(1) मनुष्य का जन्म तो सहज होता है लेकिन मनुष्यता उसे कठिन परिश्रम से प्राप्त करनी पड़ती है। सब कुछ हमारे अंदर स्थित मन रूपी तीर्थस्थान में ही है। स्वर्ग-नरक कहीं बाहर या आसमान में नहीं वरन् हमारे मन में ही है। यदि मन में हमने ईश्वरीय विचारों को बसा रखा है तो हमारे अंदर ही स्वर्ग है। यदि हमने अपने मन में स्वार्थ से भरे विचार भर रखे हैं तो जीवन नरक के समान है। हम संसार के किसी भी तीरथ में चले जायें यदि हमारे मन में अशांति है तो किसी भी तीरथ में शांति नहीं मिल पायेगी। क्योंकि हम अशांति की अपनी पूंजी साथ-साथ लेकर जायेंगे। अन्त में हम इस निष्कर्ष में पहुंचते हैं कि मानव का मन सबसे अच्छा तीर्थस्थान है।
(2) मानव प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊँ तोहे, प्रभु कहे तू मन को पा ले, पा जायेगा मोहे। आइये, मन के महत्व को एक सुन्दर भजन की इन पंक्तियों द्वारा समझते हैं- तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये। मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय। मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय। इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये। सुख की कलियाँ, दुख के कांटे, मन सबका आधार। मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हजार। जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाये। तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल। तन के कारण मन के धन को मत माटी में रौंद। मन की कदर भुलाने वाला हीरा जनम गवाये।
(3) मानव शरीर भगवान् की सबसे बड़ी सौगात है। मनुष्य का जन्म भगवान का हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार है। जीवन को छोटे उद्देश्यों के लिए जीना तो जीवन का अपमान है। अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों को भुलाकर उसे समाज विरोधी कामां, भोग एवं वासनाओं में लगाना बेहोशी में जीवन बर्बाद करने के समान है। जीवन अनन्त है हमारी शक्तियाँ भी अनन्त हैं, हमारी प्रतिभाएँ भी अनन्त हैं। ऐसा मानना है कि हम अपनी मानसिक शक्तियों का मात्र 1 प्रतिशत से अधिकतम 8 प्रतिशत तक ही उपयोग कर पाते हैं। अभी तक संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति 8 प्रतिशत तक ही अपनी बुद्धि का उपयोग कर पाया है। यह मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि मनुष्य की 92 प्रतिशत बुद्धि सुप्त अवस्था में ही है। कैरियर, नौकरी या व्यवसाय के द्वारा हम अपने अंदर के संगीत को बिना खुलकर तथा खिलकर अभिव्यक्त किये अपनी कब्र में साथ लेकर चले जाते हैं। सिकुड़कर जीना प्रभु प्रदत्त अनमोल हीरे जैसे जीवन को कोयले के मूल्य में आंकना के समान है।
(4) मेरा शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा मित्र है। मेरा मन मैं नहीं हूँ, मन मेरा औजार है। हवेली में जब मालिक आता है तो सारे नौकर आलस्य छोड़कर अपने काम में लग जाते हैं। अर्थात जब हमारे शरीर रूपी मंदिर से होने वाले प्रत्येक कार्य-व्यवसाय आत्मा की इच्छा तथा आज्ञा के अनुसार होते हैं तो पांचों इन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श) तथा छठीं इंद्रिय मन रूपी नौकर अपने-अपने कार्यों को अखण्ड आज्ञाकारी सेवक की तरह करते हुए महान उद्देश्य की प्राप्ति कराते हैं। इसलिए जरूरी है कि हमें शरीर रूपी मंदिर में आत्मा के रूप में ईश्वर की स्थापना करनी चाहिए। सारे कार्य ईश्वर की इच्छा तथा आज्ञा के अनुकूल होने चाहिए।
