस्ट में कोई छोटे नाम नहीं हैं। राहुल गांधी से लेकर तमाम दलों के आकाओं में ममता बनर्जी, मायावती, शरद पवार, अखिलेश यादव, चन्द्रबाबू नायडु, अरविंद केजरीवाल, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती आदि तमाम नेताओं का नाम लिया जा सकता है। इन नेताओं का सबेरा मोदी को गाली देने से होता था तो रात को मोदी को गाली देते−देते यह लोग बिस्तर पर जाते थे,लेकिन मोदी ने इन नेताओं के सामने हार नहीं मानी। वह हार मानने की बजाए इन नेताओं के सामने बड़ी चुनौती खड़ी करते रहे, जिस तरह से उक्त नेता और उनके करीबी मोदी को गाली दे रहे थे, उसको देखते हुए उम्मीद यही थी कि यह नेता मोदी को चुनावी मुकाबले में निपटाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ेगे। इसको लेकर वाराणसी में मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वालों की लिस्ट में अरविंद केजरीवाल, शत्रुघन सिन्हा से लेकर कई दिग्गज नेताओं के नाम सामने आए। इस लिस्ट में सबसे चर्चित नाम प्रियंका वाड्रा का रहा, लेकिन कोई भी नेता मोदी को चुनौती का साहस नहीं जुटा पाया। अब तय हो गया है कि कांग्रेस वाराणसी से अजय राय को ही प्रत्याशी बनाएगी। अजय राय 2014 में भी मोदी के खिलाफ चुनाव लड़े थे।
इसे भी पढ़ें: चौथे चरण के चुनाव में मध्य प्रदेश में होगी कमल बनाम कमलनाथ की लड़ाई
सांतवें और अंतिम चरण के मतदान के लिए लिए नामांकन प्रक्रिया 29 अप्रैल को समाप्त होगी। उत्तर प्रदेश में अंतिम चरण में 13 सीटों पर मतदान होना है जिसमें वाराणसी संसदीय सीट सबसे महत्वपूर्ण है। पूरे देश की नजर इस सीट पर टिकी हुई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 26 अप्रैल को वाराणसी लोकसभा सीट से नामांकन भरा। कांग्रेस से अजय राय के नाम आने के बाद मोदी की जीत आसान लग रही है। इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि कांग्रेस मोदी का खेल बिगाड़ने की कोशिश नहीं करेंगीं। ऐसा इस लिए कहा जा रहा है क्योंकि पहले खबर यह आ रही थी कि कांग्रेस वाराणसी सीट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़ी टक्कर देने की योजना बना रही है। चर्चा यह तक होने लगी थीं कि कांग्रेस इस हाई प्रोफाइल सीट पर मोदी को चुनौती देने के लिए 29 अप्रैल को प्रियंका का पर्चा दाखिल कराएंगी।
प्रियंका को चुनाव लड़ाने के पीछे के जो समीकरण बताए जा रहे थे उसमें कहा जा रहा था कि वाराणसी सीट उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आती है। प्रियंका गांधी को इस क्षेत्र की कमान सौंपी गई है। ऐसे में कांग्रेस वाराणसी सीट पर प्रियंका को पीएम मोदी के खिलाफ खड़ा करती है तो कांग्रेस प्रियंका के सहारे पूर्वांचल की सभी सीटों पर अपना असर डाल सकती हैं। ज्ञातव्य हो प्रियंका गांधी ने कुछ दिनों पहले रायबरेली में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि वाराणसी से चुनाव लड़ूं क्या? वाराणसी से चुनाव लड़ने पर वह कहती आई हैं कि पार्टी अगर उनसे कहती है तो वह इस सीट पर चुनाव लड़ेंगी। प्रियंका ने सक्रिय राजनीति में जबसे कदम रखा है तबसे वाराणसी के कांग्रेस कार्यकर्ता उन्हें इस सीट से चुनाव लड़ाने की मांग करते आ रहे हैं।
इसे भी पढ़ें: राजनीतिक दलों को आखिर साध्वी प्रज्ञा से इतना परहेज़ क्यों?
वाराणसी सीट से प्रियंका के उम्मीदवार बनाए जाने की अटकलों एवं चर्चाओं की वजह से ही समाजवादी पार्टी ने इस हाई प्रोफाइल सीट पर शालिनी यादव को अपना उम्मीदवार तो बना दिया था, लेकिन उनके नाम की घोषणा होने के चार दिन बीत जाने के बाद भी शालिनी नामांकन के लिए वाराणसी नहीं पहुंची थीं। बताया जा रहा है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने शालिनी को वाराणसी जाने से रोक रखा था। शालिनी का वाराणसी न पहुंचना और चुनाव−प्रचार शुरू न करने के भी मायने निकाले जा रहे थे। इसे वाराणसी सीट से प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी से भी जोड़कर देखा जा रहा था।
एक तरफ प्रियंका के चुनाव लड़ने की चर्चा चल रही थी तो दूसरी तरफ खबर यह भी आ रही थी कि कांगे्रसियों के उत्साह के बीच गांधी परिवार नहीं चाहता है कि प्रियंका को वाराणसी से चुनाव लड़ाया जाए। क्योंकि यहां प्रियंका के लिए जीत की संभावनाएं काफी कम नजर आ रही थीं। कहा यह जा रहा है कि नेहरू, इंदिरा के सियासी मूल्यों का हवाला देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं दिखाई है। ऐसे में प्रियंका के चुनाव लड़ने का मुद्दा उनकी मां सोनिया गांधी के हाथ में चला गया था। अंतिम फैसला अब सोनिया गांधी को लेना था जिन्होंने अजय राय को एक बार फिर चुनाव लड़ने के लिए आगे कर दिया। ऐसे में मोदी की वाराणसी से जीत औपचारिकता मात्र रह गई है।
इसे भी पढ़ें: जिन्हें लोकसभा चुनावों में लहर नहीं दिख रही वह जरा घर से बाहर निकल कर देखें
गौरतलब हो नेहरू−इंदिरा गांधी तक कांग्रेस की यह सोच रही थी कि बड़े विपक्षी नेताओं को जबरन हराने की कोशिश न हो। इसके लिए नेहरू के लोहिया और इंदिरा गांधी के अटल प्रेम का हवाला दिया जा रहा है। पुराने कांग्रेसियों की जो सोच थी उसके अनुसार उन्हें लगता था कि लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब संसद में राजनीतिक दलों के बड़े नेता मौजूद रहते हैं। उन्हें संसद से बाहर रखने से लोकतंत्र की मजबूती का क्षरण होता है। राहुल−प्रियंका अपनी पुरानी पीढ़ी के तर्को से सहमत नहीं थे। बस डर इस बात का था की जीत के चक्कर में हार कैसे बर्दाश्त की जा पाएंगी।
वैसे प्रियंका ने अंतिम समय तक वाराणसी को लेकर अपनी तैयारियों में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। वह लगातार वाराणसी के सियासी समीकरणों को पूरी तरह दुरुस्त करने में जुटी रहीं। कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने वाराणसी को लेकर जो सस्पेंस बना रखा था उससे भाजपा नेताओं के भी दिल की धड़कने बढ़ी हुई थीं। अगर प्रियंका यहां से चुनाव लड़ जाती तो भी मोदी की जीत बहुत मुश्किल नहीं होती, लेकिन अगर प्रियंका लड़ती हुई हारती तो पूरे देश में इसका गलत मैसेज जाता। एक तरह से मोदी को विपक्ष नें लगभग वॉकओवर ही दे दिया।
- अजय कुमार