By सुरेश हिन्दुस्थानी | Aug 28, 2021
अफगानिस्तान में भय दिखाकर तालिबान द्वारा किए गए कब्जे के बाद भारत में समर्थन करने जैसे स्वर भी सुनाई देने लगे हैं। हालांकि कुछ लोगों ने ऐसे स्वर निकालने के बाद या तो उस पर सफाई दे दी है या फिर वे शांत हो गए हैं। इसके पीछे एक मात्र कारण यह भी हो सकता है कि अब भारत देश का जो वातावरण दिख रहा है, वह पहले जैसा नहीं है। पहले के समय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कई लोग ऐसे बयान देने वालों के समर्थन में भी खड़े होते दिखाई दिए। तालिबान के आतंक के विरोध में बढ़ रहे स्वरों को देखकर यह तो समझा जा सकता है कि जिस प्रकार से आतंकी सरगना लादेन के समर्थन में खुलकर स्वर सुनाई दे रहे थे, जिस प्रकार याकूब मेनन के जनाजे में हजारों की भीड़ शामिल हुई, इससे बहुत लोगों की आंखें भी खुली हैं। लेकिन अब जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तालिबान के बहाने केन्द्र सरकार को चेतावनी भरे अंदाज में कहा है कि 'सुधर जाओ, हमारे सब्र का इम्तिहान मत लो, मिट जाओगे'।
महबूबा मुफ्ती का यह बयान निश्चित ही कश्मीर की स्थिति को फिर से बिगाड़ने का संकेत दे रहा है। ऐसा लगता है कि महबूबा मुफ्ती को पहले के बयानों के चलते जिस प्रकार की आलोचना झेलनी पड़ी, उससे उन्होंने कोई सबक नहीं लिया। महबूबा मुफ्ती का बयान निःसंदेह तालिबानी अंदाज वाला ही है। महबूबा को समझना चाहिए कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार जनता की आकांक्षाओं के अनुसार ही बनती है। महबूबा मुफ्ती का बयान एक प्रकार से जनता का अपमान भी है। इतना ही नहीं महबूबा ने यह बयान देकर सीधे तौर पर आतंक का समर्थन करने वाली भाषा ही बोली है। ऐसा नहीं है कि आतंक को प्रश्रय देने वाला यह बयान पहली बार आया है, इससे पहले भी वे कई अवसरों पर पाकिस्तान परस्ती भरे बयान दे चुकी हैं।
वास्तव में उचित यही होता कि महबूबा मुफ्ती अफगानिस्तान में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के विरोध में आवाज उठातीं, लेकिन एक महिला के होने के बाद भी उन्होंने इसके बारे में कुछ भी नहीं बोला। अफगानिस्तान में तालिबान भले ही महिलाओं को लेकर अच्छी राय प्रदर्शित करने वाले बयान दे रहा हो, लेकिन जिस प्रकार के दृश्य सामने आ रहे हैं, उससे यही लगता है कि वे महिलाओं को ज्यादा अधिकार देने की मानसिकता में नहीं हैं। महबूबा मुफ्ती एक मुस्लिम के साथ ही राजनेता भी हैं, लेकिन उनका बयान ऐसा कतई नहीं माना जा सकता कि उन्हें राजनेता की श्रेणी में माना जाए, वे विशुद्ध रूप से मुस्लिम मानसिकता के वशीभूत होकर ही बयान दे रही हैं। ऐसे ही बयानों के चलते पाकिस्तान को भारत पर आघात करने का अवसर मिल जाता है। हम जानते ही हैं कि भारत में पाकिस्तान परस्त मानसिकता के कारण ही आतंकी समूह सक्रिय हो जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में इसके प्रमाण भी मिल चुके हैं।
जहां तक अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक की बात है तो इससे भारत के शत्रु देश चीन और पाकिस्तान अंदरूनी तौर पर उत्साहित दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि तालिबान को पाकिस्तान में फल फूल रहे आतंकी सरगनाओं को पूरा समर्थन भी मिल रहा है। जो आतंकवादी भारत के सिरमौर कश्मीर में लोगों को बरगलाने का कार्य करते हैं, देर सबेर इन्हीं आतंकियों को तालिबान का सहारा मिलेगा और यह स्थिति कश्मीर में फिर से वैसी ही स्थिति पैदा करने का मार्ग तैयार करने वाली है, जो जम्मू-कश्मीर में पहले बनी थी। आज जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से बदला हुआ है। वहां जनमानस सुख शांति की राह पर कदम बढ़ाने के लिए तैयार हो रहा है, ऐसे में महबूबा मुफ्ती का बयान किस प्रकार की मानसिकता का प्रदर्शन कर रहा है। बड़ा सवाल यह है कि महबूबा मुफ्ती भारत देश की नेता हैं या फिर तालिबान की? यह बात सही है कि तालिबान मुस्लिम संप्रदाय के हिसाब से शासन करने की वकालत करता है, जिसमें लोकतंत्र जैसी कोई गुंजाइश भी नहीं है। महबूबा मुफ्ती का धमकी भरा बयान भारत में तालिबानी संस्कृति पैदा करने की ओर ही इशारा करता है।
