By नीरज कुमार दुबे | Aug 14, 2019
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का एक बार फिर राज्यसभा पहुँचना तय है। उन्होंने राजस्थान से राज्यसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव के लिए नामांकन-पत्र दाखिल किया है और उनके खिलाफ कोई भी उम्मीदवार मैदान में नहीं है इसीलिये डॉ. मनमोहन सिंह का निर्विरोध चुना जाना तय है। 87 वर्षीय डॉ. मनमोहन सिंह का पूरा देश सम्मान करता है और उन्होंने देश की जो सेवा की है, कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए अर्थव्यवस्था को नयी दिशा और उसके विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है, उसे आने वाली पीढ़ियां बरसों तक याद रखेंगी। डॉ. सिंह अपने विशाल अनुभव की बदौलत अपनी पार्टी कांग्रेस ही नहीं बल्कि वर्तमान और आने वाली सरकारों के लिए मार्गदर्शक/पथ-प्रदर्शक बने रहेंगे, इसमें भी कहीं कोई संशय नहीं है।
लेकिन एक सवाल जरूर उठता है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, देश के वित्त मंत्री रहे, राज्यसभा के नेता रहे, दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह को ऐसी कौन-सी सुविधा नहीं मिल पा रही थी या राज्यसभा में उनके बिना कांग्रेस को ऐसा कौन-सा नुकसान हो रहा था कि कि उन्हें इस उम्र में राज्यसभा का चुनाव लड़ना पड़ा। यह सही है कि हर पार्टी अपने विद्वान और अनुभवी नेताओं को संसद के उच्च सदन में सार्थक और तार्किक चर्चाओं के लिए रखना चाहती है और डॉ. सिंह इस कसौटी पर सबसे ज्यादा खरे उतरते हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या डॉ. सिंह सदन में सक्रिय रूप से जाते हैं? सवाल यह भी है कि क्या डॉ. सिंह सदन में सक्रिय रूप से मुद्दे उठाते हैं या चर्चाओं में हिस्सा लेते हैं? जो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहते हुए सरकारी कर्मचारियों की रिटायरमेंट की उम्र 60 से 58 कर रहे थे उन्हें यह तय करना चाहिए कि सरकारी पदों अथवा सक्रिय राजनीति से रिटायरमेंट की भी कोई उम्र होनी चाहिए या नहीं?
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कांग्रेस की सबसे बड़ी खामी ही यही है कि वह पुरानी पीढ़ी के नेताओं को ही महत्व देती है। जिसको एक बार पद मिल गया वह बरसों तक उससे चिपका रहता है इसलिए वहां युवाओं का कोई भविष्य नजर नहीं आता। दो बार लगातार लोकसभा चुनाव हारने के चलते कांग्रेस पार्टी में ऐसे वरिष्ठ नेताओं की बड़ी सूची तैयार हो चुकी है जोकि किसी पद पर नहीं हैं और पिछले दरवाजे से किसी सदन का सदस्य बनना चाहते हैं। इसलिए पदों के लिए जब वरिष्ठों की लंबी वेटिंग लिस्ट बनी हुई है तो ऐसे में युवाओं का क्या होगा? कांग्रेस में कई ऐसे युवा नेता हैं जिन्हें आगे लाया जाये या जिन्हें मौका मिले तो वह अच्छा प्रभाव छोड़ सकते हैं। डॉ. मनमोहन सिंह की बजाय यदि मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, रणदीप सुरजेवाला, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजॉय कुमार, जयवीर शेरगिल, रागिनी नायक, शोभा ओझा जैसे नेताओं को उम्मीदवार बनाया गया होता तो पार्टी में युवा पीढ़ी को एक अच्छा संदेश जाता। कांग्रेस यदि युवा नेताओं को उम्मीदवार नहीं बनाना चाहती थी और उन्हें कोई और भूमिका देना चाहती थी तो पार्टी के साधारण कार्यकर्ताओं को भी मौका दिया जा सकता था। कांग्रेस को कवर करने वाले पत्रकारों ने कई बार देखा होगा कि पार्टी के मीडिया विभाग से जुड़े संजीव सिंह, प्रणव झा, मनोज त्यागी और विनीत पूनिया किस तरह मेहनत करते हैं। पत्रकारों को खुद कुर्सी तक उठा-उठा कर देते हैं। क्या कभी कांग्रेस ने इन लोगों को किसी सदन में भेजने की बात सोची?