(5) संसार में मिट्टी, पत्थर, लोहे तथा गारे से बने जिन मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों तथा गुरूद्वारों में हम श्रद्धा के साथ जाते हैं। ये मनुष्य ने सामूहिक रूप से किसी पवित्र स्थान में बैठकर पूजा, पाठ, इबादत, नमाज, प्रेयर, सबत आदि करने के लिए बनाये हैं। ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा गुरूद्वारा मनुष्य द्वारा निर्मित हैं तथा मानव शरीर रूपी मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा गुरूद्वारा ईश्वर निर्मित हैं। इस ईश्वर निर्मित मानव शरीर को सर्वोच्च महत्व देना चाहिए क्योंकि शरीर के द्वारा ही जीवन के महान उद्देश्य अपनी आत्मा का विकास किया जा सकता है।
(6) शरीर के ऊपर इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर आत्मा का स्थान होना चाहिए। इसके क्रम के बिगड़ने से जीवन असंतुलित हो जाता है। शरीर से लेकर आत्मा तक के सही क्रम को कायम रखने के लिए हमें स्वयं के सत्य अर्थात मैं कौन हूं? इस संसार में किस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आया हूं?, पांच इन्द्रियों (आंख, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श) के सत्य तथा मनोशरीर यंत्र के सत्य का ज्ञान होना चाहिए। हमारा जीवन संसार में इन्हीं सत्यों की वास्तविकताओं के चारों तरफ घूमता है। असहज मन जब हमारे जीवन को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने लगता है तब जीवन अनेक कठिनाइयों तथा दुखों से घिर जाता है। इसलिए हमें मन को अपना बनाने के लिए कार्य करना चाहिए। मन हमारा अकंप हो, मन हमारा प्रेम से भरा हो, मन हमारा निर्मल हो तथा मन हमारा अखण्ड आज्ञाकारी हो।
(7) आत्मा ईश्वरीय गुणों के प्रकाश से प्रकाशवान होती है। प्रकाशित आत्मा संसार से ‘और अधिक की चाह’ को समाप्त कर ‘सब कुछ अंदर है’ के विश्वास को जगाती है। हमें प्रभु की इच्छा को अपनी इच्छा बनाना चाहिए ना कि अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। गीता हमें सीख देती है कि अब कर्म करते हुए फल की इच्छा नहीं करना चाहिए वरन् अब यज्ञ करना चाहिए। अर्थात सीधे अपने स्रोत से महाफल की चाह के साथ महाकर्म करना चाहिए।
(8) एक व्यक्ति एक संत के पास अपनी समस्या लेकर पहुंचा। उस व्यक्ति ने संत से दुःखी होकर निवेदन किया कि उसकी प्रबल इच्छा है कि वह अपने जीवन काल में एक सुन्दर तथा भव्य मंदिर बनाये। लेकिन उस भव्य मंदिर को बनाने के लिए उसके पास पैसा नहीं है। संत ने मुस्कराकर उससे कहा कि तुम्हें दुःखी होने के कोई आवश्यकता नहीं है। बस तुम एक काम करो अपने मन को ही भगवान का मंदिर बनाने का निर्माण कार्य इसी क्षण से शुरू कर दो। यदि उसके बाद भी तुम्हारे अंदर और मंदिरों का निर्माण करने की इच्छा जाग्रत हो तो अपने आसपास के लोगों के जीवन को भी इसी प्रकार अच्छा बनाने के लिए निरन्तर मनोयोगपूर्वक लगे रहना। संत के सुझाव से उस दुःखी व्यक्ति की समस्या का समाधान सहजता से हो गया।
(9) मन रूपी मंदिर को बनाने में कोई खर्चा नहीं आता केवल हृदय को पवित्र बनाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए मस्तिष्क से हृदय तक 13 इंची सुंरग खोदकर हृदय से मस्तिष्क तक आध्यात्मिक मार्ग बनाना चाहिए। सबसे पहले कोई विचार हृदय से उठता है, फिर वह मस्तिष्क में जाता है, जहां उस विचार की मस्तिष्क के द्वारा मालिश-पालिश होती है। यदि कोई इंसान केवल मस्तिष्क से सोचकर निर्णय लेगा तो वह निर्णय संतुलित नहीं होगा। या कोई इंसान केवल हृदय से सोचकर निर्णय लेगा तो वह निर्णय भी संतुलित नहीं होगा। संतुलित निर्णय लेने के लिए हृदय, मस्तिष्क तथा आत्मा तीनों के बीच संतुलन जरूरी है। हृदय, मस्तिष्क तथा आत्मा तीनों का आध्यात्मिक गठबंधन बनाना चाहिए। ऐसी संतुलित आत्मा से अच्छे विचार रूपी अमृत की एक-एक बूंद हृदय में टपकेगी। ऐसे आध्यात्मिक संतुष्टि के अहसास को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो बस गुंगे के गुड़ खाने के समान है। जिसकी मिठास को वह शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।
(10) कोई भी निर्णय लेने के पूर्व उसके अन्तिम परिणाम पर भी विचार कर लेना चाहिए। पवित्र हृदय-आत्मा में ही प्रभु का वास होता है। प्रभु प्रेम की गली बहुत सकरी है। हृदय में एक को ही रखने का स्थान है या तो प्रभु प्रेम को रख लें या फिर अपने स्वार्थ को। यदि हमने स्वार्थ रहित हृदय रूपी मंदिर में आत्म तत्व को विकसित नहीं किया तो संसार में फिर कहीं भी घूम आये प्रभु बाहर कहीं नहीं मिलेगा। एक सुन्दर प्रार्थना है - हे आत्मा के पुत्र! मेरा प्रथम परामर्श यह है कि एक शुद्ध, दयालु तथा ईश्वर प्रकाश से प्रकाशित हृदय धारण कर ताकि पुरातन, अमिट एवं अनन्त श्रेष्ठता का साम्राज्य तेरा हो।
(11) संसार में हम सब बिना रिटर्न टिकट के आये हैं। मृत्यु का आगमन अघोषित है। मृत्यु कभी भी बाल, युवा तथा वृद्धावस्था में किसी भी क्षण आ सकती है। प्रभु हमें एक-एक क्षण करके देता-लेता है। जब एक सांस ले लेता है तभी दूसरी सांस देता है। इसलिए रोजाना हमें सोने के पूर्व अपने दिनभर के कर्मों का लेखा-जोखा कर लेना चाहिए। हमें रोजाना प्रातः उठते ही एक नया तथा भरपूर ऊर्जा से भरा दिन देने के लिए ईश्वर को हार्दिक धन्यवाद देना चाहिए और रात्रि में सोने के पूर्व सभी से क्षमा प्रार्थना करके धरती माता की गोद में सोने की अनुभूति करना चाहिए। इस प्रकार हमारे द्वारा रोजाना अभ्यास करने से जन्म तथा मृत्यु से अच्छी पहचान हो जायेगी।
(12) श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को गीता का सन्देश देते हुए जीवन एवं मृत्यु के संबंधों को बहुत ही अच्छी तरह समझाया है। गीता का यह ज्ञान हमारे लिए भी काफी लाभकारी है। नैनं छिन्दन्ति शास्त्रिणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारूतः।। भावार्थ - हे अर्जुन, आत्मा को न शस्त्र भेद सकते हैं न अग्नि जला सकती है, न ही इसे वायु सुखा सकती है, न ही इसे दुःख-सुख, क्लेश आदि प्रभावित कर सकते हैं। अतः तू भली-भांति समझ ले कि आत्मा अजर, अमर तथा अविनाशी है।
(13) श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- ‘‘पार्थ ! भयभीत न हो। मृत्यु से भयभीत न हो। तू बड़ी भ्रान्ति में पड़ा हुआ है। मृत्यु से कैसा भय। मृत्यु है क्या? जिस प्रकार शरीर को बचपन, यौवन और वृद्धावस्था के परिवर्तन एक के बाद एक भोगने पड़ते हैं उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर रूपी वस्त्र उतारकर नए शरीर के वस्त्रधारण कर लेती है। मृत्यु कोई चिन्तनीय विषय नहीं है, पार्थ यह तो आत्मा का चोला बदलना मात्र है। एक शरीर को छोड़कर जब आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तब उसे हम मृत्यु कहते हैं। मृत्यु को देहान्त भी कहते हैं क्योंकि मृत्यु केवल देह अथवा ऊपरी आवरण अथवा चोला का ही अन्त करती हैं, आत्मा का नहीं।
(14) बहाई धर्म के पवित्र लेखों के अनुसार मृत्यु प्रसन्नता का सन्देशवाहक है। जब एक व्यक्ति मर जाता है तो वह अपने सृजनहार के पास वापिस लौट जाता है तथा उसका अपने प्यारे प्रभु से पुनर्मिलन हो जाता है। मृत्यु के पश्चात इंसान की आत्मा इस संसार के दुःखों से आजाद होकर जैसा कि बहाई मानते हैं कि ईश्वर के सुन्दर साम्राज्य में चली जाती है।
(15) मानव जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है। भाग- 1 में संसार का देह सहित जीवन तथा भाग-2 में देह के अंत के बाद देह रहित आत्मा का अनन्त काल का जीवन। व्यक्ति का देह के अन्त के क्षण चिन्तन में जो विचार होता है उसी चिन्तन के अनुसार हमारी आत्मा को स्थान मिलता है। यदि अन्तिम सांस लेते समय हमारा चिन्तन ईश्वरीय है तो हमारी आत्मा उच्चता प्राप्त करेगी, यदि अन्तिम सांस लेते समय चिन्तन में संसार की लीला, मोह तथा माया है तो जन्म-मरण के चक्कर फिर 84 लाख यौनियों में अनेक वर्षों तक अत्यन्त ही दुखदायी तथा कष्टदायी परिस्थितियों में भटकना पड़ेगा।
-डॉ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