इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब ‘गांधी एक असंभव संभावना’ को पढ़ते हुए इस किताब के शीर्षक ने सर्वाधिक प्रभावित किया। यह शीर्षक कई अर्थ लिए हुए है, जिसे इस किताब को पढ़कर ही समझा जा सकता है। 184 पृष्ठों की यह किताब गांधी के बेहद लाचार, बेचारे, विवश हो जाने और उस विवशता में भी ‘अपने सत्य के लिए’ जूझते रहने की कहानी है।
जाहिर तौर पर यह किताब गांधी की जिंदगी के आखिरी दिनों की कहानी बयां करती है। इसमें ‘असंभव संभावना’ शब्द कई तरह के अर्थ खोलता है। गांधी तो उनमें प्रथम हैं ही, तो भारत-पाकिस्तान के रिश्ते भी उसके साथ संयुक्त हैं। ऐसे में यह मान लेने का मन करता है कि भारत-पाक रिश्ते भी एक असंभव संभावना हैं? सामान्य मनुष्य इसे मान भी ले किंतु अगर गांधी भी मान लेते तो वे ‘गांधी’ क्यों होते? प्रत्येक विपरीत स्थिति और झंझावातों में भी अपने सच के साथ रहने और खड़े होने का नाम ही तो ‘गांधी’ है।
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आजादी के मिलने के कुछ समय पहले गांधी के निरंतर कमजोर और अकेले होते जाने की कहानी को जिस खूबसूरती से यह किताब बयां करती है, उसकी दूसरी नजीर नहीं है। अपने प्रार्थना प्रवचनों में गांधी ने खुद को खोल कर रख दिया है। वे सत्य को फिर से पारिभाषित नहीं करते, उसे यथारूप ही रखते हैं। इस पूरी किताब में गांधी के मन और देश में चल रही हलचलों का बयान दिखता है। हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, कांग्रेस-मुस्लिम लीग की सत्ता राजनीति के बीच अकेले और तन्हा गांधी। गांधी पूरी जिंदगी सामूहिकता को साधते रहे और उनका भरोसा अपने समाज पर बना रहा। किंतु आजादी को निकट आता देख यह समाज जिस तरह बंटा उसे देखकर वे हैरत में थे। सही मायने में यह समाज अब भीड़ या अपने-अपने पंथों की जकड़बंदियों में कैद हो चुका था। गांधी इसलिए कई बार बहुत कातर दिखते हैं, कमजोर दिखते हैं। किंतु सत्य और इंसानियत में उनकी आस्था अविचल है। अपने उपवास और रोजों से वे सोते तथा भटके हुए समाज को फिर से उसी राह पर लाना चाहते हैं, जहां इंसानियत और भाईचारा सबसे अहम है। कई लोग मानते हैं कि गांधी ने बंटवारा स्वीकार कर लिया था, सच्चाई यह है कि बंटवारे को उन्होंने कभी मन से नहीं स्वीकारा। स्वीकारा इसलिए कि कम से कम रिश्ते तो बचे रहें। अफसोस समय के साथ अब जब हम देखते हैं तो भारत-पाक रिश्ते भी अब एक असंभव संभावना ही दिखने लगे हैं। बल्कि घृणा की राजनीति ही लंबे समय से दोनों देशों की राजनीति का मूल स्वर रही है।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान में चुनाव भी इन्हीं नफरतों की हवाओं पर सवार होकर जीते जाते रहे हैं। कई युद्ध लड़कर और निरंतर अपरोक्ष युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने इस जहर को और पुख्ता किया है। 7 मई, 1947 को जब कांग्रेस लगभग बंटवारे का फैसला कर चुकी थी तब गांधी ने शाम को कहा- 'जिन्ना साहब पाकिस्तान चाहते हैं। कांग्रेस ने भी तय कर लिया है कि पाकिस्तान की मांग पूरी की जाए... लेकिन मैं तो पाकिस्तान किसी भी तरह मंजूर नहीं कर सकता। देश के टुकड़े होने की बात बर्दाश्त ही नहीं होती। ऐसी बहुत-सी बातें होती रहती हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, फिर भी वे रूकती नहीं, होती ही हैं। पर यहां बर्दाश्त नहीं हो सकने का मतलब यह है कि मैं उसमें शरीक नहीं होना चाहता, यानी मैं इस बात में उनके बस में आने वाला नहीं हूं।... मैं किसी एक पक्ष का प्रतिनिधि बनकर बात नहीं कर सकता। मैं सबका प्रतिनिधि हूं।... मैं पाकिस्तान बनने में हाथ नहीं बंटा सकता।” गांधी का मनोगत बहुत स्पष्ट है किंतु हालात ने उन्हें विवश कर दिया था। वे न तो बंटवारा रोक पाते हैं न ही आजादी के जश्न के पहले जगह-जगह हो रही सांप्रदायिक हिंसा को रोक पाते हैं। नोवाखली के दंगों के बाद कोलकाता, बिहार और फिर पंजाब। सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज के पास अब ‘उपवास’ के सिवा क्या था?