जहां तक अपने पंथ और संप्रदाय की बात है तो इसे सभी को मानने का अधिकार हमारा संविधान प्रदान करता है, लेकिन जिन बयानों से देश का वातावरण बिगड़ने का संकेत मिलता है, ऐसे बयान निश्चित ही राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में ही आते हैं। महबूबा मुफ्ती को अपने संप्रदाय से ऊपर उठकर देश के बारे में भी सोचना चाहिए, लेकिन उन्होंने अपने ही देश की सरकार को चेतावनी दे दी। तालिबान ने अफगानिस्तान में जो कृत्य किया है, उसे अफगानियों की दृष्टि से देखा जाए तो यही लगता है कि तालिबान ने लोगों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया है। तालिबान के शासन के बाद अफगानिस्तान के नागरिकों को अपने मनमुताबिक जीवन जीने का कोई भी अधिकार नहीं मिलेगा। इसे व्यक्तियों के स्वत्व पर हमला निरूपित किया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सवाल यह भी है कि जो लोग भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी बोलने को जायज ठहराते हैं, उन्हें भी तालिबान का रवैया पसंद आ रहा है। जिन लोगों को भारत देश में रहने से डर लगता था, वह भी तालिबान की घटना पर मौन धारण करके बैठ गए हैं। सबसे बड़ी बात यह भी है कि किसी मुस्लिम के साथ कोई गैर मुस्लिम ऐसा कार्य करता तो पूरे विश्व के मुसलमान आवाज उठाने लगते। लेकिन तालिबान यही कार्य कर रहा है, तब सबकी बोलती बंद हो गई है।
तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर किए गए कब्जे के बाद निश्चित रूप से उन दिनों की कल्पना होने लगी है, जब अफगानिस्तान पर मुगलों ने आक्रमण किया होगा। हम जानते हैं कि एक समय अफगानिस्तान भारत का ही हिस्सा था, जिसे भारत से अलग करके अलग देश बना दिया। महाभारत की गांधारी का गांधार क्षेत्र इसी अफगानिस्तान का हिस्सा ही था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज अफगानिस्तान में जो मुस्लिम हैं, वे सभी एक समय हिन्दू ही थे। इसी प्रकार भारत के मुसलमान भी मुगलों के वंशज नहीं हैं। वे सभी हिन्दू ही थे, वे अपने पूर्वजों का अध्ययन करेंगे तो उन्हें भी अपने पूर्वजों में राम कृष्ण दिखाई देंगे। लेकिन यह विसंगति है कि मुसलमान समाज अपने पूर्वजों द्वारा की गई अतीत की गलतियों से कोई सीख नहीं ले रहा। यह सभी को स्मरण में रखना चाहिए कि जब देश रहेगा, तब ही हमारा अस्तित्व रहेगा।
जहां तक मुसलमानों के सुरक्षित जीवन यापन का सवाल है तो विश्व के गैर मुस्लिम देशों में ही मुसलमान सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं। जबकि मुस्लिम देशों में आपस में ही मारकाट करने की प्रतियोगिता जैसी ही चल रही है। अफगानिस्तान इसका जीता जागता प्रमाण है। इसके अलावा अन्य मुस्लिम देशों की स्थिति कमोवेश इसी प्रकार की है। सवाल यह भी है कि इन देशों में मुसलमान ही मुसलमान का शत्रु बना हुआ है। ऐसे में शांति के मजहब के रूप में प्रचारित किए जाने वाले इन मुस्लिम देशों में आज सबसे ज्यादा असुरक्षा की भावना है। इस सत्य को पहचानने की आवश्यकता है। अगर शांति की तलाश करनी है तो विश्व को भारतीय संस्कृति के मार्ग पर चलने की ओर प्रवृत्त होना पड़ेगा, इसी में सबकी भलाई है और यही शांति का एक मात्र रास्ता भी है।
-सुरेश हिन्दुस्थानी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)