By योगेंद्र योगी | Nov 27, 2023
पहले तो राज्य सरकारें निजी निवेश के लिए मिन्नतें करें, निवेशकों के लिए रेड कारपेट बिछाएं, फिर मौकापरस्त बन कर उन्हें दूध देने वाली गाय की तरह निचोड़ने लगें। यह सीधा ब्लैकमेल का मामला है। हरियाणा में निजी क्षेत्र में नौकरी के आरक्षण के कानून को अवैध करार देने के हाईकोर्ट के आदेश से यह साबित हो गया है कि राजनीतिक दल अपने निजी स्वार्थों के लिए किस हद तक जा सकते हैं। हरियाणा सरकार को हाईकोर्ट से बड़ा झटका लगा है। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने प्राइवेट नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान को रद्द कर दिया है। कोर्ट का कहना है कि ये पूरी तरह से असंवैधानिक है। इस मामले की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने हरियाणा राज्य स्थानीय उम्मीदवारों के रोजगार अधिनियम, 2020 को असंवैधानिक माना और कहा कि यह अधिनियम बेहद खतरनाक है और संविधान के भाग-3 का उल्लंघन करता है।
दरअसल हरियाणा सरकार ने कानून बना कर प्रावधान किया कि नए कारखानों/उद्योगों या पहले से स्थापित उद्योगों/संस्थानों में 75 प्रतिशत नौकरियां हरियाणा के मूल निवासियों को दी जाएंगी। यह केवल हरियाणा राज्य में स्थित विभिन्न निजी तौर पर कंपनियों, सोसायटी, ट्रस्ट, सीमित देयता भागीदारी फर्म, साझेदारी फर्म आदि में 10 या अधिक व्यक्तियों को रोजगार देने वाले 30,000 रुपये प्रति माह से कम वेतन वाली नौकरियों पर लागू होगा। यह पहला मौका नहीं है जब किसी सत्तारुढ़ दल ने निजी क्षेत्र में नौकरी के आरक्षण के प्रावधान का प्रयास करके राजनीतिक स्वार्थ साधने का प्रयास किया है। महाराष्ट्र (80 प्रतिशत तक), आंध्र प्रदेश (75), और कर्नाटक (75) पहले से ही स्थानीय लोगों के लिए निजी नौकरियां आरक्षित करने का प्रावधान कर चुके हैं। मध्य प्रदेश ने निजी नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 70 प्रतिशत तक कोटा निर्धारित किया था। यह निर्णय कमल नाथ शासन के दौरान लिया गया था। हालांकि इन प्रदेशों की सरकारों के इरादे असफल साबित हुए। कुछ मामलों में अदालतों ने पानी फेर दिया, कुछ राज्य इसकी व्यवहारिकता को समझ कर पीछे हट गए। आंध्र प्रदेश वर्ष 2019 में बढ़ती बेरोजगारी के मद्देनजर ऐसा कानून बनाने वाला पहला राज्य था, लेकिन इसे वहां के उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। कर्नाटक ने भी ऐसे कानून पारित किए, जिसमें निजी क्षेत्र को स्थानीय उम्मीदवारों को प्राथमिकता देने के लिए कहा गया, लेकिन कंपनियों को यह नहीं पता था कि अनुपालन कैसे सुनिश्चित किया जाए। इनमें से किसी भी राज्य में सरकारों के मंसूबे पूरे नहीं हो सके।
बिहार में नीतीश सरकार ने 2020 में एनडीए सरकार की वापसी के बाद कैबिनेट में फैसला लिया था कि प्राथमिक शिक्षक भर्ती में सिर्फ बिहार के लोग शामिल हो सकेंगे। इस फैसले को इस साल जून में महागठबंधन सरकार की कैबिनेट ने देश के सभी नागरिकों के लिए खोल दिया। सरकार को अंदेशा था कि अगर दूसरे राज्य के कैंडिडेट कोर्ट चले गए तो यह बहाली रद्द हो जाएगी, क्योंकि ये रोक संविधान से मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन करता। पिछले दो दशकों में बैलगाड़ी वाले गांव से भरे आईटी-आईटीईएस सेवाओं और बीपीओ हब में गुरुग्राम का कायापलट भारत के सुदूर कोनों से आए अविश्वसनीय प्रतिभा पूल द्वारा किया गया है। गुरुग्राम नौकरियों का शहर है, लेकिन निजी क्षेत्र में आरक्षण का कानून यदि बन जाता तो निजी क्षेत्र के लिए यह खतरा बन जाता।
