देश में इन दिनों राजस्थान के बहुचर्चित भंवरी देवी कांड की तरह मी टू का मामला गर्माया हुआ है। कई तथाकथित सम्मानित लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं और भंवरी कांड की तरह रोजाना ही इस मामले में किसी ना किसी सम्मानित तत्व का नाम जुड़ जाता है। यह प्रकरण महिलाओं व महिला हितों को लेकर बनाए गये कई कानूनों पर सवालिया निशान खड़ा कर रहा है जिस पर गंभीरता से विचार जरूरी हो गया है।
इस गरमागरम प्रकरण के सामने आने के बाद पुरूष वर्ग में भय का वातावरण निर्मित हो गया है। मैं ऐसे मामलों में लिप्त रहे किसी पुरूष का समर्थन नहीं करता हूं लेकिन भय के वातावरण का शब्द इसलिए लिख रहा हूं कि एक ओर समाज में यह कहा जाता है कि पुरूष महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं देकर उनके सशक्तिकरण में रूकावट बन रहा है और दूसरी ओर अपने आप को सशक्त करने की ओर अग्रसर महिलाएं जब पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर सफलता की सीढिय़ां चढ़ती है तो ना तो वह महिला और ना ही अन्य कोई पुरूष उन पर किसी भी तरह की ऊंगली उठाता है लेकिन प्राय: देखा गया है और मेरा स्वयं का भी अनुभव है कि सफलता की सीढिय़ां चढक़र अपनी मंजिल को पा चुकने वाली महिला उस कंधे को छूने को भी यह कह दे कि मेरा तो कंधा छूकर मेरा यौन शोषण किया था तब भ्य का वातावरण निर्मित होता है और जो पुरूष किसी भी महिला को खुले मन से सफल व सशक्त देखना चाहता हो वह भी इस स्थिति के कारण महिलाओं से दूर भागने लगता है।
मी-टू के जितने भी मामले सामने आए हैं वे सभी मामले ऐसे क्षेत्रों के है जहां महिलाओं को सशक्त ही कहा जाता है। इन क्षेत्रों में अपना कैरियर तलाशती महिला को काम करते हुए पुरूषों का सानिध्य मिलता ही रहा है। मैं स्वयं ऐसे ही क्षेत्र में पिछले दो दशक से कार्य करता हूं और कई युवतियां मेरे साथ काम कर चुकी। हमारे बीच मजाक भी होता रहा बाईक पर या स्कूटर पर बैठकर एक दूसरे के साथ भी चलते रहे है। इसका मतलब यह तो नहीं कि शोषण हो गया हो। मेरे साथ ऐसी युवतियों ने कार्य किया जो वास्तव में अपनी काबिलियत पर अपना कैरियर बनाने की चाह रखती रही थी ले किन हां मैने अपने कैरियर में कई ऐसी युवतियों का सामना भी किया है जो बजाय काबिलियत के तेजी से समझौते पर अपना भविष्य बनाने की चाहत रखती रही है। इसी तरह की स्थिति अपने फिल्म जगत में भी रही है जहां पर गुजरे जमाने से लेकर आज की कई अभिनेत्रियों ने सफलता के लिए कभी कोई समझौता नहीं किया क्यूंकि उनमें काबिलियत रही और वे अपनी काबिलियत के दम पर ही इंडस्ट्री में आज भी टिकी रही। इसी तरह का क्षेत्र राजनीति में भी जुड़ा रहा है जहां अपनी नेतृत्व क्षमता के दम पर कई महिलाओं ने अपनी सफलता व सशक्तिकरण के झंडे गाड़े है। इन उदाहरणों में एक मुद्दा समान है और वही मी-टू की जड़ में समाया हुआ है। यह मुद्दा वह है जो आज से नहीं बल्कि जब से स्त्री व पुरूष का धरती पर अवतरण हुआ है तभी से यह आज भी कायम है कि जब दो विपरीत लिंगी साथ-साथ समय गुजारते हैं तो उनके बीच एक आकर्षण पनपता ही है जो यदि एक तरफा हो तो शोषण है और दोनों ही ओर हो तो उनके बीच एक रिश्ता बनता है जिसे बदलते समाज ने कई नाम दिये हैं और जिस रिश्ते का कोई नाम नहीं उसे समाज व रिश्ते में रहने वाले खुद जायज व नाजायज शब्द देते है। सवाल उठता है कि दो विपरीत लिंगी मनुष्य के बीच जो भी रिश्ता बनता है वह जायज है या नाजायज ? यही रिश्ते जब तक परस्पर सहमति से चलते हैं तब तक वो जायज है और असहमति होते ही नाजायज हो जाते हैं। बड़ी विडम्बना है यह ।
जहां तक मी-टू के मामलों पर कानून का सवाल है तो वहां भी सवाल खड़े होते हैं। हमारे देश में महिला हितों की रक्षा के लिए कई कानून बने हुए हैं जिनमें एक लीव इन रिलेशनशिप का कानून है जो देश के कुछ प्रांतों में प्राचीनतम काल से चली आ रही नाता व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। मेरी दृष्टि में यह कानून एकतरफा बना दिया गया है जिसके कारण कानून का ही संतुलन बिगड़ा हुआ है। लीव इन रिलेशन यानि नाते में रहने वालों में जब असहमति उत्पन्न होती है तो उसे शोषण का नाम दिया जाता है और थानों में भारतीय दंड संहिता की धारा लगाकर एक पक्ष को ही अपहरण, बलात्कार व शोषण का आरोपी बना दिया जाता है जो कानून की विडम्बना ही है। लीव इन रिलेशन यानि नातायत व्यवस्था में लम्बा समय बिताने वालों में असहमति पर इसके दंडनीय अपराध इसी कानून के अंतर्गत दर्ज किये जाने चाहिए जिससे कानून व न्याय का संतुलन समाज में बना रह सके और कोई भी इसका नाजायज लाभ नहीं ले पाए और जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक आगे और मी-टू जैसे मामले आते रहेंगे जो समाज के इन दो प्रमुख तत्व स्त्री व पुरूष, जिनसे समाज बनता है दोनों को ही ऐसी सामाजिक क्षति होती रहेगी जिसकी भरपाई कोई भी ना कर पाया है और ना ही कर पाएगा।
भुवनेश व्यास
अधिमान्य स्वतंत्र पत्रकार