महाराष्ट्र में लोकसभा चुनावों में महाविकास अघाड़ी के हाथों मिली महायुति को शिकस्त के चलते यह उम्मीद लगाना बेमानी नहीं है कि कुछ ऐसे ही नतीजे विधानसभा चुनावों में भी आ सकते हैं। चूंकि लोकसभा चुनाव बीते ज्यादा वक्त नहीं बीता है, लिहाजा माना जा रहा है कि राज्य के मतदाताओं के मिजाज में बहुत बदलाव नहीं आया है। हाल ही में हुए हरियाणा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को लेकर कुछ ऐसी ही उम्मीद जताई जा रही थी। लेकिन नतीजे उम्मीदों के ठीक उलट रहे। हरियाणा का नतीजा गवाह है कि अतीत की बुनियाद पर लड़े जाने के बाद अगले चुनाव के नतीजे उम्मीदों के मुताबिक नहीं हो सकते। इसकी वजह नाकाम रहने वाली राजनीति की अपनी गलतियां भी हो सकती हैं और सफल होने वाली राजनीति की रणनीति भी।
महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के प्रमुख दल जिस तरह आपसी खींचतान में मसरूफ हैं, उसकी वजह से अघाड़ी खेमे में आशंका जताई जाने लगी है कि महाराष्ट्र भी कहीं हरियाणा न बन जाए ! इस सोच की वजह बन रही है महाविकास अघाड़ी की अंदरूनी खींचतान। कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से मुख्यमंत्री रह चुके उद्धव ठाकरे खुद को स्वाभाविक रूप से अघाड़ी का अगुआ मान रहे हैं। लेकिन अंदरखाने में अपने दल को आगे रखने की हर गोटी फिट कर रहे स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व की कोशिश खुद को आगे रखने की है। गठबंधन में अपने दल को आगे रखना गलत नहीं है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा किस कीमत पर हो रहा है?
हकीकत तो यह है कि कांग्रेस कुछ वैसा ही कदम उठाने की सोच रही है, जैसा उसने 2005 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद उठाया था। तब एनसीपी और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था और नतीजों में ज्यादा सीटें एनसीपी ने जीती थीं। लेकिन कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद पर ना सिर्फ दावा ठोक दिया था, बल्कि विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री भी बनवा लिया था। जबकि ज्यादा सीटें हासिल करने के बावजूद एनसीपी सहयोगी की भूमिका में रह गई थी। अव्वल तो कांग्रेस इस बार ऐसी चालें चल रही हैं, ताकि उसके सबसे ज्यादा विधायक चुनाव जीतें। अगर ऐसा होगा तो उसके लिए मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोकना और उसे हासिल करना आसान होगा। लेकिन ऐसा नहीं भी हुआ तो वह 2004 को दोहराना चाहेगी। इस पूरी प्रक्रिया में कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की कोशिश उद्धव ठाकरे को दौड़ में पीछे छोड़ना है। कांग्रेस अपने चुनाव अभियान में शरद पवार की अगुआई वाली एनसीपी का खयाल तो रख रही है, लेकिन शिवसेना-उद्धव के साथ वैसा तालमेल नहीं दिखा पा रही है।
शरद पवार कांग्रेस से निकले हुए ही नेता हैं। उनकी वैचारिक धारा कांग्रेसी सोच के ही इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों दलों की राजनीतिक सोच ही नहीं, जमीन भी एक ही है। जबकि शिवसेना-उद्धव की राजनीतिक जमीन ही नहीं, सोच भी अलग है। उद्धव के वोटरों और कांग्रेस के वोटरों का मिजाज और जमीन भी अलग-अलग है। पिछले लोकसभा चुनाव में अगर राज्य की 48 सीटों में से 13 पर कांग्रेस काबिज होने में कामयाब रही तो इसकी बड़ी वजह एनसीपी के वोटरों का सहयोग नहीं, बल्कि शिवसेना-उद्धव के वोटरों का साथ रहा। कांग्रेस के एक केंद्रीय नेता आपसी बातचीत में इस तथ्य को खुलकर स्वीकार भी करते हैं। वैसे भी समान वैचारिक राजनीतिक बुनियाद के चलते एनसीपी के प्रभाव वाले इलाकों में कांग्रेस और इसी तरह कांग्रेस के प्रभाव वाले इलाकों में एनसीपी ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे। हकीकत यही है कि कांग्रेस और उद्धव या फिर एनसीपी और उद्धव के वोटरों के मिलन ने महाराष्ट्र की राजनीति में नई इबारत लिखी। लेकिन कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व इसे समझ नहीं रहा, बल्कि शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के धड़े को ज्यादा तवज्जो दे रहा है।