दूसरा संकट यह था कि गांधी नोवाखली में हिंदुओं के नरसंहार से दुखी होकर जब वहां पहुंचते तो मुसलमानों को बुरा लगता कि वे कोलकाता में मुसलमानों के लिए क्यों नहीं पहुंचते? जब वे कोलकाता में मुसलमानों की मदद में उतरते तो हिंदू उन्हें कोसते। ऐसे में गांधी चौतरफा आलोचना के शिकार थे। उनके साथी रहे कांग्रेस जन और राजनेता भी उनके इन देश व्यापी प्रवासों और उपवासों में कोई ‘शांति-संभावना’ देखने की बजाए ‘संकट’ ही देखते थे। ऐसे कठिन समय में गांधी को समझना और कठिन हो गया था। गांधी की बेचारगी यही है कि उन्हें आज तक सही अर्थों में समझा नहीं गया। वे अपने प्रति बनी गहरी नामसझी को लेकर ही विदा हुए। उन्हें लोग देवता का दर्जा तो दे बैठे थे किंतु उनके देवत्व से एक सचेतन दूरी बनाए रखना चाहते थे। शायद इसलिए कि तत्कालीन राजनीति की भाषा से गांधी कदमताल करने के तैयार नहीं थे।
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वे इसीलिए सत्ता का आरोहण नहीं करते, राजपथ नहीं चुनते क्योंकि उनका समाज पर भरोसा था। वे समाज की शक्ति को जगाना चाहते थे, जिसने उन्हें महात्मा बनाया था। किंतु इस दौर में वह समाज भी कहां बचा था, एक गहरा बंटवारा जो सिर्फ भूगोल का नहीं था, मन का भी था। गांधी की ‘रूहानी शक्ति’ इस ‘दुनियावी रोग’ के सामने बेबस थी। यह वही समय था जब गांधी को मंत्रमुग्ध सुनने वाला देश और समाज उनसे सवाल करने लगा था। लोग उनके मुंह पर कहने लगे थे कि आप मर क्यों नहीं जाते? उनसे पूछा जाने लगा किः “आपने चार-पांच दिन इतनी लंबी-लंबी बातें बनाईं कि हम एक इंच भी पाकिस्तान मजबूरी से देना नहीं चाहते, बुद्धि से ह्दय को जाग्रत करके भले ही जो चाहें सो लें, लेकिन वह तो बन गया। अब आप इसके खिलाफ अनशन क्यों नहीं करते?” उनसे यह भी पूछा गया- “आप कांग्रेस के बागी क्यों नहीं बनते और उसके गुलाम क्यों बने हैं? आप उसके खादिम कैसे रह सकते हैं ? अब आप अनशन करके मर क्यों नहीं जाते?”
महात्मा जी ने ये सारी बातें खुद 5 जून, 1947 को अपने प्रार्थना प्रवचन में बतायीं। खुद पर बरसते सवालों से वे अविचल थे। अपनी आलोचना और निंदा को वे खुद अपने प्रवचनों में बताते और अपने उत्तर भी देते। किंतु उस समय गांधी को सुनने, समझने का धीरज तत्कालीन राजनीति और समाज दोनों खो चुके थे। अपने समय को पहचानने की जो अद्भुत क्षमता गांधी में थी उसी के चलते वे कह पाएः “बंटवारे से तो हम आज बच नहीं सकते चाहे वह हमें कितना ही नापंसद हो।” सच कहें तो गांधी का सबसे बड़ा दर्द यही है कि उन्हें समझा नहीं गया और आज भी उनकी रेंज को समझने वाला मन हमारे पास कहां है? एक राष्ट्रपिता की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है जो समाज और राजनीति उनके पीछे चली, उनके इशारों पर चली वही आज उन्हें अप्रासंगिक तथा अनुपयोगी मान रही थी। गांधी अपने आखिरी दिनों में इतने कातर इसलिए भी थे, उनके अपने भी उनका साथ छोड़ चुके थे, या उन्हें अनसुना कर रहे थे। वे इस बात को समझ गए थे। इसीलिए अनेक मौकों पर आजमाए जा चुके अपने अमोध अस्त्र आमरण अनशन का इस्तेमाल भी वे नहीं करते। उनका मानना था इससे बंटवारा रूक भी गया तो मनों में पाकिस्तान बन जाएगा जो ज्यादा खतरनाक होगा। इसलिए भूगोल बंटने के बाद भी रिश्ते बने रहें, मन मिले रहें उसकी कोशिश वे आखिरी सांस तक करते रहे। वे बहुत साफ कहते हैं- “जब मैंने कहा था कि हिंदुस्तान के दो भाग नहीं करने चाहिए तो उस वक्त मुझे विश्वास था कि आम जनता की राय मेरे पक्ष में है; लेकिन जब आम राय मेरे साथ न हो तो क्या मुझे अपनी राय जबरदस्ती लोगों के गले मढ़नी चाहिए?”
