लोकसभा चुनाव में बीजेपी की उत्तर प्रदेश में जो फजीहत हुई है, उसका ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ने की राजनीति के चलते राज्य में बीजेपी नेताओं के बीच आपसी वैमस्यता और गुटबाजी बढ़ती जा रही है। गुटबाजी का आलम यह है कि यह किसी एक स्तर पर नहीं ,नीचे से लेकर ऊपर तक तो दिखाई पड़ ही रही है, इसके अलावा इसकी तपिश से दिल्ली भी नहीं बच पाया है। बल्कि राजनीति के कई जानकार और पार्टी से जमीनी स्तर से जुड़े नेता और कार्यकर्ता भी इस बात से आहत हैं कि अबकी से टिकट वितरण में खूब मनमानी की गई, जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। बात यहीं तक सीमित नहीं है सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी टिकट बंटवारे के तौर-तरीको से आहत दिखाई दे रहा है। बस फर्क यह है कि यह लोग सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ नहीं बोल रहे हैं जिससे विपक्ष को हमलावर होने का मौका मिल जाये। लोकसभा चुनाव में 80 की 80 सीटें जीतने का दावा करने वाली बीजेपी आधी सीटें भी नहीं जीत पाई। भाजपा की करारी हार के पीछे भले ही कई कारण गिनाए जा रहे हों, पर संघ से दूरी भी एक बड़ी वजह मानी जा रही है।
संभवतः यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा आलाकमान ने प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति तैयार करने तक में कहीं भी संघ से विचार विमर्श करना उचित नहीं समझा। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी बीजेपी लीडरशिप से मिलने के लिये अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की। आमतौर पर चुनाव में जमीनी प्रबंधन में सहयोग करने वाले संघ के स्वयंसेवक इस चुनाव में कहीं नहीं दिखे। जिलों में न तो संघ और भाजपा की समन्वय समितियां दिखीं और न ही चैक-चैराहों से गांव की चैपाल तक में अमूमन होने वाली संघ परिवार की बैठकें कहीं नहीं हुईं। कम मतदान पर लोगों को घर से निकालने वाले स्वयं सेवक भी इस चुनाव में कहीं नहीं दिखे।
खैर, जिस तरह से संघ और बीजेपी के बीच दूरियां बढ़ रही हैं, उसके केन्द्र में कहीं न कहीं बीजेपी आलाकमान और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नजर आ रहे हैं। मोदी के पीएम बनने के बाद पिछले दस वर्षो में यह दूरियां काफी तेजी से बढ़ी हैं। संघ से जुड़े कुछ बड़े स्वयं सेवकों के अनुसार इसकी मुख्य वजह पार्टी और सरकार द्वारा कोई भी निर्णय लेने के दौरान संघ परिवार के संगठनों के साथ संवादहीनता बनाये रखना। माना जाता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के बयान ने कि भाजपा अब पहले की तुलना में काफी मजबूत हो गई है। संघ और भाजपा के बीच की खाई को और चैड़ा करने का काम किया। संघ के कुछ पदाधिकारी कहते हैं कि संघ अचानक तटस्थ होकर नहीं बैठा। 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले परिणामों के बाद आत्ममुग्ध भाजपा ने अपने सियासी फैसलों में संघ परिवार को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था। केन्द्र की मोदी सरकार और भाजपा की कुछ राज्य सरकारों ने संघ परिवार की अनदेखी कर एक के बाद एक कई ऐसे फैसले कर डाले, जिनसे संगठन की साख और सरोकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ना लाजिमी था, इसलिए संघ ने भी अपनी भूमिका समेट ली।
संघ और बीजेपी के बीच की खाई इस साल की शुरूआत से ही गहराने लगी थी। अयोध्या में श्रीरामलला के प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर भी कुछ मतभेद उभरे थे, जो लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण में बीजेपी की मनमानी के चलते और गहरा गया। परिणाम स्वरूप उत्तर प्रदेश में भाजपा को तगड़ा झटका लगा, वहीं इंडी गठबंधन को बड़ी ताकत मिली। यूपी में जो एनडीए 2019 में 64 सीटें जीतने में सफल रहा था, वह 2024 में 36 सीटों पर सिमट गया। यानी पांच साल में सीधे 28 सीटों का नुकसान, जबकि बीजेपी सभी 80 सीटें जीतने का दावा रही थी। वहीं इंडी गठबंधन मतलब सपा-कांग्रेस जो 2019 के चुनावों में 6 सीट जीत सके थे, उन्होंने इस बार 43 सीटों पर परचम लहरा दिया। बात दें 2019 का चुनाव सपा-बसपा मिलकर लड़े थे, वहीं कांग्रेस अकेले मैदान में कूदी थी, जिसमें सपा की पांच और कांग्रेस की एक सीट पर जीत हुई थी, इस तरह आज का इंडी गठबंधन 2019 में छहःसीट जीत पाया था। दस सीटों पर बसपा का कब्जा हुआ था। भाजपा के इस बेहद खराब प्रदर्शन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नाराजगी को बड़ा कारण माना जा रहा था। इसी क्रम में हाल ही में दिये गये आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को भी जोड़कर देखा जा रहा है।
