आसमाँ दूर से दिखने में भले ही अर्थहीन-सा लगे। शायद बुद्धि कहे, कि नीले से दिखने वाले इस आसमाँ के पास आखिर है ही क्या? खाली-खाली-सा ही तो है। लेकिन जिन्होंने इस आसमाँ के शिखरों को छूने के सार्थक प्रयास किये हैं, उन्होंने ही बताया है, कि यह वही आसमाँ है, जिसमें हजारों लाखों गैलेक्सीयां हैं। अनंत विशालता की गोद में विश्राम कर रहे सूर्य, चाँद व अनंत पृथवीयाँ हैं। अथाह रहस्यों की ऐसी अनकही कहानियाँ हैं, जिन्हें आज तक किसी दादी ने किसी को सुनाया ही नहीं। अनंत कथाओं की अनंत गाथायों में छुपा है, अनंत ज्ञान का, अनंत स्रोत।
ठीक इसी प्रकार से जब हम भगवान श्रीराम जी की पावन गाथाओं के रसपान की बात करते हैं, तो सहज ही ध्यान इंगित हो उठता है, ‘श्रीरामचरित मानस’ की ओर। दिखने में यह सनातन पुनीत ग्रंथ एक पुस्तक ही प्रतीत हो सकता है। लेकिन यह महान पावन ग्रंथ निश्चित ही आसमाँ जैसी अद्भुत व दिव्य विशेषताओं से लबालब है। इसमें न केवल भगवान श्रीराम जी की अमृतमयी जीवंत दिव्य लीलायें तो हैं ही, साथ में ‘मेरे-तेरे’ जैसे साधारण जीवों पर किए उच्च कोटि के भी शोध हैं। जो हमें मानव जीवन के कठिन पथ पर, पग-पग पर हमें राह दिखाते हैं। यूँ कहें, कि श्रीरामचरित मानस वह अक्षयपात्र है, जिसमें संसार के महान से महान रत्न तो हैं ही, साथ में वे रत्न कभी न समाप्त होने वाले तथा सदैव सदमार्ग पर ले जाने वाले व सुखदायक भी हैं। आज से हम इसी महान ग्रंथ को ‘बाल काण्ड’ से प्रसाद रूप में ग्रहण करने का शुभारम्भ करने जा रहे हैं।
जिसका श्रीगणेश होता है श्रीगणेश जी एवं माँ सरस्वती जी की पावन वंदना से-
‘वर्णानामर्थसंघनां रसानां छनदसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।’
अर्थात अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ।
उसके पश्चात मैं ज्ञानपमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वंदना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है-
‘बन्दे बोधमय निन्यं गुरुं शंकररुपिणम।
यमाश्रितो हि वक्रो{पि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।’
इसके पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी कवियों में श्रेष्ठ महर्षि वाल्मीकि जी एवं भक्त शिरोमणि श्रीहनुमान जी की वंदना करते हैं। तद्पश्चात माता सीता जी एवं समस्त गुणों व कलायों के धाम श्रीराम जी की वंदना करते हैं।
गोस्वामी जी ने मंगलाचरण में जो सर्वप्रथम श्रीगणेश जी की वंदना की है, वे श्रीगणेश जी बुद्धि व विवेक के देवता माने जाते हैं। आप शब्दों पर ध्यान देंगे तो पायेंगे, कि हमने कहा, कि श्रीगणेशजी बुद्धि व विवेक के देवता हैं। बुद्धि तो ठीक है, लेकिन यह ‘विवेक’ किसे कहा गया है। कारण कि बुद्धि तो परमात्मा ने सभी जीवों को दी है। नन्हें से नन्हें कीट में भी बुद्धि का प्रवाह पाया जाता है। लेकिन क्या मात्र बुद्धि का मिल जाना ही समस्त सुखों का आधार हो जाता है। जी नहीं! कारण कि बुद्धि जब तक अपने विशुद्ध सामान्य रूप में है, तो जीव इससे अपने सामान्य दैनिक कार्य अच्छे से कर सकता है। लेकिन अगर बुद्धि अपने सामान्य स्तर से नीचे गिर गई, तो निश्चित ही यह पतन का कारण बन जाती है। बुद्धि का यह गिरना ही ‘कुबुद्धि’ का होना कहलाता है। रावण, कंस व हिरण्यकश्यिपु जैसे दुष्ट कुबुद्धि के ही स्वामी थे।
हो सकता है, कि बुद्धि अपने स्तर से गिरने की बजाय, उपर भी उठ सकती है। नकारात्मक ऊर्जा की बजाय, सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर भी हो सकती है। जिससे समाज को हानि नहीं, अपितु लाभ ही लाभ प्राप्त हों, ऐसे विशेष मानवों की बुद्धि को ‘सुबुद्धि’ की श्रेणी में रखा जाता है। देश के वैज्ञानिक, देश भक्त, व अन्य सच्चे समाज सेवियों की बुद्धि को इसी सुबुद्धि की श्रीणी में रखा जाता है। लेकिन इन दोनों कुबुद्धि और सुबुद्धि के स्तर से भी बड़ा एक महान स्तर होता है, जिसे महापुरुषों ने ‘विवेक’ की संज्ञा दी है। विवेक वास्तव में केवल सुंदर बुद्धि की ही परिधि में नहीं आता। अपितु बुद्धि से भी परे जब हमारी दिव्य दृष्टि जागृत होती है, तब उसे विवेक की संज्ञा में रखा जाता है।
विवेक ही है जो हमें सिखाता है, कि संसार में क्या त्यागने योग्य है, और क्या धारण करने योग्य। विवेक ही हमें वह राह दिखाता है, कि कैसे भगवान श्रीकृष्ण की भाँति असत्य का सहारा लेकर भी सत्य की पूर्ण रक्षा की जा सकती है। विवेक ही हमें यह दिशा देना सिखाता है, कि कैसे हमारे भीतर विद्यमान पाँचों आसुरी विकारों से भी, हम धर्म परायण के कर्म करवा सकते हैं। संसार निश्चित ही कीचड़ है। लेकिन कमल का पुष्प भी तो कीचड़ में ही रहता है। वह कैसे स्वयं को उस कीचड़ में भी खिला-खिला व प्रसन्न पाता है? सिद्धांत स्पष्ट है, कि वह कीचड़ से ही अपने भरण पोषण के साधन जुटा लेता है और उसमें कला ऐसी विलक्षण, कि वह कभी भी उस कीचड़ में लिप्त नहीं होता। साथ में उसका संबंध सदैव सीधा सूर्य नारायण से जुड़ा रहता है। जैसे-जैसे कीचड़ ऊँचा उठता जाता है, ठीक वैसे ही कमल का पुष्प भी, स्वयं को ऊँचा उठाता रहता है। साधारण भाषा में आप इसे कमल का विवेक कह सकते हैं। मानव भी संसार रूपी कीचड़ में रहकर व निरंतर उस भगवान से नाता जोड़ कर रखे, तो निश्चित ही इसे विवेक की संज्ञा दी गई है।
बालकाण्ड में आगे गोस्वामी जी गुरु वंदना में नत्मस्तक होते हैं। इसकी विवेचना हम अगले अंक में करेंगे--(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती