मायावती समझ गयीं थीं ममता बनर्जी का खेल, इसलिए समर्थन नहीं दिया

By आशीष वशिष्ठ | Feb 06, 2019

सीबीआई के बहाने मोदी सरकार पर निशाना साधती पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का हाई वोल्टेज राजनीतिक ड्रामा पूरे देश ने देखा। भाजपा विरोधी अधिकतर दलों का ममता को समर्थन है। लेकिन इस प्रकरण में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। सवाल यह है कि जब लगभग पूरा विपक्ष ममता के पक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है तो ऐसे में विपक्ष की विशाल तसवीर से मायावती क्यों नदारद रहीं ? सवाल यह भी है कि क्या मायावती ममता की राजनीतिक पैंतरेबाजी को समझते हुए उनसे दूरी बनाये रहीं ? क्या मायावती को इस बात का आभास है कि ममता इस पूरे ड्रामे के बीच खुद को गठबंधन का सबसे बड़ा नेता साबित करना चाहती हैं ? सवाल यह भी है कि क्या मायावती को लग रहा है कि ममता लोकतंत्र बचाने की आड़ में खुद को मोदी का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी साबित करने में जुटी हैं ? 


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क्या मायावती ने मोदी सरकार के विरोध में खड़े न होकर भविष्य की राजनीति के संकेत दिये हैं ? सवाल यह भी है कि क्या मायावती ममता के समर्थन में आकर प्रधानमंत्री पद की खुद की दावेदारी को पीछे धकेलना नहीं चाहतीं ? वो अलग बात है कि यूपी में बसपा के गठबंधन के साथी सपा प्रमुख अखिलेश खुलकर ममता का समर्थन कर रहे हैं। ममता के हाई वोल्टेज ड्रामे के बीच मायावती की चुप्पी से यह काफी हद तक साफ हो गया है कि एक पुलिस अफसर के कंधे पर बंदूक रखकर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा नेता साबित करने के तौर पर बखूबी भुनाया है। खबर तो है कि ममता बनर्जी को मायावती ने फोन करके समर्थन जाहिर किया है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह समर्थन कहीं नहीं दिखता। 

 

दिल्ली की गद्दी का रास्ता वाया यूपी होकर ही जाता है। यूपी में बसपा-सपा ने गठबंधन करके विपक्ष की एकता को झटका देने का काम किया था। सपा-बसपा गठबंधन से सबसे बड़ा झटका कांग्रेस को लगा। बसपा-सपा के गठबंधन के बाद से ही यह आवाज उठने लगी थी कि मायावती ने खुद को पीएम पद के सबसे मजबूत उम्मीदवार के तौर पर पेश कर दिया है। बसपा-सपा गठबंधन में भले ही दोनों दलों ने बराबर सीटों का बंटवारा किया हो, लेकिन गठबंधन में सपा की हैसियत बसपा की पिछलग्गू और छोटे भाई वाली है। वहीं मायावती से हाथ मिलाने के बाद अखिलेश का राजनीतिक कद तो कम हुआ ही है, वहीं उनकी राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता पर भी सवाल खड़े हुये हैं। गठबंधन की घोषणा के बाद से ही मायावती की राजनीति पूरे उफान और जोश पर है। राजनीतिक गलियारों में भी इस बात की यह चर्चा आम है कि अगर विपक्ष को केंद्र में सरकार बनाने का मिला-जुला मौका मिला तो एक दलित और महिला होने के नाते मायावती की दावेदारी मजबूत होगी। अखिलेश भले ही विपक्षी गठबंधन की एकता का दम भर रहे हों, लेकिन मायावती यूपी में सपा से गठबंधन के बाद बड़ी सावधानी से अपनी राजनीति और पीएम पद की दावेदारी को आगे बढ़ा रही हैं। 

 

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कांग्रेस भी विपक्ष की राजनीति को एकजुट करने और सबके साथ खड़े होने की नीति पर काम कर रही है। असल में विपक्ष के सभी नेता एक दूसरे से एकता दिखाकर अपने दावेदारी को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और खुद को सबसे बड़ा नेता साबित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। मायावती और सपा के हाथ मिलाने के बाद से विपक्ष की राजनीति में उलट फेर हुआ है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। कांग्रेस को जिस तरह सपा-बसपा गठबंधन ने दूध की मक्खी की तरह किनारे किया उससे आहत होकर राहुल गांधी ने यूपी में ‘फ्रंट फुट’ पर खेलने का ऐलान कर दिया। बदले हालात में कांग्रेस ने अपने सबसे बड़े चेहरे प्रियंका गांधी को भी मैदान में उतार दिया। कांग्रेस के इस कदम से देश की राजनीति में यूपी की राजनीतिक हैसियत और जरूरत को समझा जा सकता है। 

 