अतीत के पन्नों को पलटा जाये तो बात जुलाई 2021 की है। करीब 6 महीने बाद यूपी में विधानसभा चुनाव 2022 होना था। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जमीनी स्तर बीजेपी को मजबूती प्रदान करने के लिये पूरी तरह से मैदान में डटा हुआ था। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले यूपी विधान सभा चुनाव 2022 के चलते नागपुर छोड़कर लखनऊ में प्रवास करने लगे थे। उन्हें लखनऊ में रहकर प्रदेश के राजनीतिक माहौल को मजूबत करने के मिशन पर लगाया गया था। वहीं भैया जी जोशी राम मंदिर निर्माण प्रॉजेक्ट के संरक्षक थे। इस दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष और प्रभारी राधा मोहन सिंह ने लखनऊ प्रवास में संघ के अहम नेताओं के साथ बैठक की थी। जिसमें 2022 के चुनाव को लेकर संघ ने फीडबैक दिए थे। इसमें सत्ता विरोधी लहर की चुनौती से निपटना, कार्यकर्ताओं से नाराजगी को दूर करना, प्रत्याशियों को लेकर जनता में रोष आदि कंट्रोल करने का संदेश था।सब कुछ ठीकठाक चल रहा था।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव चरण दर चरण आगे बढ़ा तो आरएसएस का ये सहयोग जमीन पर दिखाई देने लगा। भाजपा को एंटी इनकमबैंसी का जो नुकसान हो रहा था, उसे संघ ने हर विधानसभा में 400 से 500 छोटी बड़ी बैठकें कर पाटने का काम किया। वोटरों को जागरूक करना उन्हें बूथ तक भेजने का काम किया गया। संघ की प्रांत टोली, विभाग कार्यवाह, प्रचारक जिलों के समन्वयक, विधानसभा के समन्वयकों से सीधा संवाद किया गया। इस पूरे आयोजन में भाजपा के प्रभारी, राष्ट्रीय संगठन मंत्री गवाह रहे। इस पूरी कवायद का नतीजा यह निकला कि भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ दोबारा यूपी में सरकार बनाने का इतिहास रच दिया। योगी ने दोबारा सत्ता संभाली और संघ वापस अपने काम की तरफ लौट गया।
परंतु दो साल बाद लोकसभा चुनाव 2024 में परिस्थतियां एकदम बदल गईं। जनवरी में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा से भाजपा आत्मविश्वास के लबरेज दिखाई दी। मोदी का चेहरा और राम मंदिर का श्रेय के साथ पन्ना प्रमुख तक फैल चुका पार्टी का संगठन देख पार्टी के नेता ये मानकर चल चुके थे कहीं कोई दिक्क्त नहीं है। बता दें हर लोकसभा चुनाव से पहले आरएसएस के कार्यकर्ता हर लोकसभा क्षेत्र दर्जनों बैठकें कर लेते हैं। जनता क्या सोच रही है, प्रत्याशियों के बारे में उनका क्या ख्याल है, सांसद कितना प्रभावी है, मुददे कौन कौन से हैं, सत्ता विरोधी लहर कितनी है आदि का पूरा फीडबैक संघ के पास होता है। ये किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा सटीक माना जाता है। संघ से समय-समय पर फीडबैक भी तमाम माध्यमों से बीजेपी नेताओं को दिया जाता रहा है। इस बार भी परिस्थितियां प्रतिकूल होने का फीडबैक था लेकिन बीजेपी नेताओं ने इस पर गौर ही नहीं किया। परिणाम यह निकला की बीजेपी यूपी और दिल्ली दोनों जगह कमजोर हो गई।
मोदी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच की दूरियां कैसे बढ़ी। इस सवाल का जबाव खंगाला जाये तो पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा सरकार और खासकर नरेंद्र मोदी से बेहद खफा है। संभवता इसी लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत या कोई बड़ा पदाधिकारी मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल नहीं हुआ था। इसी के बाद सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना कहा कि सच्चे सेवक में अहंकार नहीं होता और वह दूसरों को कोई चोट पहुंचाए बिना काम करता है। इसी प्रकार एक हकीकत यह भी है कि मणिपुर हिंसा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां नहीं गए थे। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मणिपुर में दो समुदायों के बीच हुई हिंसा पर अपने तरीके से विचार प्रकट करते हुए कहा कि विपक्ष ने चुनावों में आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जानबूझ कर मणिपुर की अनदेखी की। मणिपुर का जिक्र करते हुए मोहन भागवत ने कहा कि हर जगह सामाजिक वैमनस्य है। यह अच्छा नहीं है। पिछले एक साल से मणिपुर शांति का इंतजार कर रहा है। कुल मिलाकर बीजेपी और संघ के बीच पहली बार इतनी गहरी खाई देखी जा रही है। सबसे खास बात यह है कि केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने से पहले तक मोदी की पहचान एक सच्चे स्वयं सेवक के रूप में होती थी। वह संघ का हर फैसला बिना किसी तर्क वितर्क के मानते थे। ऐसा क्या हुआ जो मोदी का संघ के प्रति समर्पण भाव कम हो गया है,इसका जबाव जल्द नहीं तलाशा गया तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।