इस बीच शरद पवार ने इस चुनाव के बाद राजनीति से संन्यास के संकेत दे दिए हैं। वैसे माना जा रहा है कि यह उनका जज्बाती दांव भी हो सकता है। माना जा रहा है कि संन्यास के संकेत के जरिए शरद मतदाताओं को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके आखिरी चुनाव में उन्हें मौका दें। इसके जरिए वे एक तरफ वोटरों की हमदर्दी हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वे अजित पवार के खेमे को शिकस्त देने की कोशिश कर रहे हैं। एक बारगी मान भी लें कि पवार इस चुनाव के बाद राजनीति से संन्यास ले ही लेंगे तो यह सवाल लाजमी है कि उनके बाद एनसीपी का क्या होगा। पवार चाहेंगे कि उनके बाद उनकी बेटी सुप्रिया सुले ही पार्टी की कमान संभालें। लेकिन ऐसा होना आसान नहीं लगता। शरद के बाद पार्टी का बड़ा हिस्सा अजित पवार की ओर दौड़ लगा सकता है। जिसकी बात अजित से नहीं बनेगी, वह मजबूरीवश कांग्रेस की ओर जा सकता है। शायद एक वजह यह भी है कि महाराष्ट्र कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व उद्धव की बजाय शरद पवार की एनसीपी के साथ खुद को ज्यादा सहज महसूस कर रहा है।
महाविकास अघाड़ी में इस वजह से अंदरूनी खींचतान बढ़ी हुई है। वोटरों का एक बड़ा इसे समझ भी रहा है। ऐसे में मतदान के दिन वोटरों का एक बड़ा अपना मन बदल ले और सत्ताधारी महायुति की ओर हाथ बढ़ा दे तो उसकी कीमत महाविकास अघाड़ी को ही चुकानी पड़ेगी। इस तथ्य को महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रभारी रमेश चेनिथला गहराई से महसूस कर रहे हैं। इसलिए वे महाराष्ट्र की कांग्रेसी राजनीति को लंबे समय तक संभाल चुके नेताओं का सहयोग हासिल करने के लिए कांग्रेस आलाकमान से गुहार लगा रहे हैं। ताकि हरियाणा जैसे नतीजों से बचा जा सके।
वैसे कांग्रेस को उद्धव ठाकरे के स्वभाव को भी नहीं भूलना चाहिए। 2019 के विधानसभा चुनावों में उद्धव ठाकरे ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था। तब शिवसेना की सीटें कम आई थीं। इसके बावजूद वे मुख्यमंत्री बनने पर अड़ गए। जिसकी वजह से गठबंधन टूटा और शरद पवार के प्रयासों से उद्धव को हाथ का साथ मिला और उद्धव मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। ऐसे में यह मान लेना कि अगर कांग्रेस की ज्यादा सीटें आई तो उसका ही मुख्यमंत्री बनेगा, गलत होगा। उद्धव खुद को ही मुख्यमंत्री के रूप में आगे करने से नहीं हिचकेंगे। जिस पद के लिए उद्धव को बीजेपी से दशकों पुराना गठबंधन तोड़ने में हिचक नहीं हुई, उसी पद के लिए भला वे कांग्रेस को कैसे वाकओवर दे देंगे। महाविकास अघाड़ी में एनसीपी-शरद ऐसा दल है, जिसे हर हाल में सत्ता चाहिए। एनसीपी को दो नंबर की पार्टी होने पर भी इसके लिए एतराज नहीं होगा। वैसे शरद के लिए फिलहाल पार्टी को बचाए रखना बड़ी चुनौती होगी।
महाराष्ट्र के लोकसभा चुनाव नतीजों के हिसाब से देखें तो महाविकास अघाड़ी को 288 सदस्यीय विधानसभा में 153 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी, जबकि महायुति को 126 सीटों पर बढ़त मिली। संख्या के लिहाज से यह अंतर ज्यादा लगता है। लेकिन विधानसभा चुनावों के चरित्र के लिहाज से देखें तो यह अंतर बड़ा नहीं है। आपसी राजनीतिक खींचतान और गठबंधन के अविश्वास इस अंतर को पाटने के सहयोगी औजार बन सकते हैं। फिर बीजेपी मराठा बनाम अन्य के लिहाज से जातीय समीकरण बनाने की कोशिश में जुटी हुई है। ऐसे में अगर वह हरियाणा की तरफ फिर से बाजी मार ले तो हैरत नहीं होगी। महाविकास गठबंधन की आपसी खींचतान, कांग्रेस की अंदरखाने में उद्धव पर वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश बीजेपी को अपना लक्ष्य हासिल करने में मददगार हो सकती है। महाराष्ट्र की राजनीति समझने वाले जानकार इस खींचतान और इसके भावी नतीजों को भांप भी रहे हैं। यह कहना मुश्किल है कि कांग्रेस का नेतृत्व इस तथ्य को समझ रहा है या नहीं।
- उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)