नैसकॉम सर्वेक्षण के अनुसार, हरियाणा में लगभग 500 आईटी-आईटीईएस कंपनियां हैं जिनमें 4 लाख से अधिक कर्मचारी हैं। ये कंपनियां ऐसे कौशल पर निर्भर हैं जो हरियाणा में आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। सर्वेक्षण में उद्धृत स्थानीय उम्मीदवारों में प्रमुख कौशल कमियां शामिल हैं। इनमें एआई और मशीन लर्निंग कौशल, विश्लेषणात्मक और सांख्यिकीय कौशल, वित्त और लेखांकन, प्रोग्रामिंग कौशल, डेटा विज्ञान, अनुसंधान एवं विकास कौशल, इंजीनियरिंग और तकनीकी कौशल जैसी कमियां शामिल हैं। नैसकॉम और आईटी मंत्रालय संयुक्त रूप से आईटी-आईटीईएस सेक्टर का राजस्व 2025-26 तक 194 बिलियन डॉलर से बढ़ाकर 350 बिलियन डॉलर करने का लक्ष्य बना रहे हैं। यदि निजी क्षेत्र में आरक्षण का कानून लागू हो जाता तो यह लक्ष्य हासिल करना असंभव रहता। दरअसल सरकारों को पता है कि जिसने लाखों-करोड़ों का निवेश किया है, वह अब उसे उखाड़ कर किसी दूसरे प्रदेश में नहीं ले जा सकता। इस मजबूरी का फायदा उठाते हुए सरकारें उद्योगपतियों से मनमानी करने पर उतारू हो जाती हैं। यदि उद्योगपति किसी तरह का गैरकानूनी काम करें तो उनके खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई के लिए सरकारें स्वतंत्र हैं, किन्तु अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं उन पर नहीं लादी जा सकतीं। यदि अदालतों का भय नहीं होता तो निजी क्षेत्र में रोजगार के लिए आरक्षण की लूट में सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे से होड़ करते नजर आते। राजनीतिक दलों को सत्ता पाने के लिए पका पकाया चाहिए। बेरोजगारी समाप्त करने के लिए सत्तारुढ़ दलों के पास कोई ठोस और दूरगामी नीति नहीं होती। यही वजह है कि सभी दल इस मुद्दे पर बहस तक करने से कतराते हैं।
दरअसल रोजगार मुहैया कराने के लिए आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करने, गुणवत्तायुक्त शिक्षा, भ्रष्टाचार का खात्मा और राजस्व के संसाधनों की जरूरत होती है। इतनी लंबी और मेहनत भरी कवायद करने से राजनीतिक दल कतराते हैं। ऐसे में सत्ता प्राप्ति के लिए लोगों को बरगलाने का आसान तरीका आरक्षण नजर आता है। राजनीतिक दल जातिगत सरकारी नौकरियों में आरक्षण का फायदा उठा चुके हैं। इसमें अब सुप्रीम कोर्ट के कायदे-कानून आड़े आ रहे हैं। अन्यथा दलों ने अपने सुविधा के हिसाब से इसका प्रतिशत बढ़ाने से भी नहीं चूकते। इसके बावजूद भी राजनीतिक दलों ने यह दिखाने के लिए कि वे आम लोगों के कितने बड़े हितैषी हैं, पचास प्रतिशत के इस दायरे को बढ़ाने के भरसक प्रयास किए हैं, हालांकि यह जानते हुए भी कि उनका यह प्रयास अदालत में मुंह के बल गिरेगा। इसका उदाहरण मराठा आरक्षण है। आरक्षण का कोटा पूरा होने के बावजूद मराठा आरक्षण का प्रस्ताव महाराष्ट्र सरकार ने पारित कर दिया, किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैरकानूनी करार देकर सरकार के राजनीतिक स्वार्थों पर पानी फेर दिया।
आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल आरक्षण का दायरा बढ़ाने की वकालत करतें हैं किन्तु मौजूदा आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर करने की बात नहीं करते, ताकि दूसरे वंचित आरक्षित वर्ग को आगे आने का मौका मिल सके। आरक्षण का कई पीढ़ियों से फायदा उठा रही यह क्रीमी लेयर जमात आरक्षण के दायरे में मौजूद दूसरे लोगों का हक डकार रही है। अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण मिलने के बावजूद हालात यह है कि समग्र रूप से इनके आर्थिक और सामाजिक हालात में खास सुधार नहीं हुआ। इनको मिले आरक्षण का फायदा कुछ प्रतिशत लोगों तक सीमित रह गया। यह क्रीमी लेयर दूसरे के हितों पर कुंडली मार कर बैठी है। दमित और वंचित वर्गों के आरक्षण के जरिए उत्थान का दंभ भरने वाले राजनीतिक दलों की असलियत यह है कि क्रीमी लेयर की छंटनी करना तो दूर उस पर चर्चा करने तक से भागते नजर आते हैं। यह निश्चित है कि हर तरफ आरक्षण देना रोजगार और सामाजिक उत्थान का विकल्प नहीं है, इसके लिए समग्र्र राष्ट्रीय नीति की जरूरत है।
-योगेन्द्र योगी