देश के बंटवारे के बाद गांधी चाहते तो एक निष्क्रिय बुजुर्ग की आदर्श भूमिका निभाते हुए चैन से रह सकते थे। उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य आजादी हासिल हो चुका था। किंतु वे स्वराज के लिए सक्रिय थे। शायद वे देश और उसकी सरकार के कार्य संचालन में कुछ बेहद जमीनी सुधार के सुझाव दे पाते किंतु आजादी मिलते ही उनके सामने हिंदु-मुस्लिम सद्भाव का प्रश्न बहुत विकराल बनकर खड़ा हो गया। दंगे, मारपीट, आगजनी, स्त्रियों से दुर्व्यवहार की खबरों से उनका मन रोज रो पड़ता। वे अकेले और विवश होने के बाद भी इस कठिन समय में अपने हस्तक्षेप से शांति और सद्भाव का संचार करते हैं। सांप्रदायिक तत्वों को विवश करते हैं कि वे राष्ट्र की मुख्यधारा में साथ आएं और अपनी जहरीली राजनीति से बाज आएं। तत्कालीन सरकार को पाकिस्तान के बचे 55 करोड़ रूपए देने के लिए मजबूर कर देते हैं। उनका नैतिक बल अक्सर भारी पड़ता है। किंतु अब उनकी जिद और हठ से उनके अपने लोग भी उनसे बचने लगे थे। गांधी की जिद क्या थी- सद्भावना, एकता, सौहार्द्र, भाईचारा, अहिंसा। शायद वे इसीलिए कहते हैः “मैं जानता हूं न तो पाकिस्तान नरक है न ही हिंदुस्तान नरक है। हम चाहें तो उन्हें स्वर्ग बना सकते हैं और अपने कामों से नरक भी बना सकते हैं और जब दोनों नरक जैसे बन गए तो उसमें फिर आजाद इनसान तो रह ही नहीं सकता। पीछे हमारे नसीब में गुलामी ही लिखी है। यह चीज मुझको खा जाती है। मेरा ह्दय कांप उठता है कि इस हालत में किस हिंदू को समझाऊंगा, किस सिख को समझाऊंगा, किस मुसलमान को समझाऊंगा।”
गांधी इस पीड़ा को लिए ही विदा हुए। आप देखें तो इस बात के सात दशक पूरे हो चुके हैं। बंटवारा और गहरा हुआ है। सिर्फ गांधी ही नहीं, भारत-पाक रिश्ते भी अब एक असंभव संभावना दिखने लगे हैं। गांधी की त्रासदी यह है कि वे 32 वर्षों तक जिस हिंदुस्तान के लिए अंग्रेजों से लड़ते रहे, उस आजाद देश में वे मात्र पांच महीने (169 दिन) जिंदा रह सके। गांधी को भूलने का, गांधी को न समझने का, भारत को न समझने का यही फल है। एक न समझे जाने वाले नायक गांधी- जिनकी हमने असंख्य मूर्तियां बनाईं, उनके नाम पर संस्थाएं बनाईं, गांधी रोड बनाए, नगर बनाए, नोटों पर उन्हें छापा, विश्वविद्यालय बनाए किंतु यह सब कुछ हमारी गहरी नासमझी के चलते बेमतलब है। अपनी हत्या से कुछ दिन पहले गांधी ने कहाः “मैं तो आज कल का ही मेहमान हूं। कुछ दिनों में यहां से चला जाऊंगा। पीछे आप याद किया करोगे कि बूढ़ा जो कहता था वह सही बात है।”
पुस्तक संदर्भः गांधी एक अंसभव संभावनाः सुधीर चंद्र,
मूल्यः 199, पृष्ठः 184
राजकमल पेपरबैक्स,1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
-प्रो. संजय द्विवेदी
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)