मायावती चतुर राजनीतिज्ञ हैं। वो बखूबी समझती हैं कि जितने ज्यादा सांसद उनके पास होंगे उतना केंद्र की राजनीति में उनका रसूख और वजन होगा। त्रिशंकु संसद या फिर जोड़-तोड़ की सरकार बनने की सूरत में वो अपने सांसदों के बलबूते ही ठीक से मोल-भाव कर पाएंगी। एक महिला नेत्री और दलित होना उनकी अतिरिक्त विशेषता में गिना जाएगा। ऐसे में भाग्य और हालात ने चाहा तो वो पीएम की कुर्सी पर भी बैठने का सपना पूरा कर सकती हैं। इन तमाम विचारों और रणनीति के तहत मायावती बहुत सोच-समझकर बयानबाजी से लेकर कोई राजनीतिक मंच शेयर कर रही हैं। कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार के शपथ समारोह में शामिल होने के बाद से मायावती ने विपक्ष का कोई बड़ा मंच साझा नहीं किया है। फिर चाहे पिछले महीने कोलकाता में हुए विपक्ष के जमावड़े की बात करें या इस वक्त जब ममता पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की कथित तानाशाही के खिलाफ धरने पर बैठी हैं। मायावती खुले तौर पर ममता के समर्थन में नहीं दिखती हैं।

 

राजनीतिक विशलेषक मानते हैं कि अगर एनडीए और यूपीए सरकार बनाने की हैसियत नहीं बटोर पाया तो महागठबंधन की अहम भूमिका होगी। इसलिये वो चाहे ममता हो या फिर मायावती गठबंधन में शामिल तमाम दल अपनी-अपनी मजबूती करने में जुटे हैं। लेकिन सारा मामला तो नम्बर गेम पर आकर टिकेगा। मायावती इसलिये ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने पर फोकस कर रही हैं तभी शायद उन्होंने बरसों पुरानी दुश्मनी भूलकर सपा का दोस्ती का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने और चुनाव बाद कांग्रेस और भाजपा से मोल-तोल की नीयत से ही उन्होंने सपा-बसपा गठबंधन से कांग्रेस को शामिल नहीं किया। आज की तारीख में मायावती कांग्रेस और भाजपा दोनों से बराबर की दूरी बनाकर चल रही हैं। वहीं बयानबाजी में वो कांग्रेस और बीजेपी दोनों को एक ही तराजू में तौल भी रही हैं। 

 

 

2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा एक भी सीट जीत नहीं पाई। और उसका मत प्रतिशत 19.77 तक गिर गया। लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को भले ही 19 सीटें मिली हों उसका वोट बैंक लगभग ढाई फीसदी बढ़ गया। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा होने लगी कि मायावती का जादू खत्म हो गया है। दलित अब उन्हें अपना नेता नहीं मानते और उनकी राजनीति में आई गिरावट अब एक स्थाई रूप धारण कर चुकी है। इस सारे सियासी गणित, चर्चाओं और कयास के बीच यह समझना अहम है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत और ‘मोदी लहर’ के बावजूद बसपा ने अपना आधार वोट बैंक बचा लिया था। 

 

मायावती पिछले लगभग 35 वर्षों से राजनीति में हैं। वो चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। मायावती के राजनीतिक कैरियर की सबसे बड़ी उपलब्धि 2007 में अपने दम पर यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना था। पिछले एक दशक में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के प्रयोग से लेकर तमाम दूसरे उपाय अपनी राजनीति चमकाने के लिये किये। वर्ष 2017 यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से उन्होंने अपना पूरा ध्यान यूपी की राजनीति पर केन्द्रित कर रखा है। भाजपा की काट और बढ़ते कदमों को रोकने के लिये ही मायावती दिल पर पत्थर रखकर सपा से हाथ मिला चुकी हैं। उनकी नजर दिल्ली की सत्ता और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। ऐसे में वो बहुत संभलकर बयानबाजी और एक-एक कदम उठा रही हैं।

 

मायावती जानती हैं कि ममता का समर्थन करना उनके राजनीतिक कद और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को कम करेगा। ममता के धरने के बाद से राजनीतिक गलियारों में इस तरह की चर्चाएं हो रही हैं कि ममता ने राहुल गांधी व मायावती की पीएम पद की दावेदारी को पीछे धकेल दिया है। राहुल गांधी ममता का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। लेकिन मायावती की चुप्पी यह साबित करती है ममता सीबीआई के बहाने एक तीर से दो निशाने लगा रही हैं। पहला वो मोदी की सामने विपक्ष की सबसे बड़ी नेता खुद का साबित कर रही हैं, वहीं अपने सहयोगी दलों को भी संकेत दे रही हैं कि वो विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा हो सकती हैं। मायावती की चुप्पी ने चाहे अनचाहे ममता की रणनीति और राजनीति का खुलासा करने का काम किया है। फिलवक्त सारी लड़ाई खुद को मोदी के सामने सबसे बड़ा नेता साबित करने की है। और मायावती किसी भी हालत में अपनी दावेदारी को कमतर नहीं होने देना चाहतीं। 

 

-आशीष वशिष्ठ

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