रिश्ते को नहीं सत्ता को महत्व देती हैं मायावती, अखिलेश यही बात समझ नहीं पाये

By अंकित सिंह | Jun 24, 2019

देहात में एक कहावत है 'जात भी गवाई और भात भी ना मिला'। कहने का मतलब यह है कि सब कुछ गवाने के बाद भी कुछ हासिल ना होना और शायद इसी बात की अनुभूति उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव कर रहे होंगे। 23 मई 2019 से पहले तरह-तरह के दांवे करने वाले अखिलेश अपनी चुनावी हार पर चुप्पी साधे हुए हैं और उनकी सहयोगी रहीं बसपा प्रमुख मायावती उन पर हमलावर हैं। उत्तर प्रदेश में जब बुआ-बबुआ की जो़ड़ी बनी थी तब राजनीतिक पंडित यह दावा करने लगे थे कि यह जो़ड़ी कम से कम 50 सीट जीतने में कामयाब होगी। पर ऐसा हुआ नहीं। सपा-बसपा महज 15 सीट जीतने में ही कामयाब रहीं। हालांकि यह किसी ने नहीं सोचा था कि गठबंधन परिणाम आने के कुछ दिन बात ही खत्म हो जाएगा। इसकी शुरूआत मायावती ने ही कर दी। सबसे पहले तो उन्होंने उपचुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया और उसके बाद धीरे-धीरे अखिलेश और उनकी पार्टी पर हमले करने लगीं। 

 

अखिलेश पलटवार करने की बजाए रक्षात्म रहे और शायद उनके लिए यही समय की मांग भी है। अखिलेश ने सिर्फ इतना ही कहा कि अगर रास्ते अलग-अलग हैं तो उसका भी स्वागत है। दबाव ज्यादा बना तो यह कह दिया कि इंजीनियरिंग का छात्र रहा हूं और प्रयोग करने का रिस्क उठा सकता हूं, यह अलग बात है कि आपको हर समय कामयाबी नहीं मिलती। लेकिन अखिलेश ने मायावती का नाम कभी नहीं लिया। बीते दिनों मायावती ने अखिलेश पर सबसे बड़ा हमला करते हुए उन्हें 'मुस्लिम विरोधी' करार दिया। मायावती ने कहा कि अखिलेश यादव ने उन्हें मुसलमानों को टिकट नहीं देने के लिए कहा था क्योंकि इससे धार्मिक ध्रुवीकरण होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि मायावती अब अखिलेश पर हमलावर तो हैं ही, उनके MY समीकरण में भी सेंध लगाने की शुरूआत कर दी है। इतना ही नहीं मायावती ने कह भी कहा कि जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे, तो गैर-यादव और दलितों के साथ अन्याय हुआ था और इसीलिए उन्होंने सपा को वोट नहीं दिया। सपा ने दलितों के प्रचार का भी विरोध किया। मायावती ने सपा पर धोखा देने और बसपा का वोट काटने का भी आरोप लगाया। सपा पर हमला करते हुए मायावती ने कहा कि 10 सीटों पर बसपा की जीत पर सपा के सदस्य खुद को श्रेय देते रहे हैं, लेकिन सपा पांच सीटों पर भी जीत दर्ज नहीं कर पाती है बसपा का समर्थन नहीं होता।

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अखिलेश फिलहाल राजनीति की सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं। पहले तो घर में विरोध झेला। पिता और चाचा के निशाने पर रहने के बावजूद पार्टी के अध्यक्ष बन गए। विधानसभा में कांग्रेस से गठबंधन किया पर बुरी तरह हार मिली। लोकसभा चुनाव आते-आते उनकी पार्टी की धुरविरोधी रहीं मायावती से समझौता कर लिया। पर इसका उन्हें कुछ फायदा नहीं हुआ। खुद उनके भाई और पत्नी चुनाव हार गए और पार्टी को महज पांच सीटें ही मिल पाई। फिलहाल अखिलेश गठबंधन की हार के बाद निशाने पर तो है ही, पिता की बीमारी ने भी उन्हें बहुत परेशान कर रखा है। खैर यूपी की राजनीतिक इतिहास में अबतक कई गठबंधन देखने को तो मिले हैं पर सत्ता जाते या चुनाव हारते ही सबके रास्ते अगल-अलग हो जाते हैं। प्रदेश में 1989 से गठबंधन की सियासत का दौर शुरू हुआ था। तब से लेकर आज तक प्रदेश की जनता ने कई मेल−बेमल गठबंधन देखे हैं। राज्य में सपा−बसपा, भाजपा−बसपा, कांग्रेस−बसपा, रालोद−कांग्रेस जैसे अनेक गठबंधन बन चुके हैं, लेकिन आपसी स्वार्थ के चलते लगभग हर बार गठबंधन की राजनीति दम तोड़ती नजर आई। छोटे दलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कोई भी ऐसा बड़ा दल नहीं रहा जिसने कभी न कभी इनसे गठबंधन न किया हो। मगर गठबंधन का हश्र हमेशा एक जैसा ही रहा।

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फिलहाल राजनीतिक हाशिए पर खड़ी अखिलेश की पंचर साइकिल के लिए आगे का रस्ता भी कठिन होने वाला है। चाचा शिवपाल की अपनी पार्टी के जरिए सपा कैडर को लगातार तोड़ रहे हैं तो पिता मुलायम को किनारे करने को लेकर अखिलेश से यादव वोटर नाराज है। इस चुनाव में यादवों का अच्छा-खासा वोट भाजपा की तरफ भी शिफ्ट होते देखा गया। वहीं मायावती मुस्लिम वोट को लेकर पहले से ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। उधर भाजपा सरकार और संगठन के जरिए आम लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। ऐसे में सपा और अखिलेश के लिए आगे का सफर चुनौती भरा रहने वाला है। आने वाले उपचुनाव में संगठन की परीक्षा तो होगी ही पर अगले विधानसभा चुनाव तक पार्टी को मजबूती से संभाले रखना अखिलेश की सबसे बड़ी चुनौती है।   

 

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