जरा दूसरी तरफ भाजपा को देख लीजिये। पार्टी ने 75 पार नेताओं को सक्रिय राजनीति से दूर कर या तो मार्गदर्शक की भूमिका प्रदान कर दी है या फिर उन्हें राज्यपाल बनाकर राज्यों में भेज दिया गया है। भाजपा में 75 पार नेताओं में लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ लोग हैं लेकिन युवाओं को आगे करने के लिए इन्होंने पीछे हटना मंजूर कर लिया। भाजपा में युवा नेताओं की बड़ी लंबी-चौड़ी फौज है और उन्हें पार्टी तवज्जो भी दे रही है। हमने चूँकि कांग्रेस के मीडिया प्रकोष्ठ की बात की जिन्हें कोई पद नहीं मिले तो वहीं दूसरी ओर भाजपा को देखिये, उसके मीडिया प्रकोष्ठ से जुड़े रहे दीनानाथ मिश्र और बलबीर पुंज राज्यसभा के सदस्य रहे, सतीश उपाध्याय पार्टी की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष बने, अमिताभ सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के चेयरमैन बनाये गये तो मीडिया प्रकोष्ठ के दो पूर्व प्रमुख सिद्धार्थ नाथ सिंह और श्रीकांत शर्मा इस समय योगी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री हैं और वर्तमान मीडिया प्रमुख अनिल बलूनी राज्यसभा में हैं साथ ही मीडिया प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सह-प्रमुख संजय मयूख बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं।
सभी दलों को युवाओं की महत्वाकांक्षाओं का सम्मान करना ही होगा। ऐसा नहीं चलेगा कि युवाओं की ऊर्जा का तो इस्तेमाल कर लिया जाये लेकिन उनके सपनों को पूरा करने की बजाय अपनी इच्छाओं की ही पूर्ति की जाती रहे। कांग्रेस जैसा ही हाल वामपंथी दलों का भी है जो युवाओं से पूरी तरह कट चुके हैं और कुछ गिने-चुने पुराने नेता ही पार्टी के या सरकारों में मिले पदों का लाभ उठा रहे हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता स्थित माकपा मुख्यालय जाना हुआ तो वहां का हाल देख कर दंग रह गया। पार्टी मुख्यालय में स्वागत कक्ष से लेकर सभी कमरों तक बुजुर्गों ने डेरा जमाया हुआ था। दीवारों पर दिवगंत नेताओं की बड़ी पुरानी तसवीरें, पुरानी किताबों से भरी अलमारियां माकपा कार्यालय का लुक 'दादाजी' के कमरे जैसा दे रही थीं। वहां का माहौल ऐसा था जिसमें आज का महत्वाकांक्षी युवा किसी भी तरह खुद को पार्टी से नहीं जोड़ पायेगा।
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बहरहाल, गुजरात विधानसभा चुनावों से ठीक पहले युवा राहुल गांधी को अध्यक्ष पद की कमान सौंपने के बाद कांग्रेस वापस वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी के हाथों में लौट आई है। सोनिया गांधी ने 2004 में पार्टी में काफी युवा नेताओं को आगे बढ़ाया था अब वह वरिष्ठों का अनुभव और युवाओं का साथ लेकर कितना आगे बढ़ पाती हैं यह तो वक्त ही बतायेगा लेकिन कांग्रेस को यह बात समझनी ही होगी कि यदि वह खुद को फिर से खड़ा करना चाहती है तो ऐसा युवाओं को महत्व देकर ही संभव है।
-नीरज कुमार दुबे